19-Jul-2017 07:13 AM
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सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही सावन के महीने में भगवान राम की पूजा भी उतना ही महत्व रखती है जितना की शिव पूजा। सावन के महीने में अधिकतर लोग श्री रामचरितमानस का पाठ कराते हैं। यदि अखण्ड पाठ नहीं करा सकते तो एक मास परायण का पाठ भी लाभकारी है।
नारद मोह प्रसंग में भगवान राम नारद जी को पाप मुक्ति हेतु शंकर जी की आराधना को
बोलते हैं।
जाहु जपहु शंकर शत नामा तथा बोलते हैं -
शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहुं नहिं भावा !!
रामचरितमानस के पाठ से भगवान राम की आराधना तो होती ही है साथ ही भगवान शिव भी प्रसन्न होते हैं भगवान राम की पूजा के बिना शिव पूजा अधूरी रहती है और बिना शिव पूजा के राम पूजा अधूरी है। इस विषय में कई मान्याताएं प्रचलित हैं। मसलन कहा जाता है कि रामेश्वरम में शिवलिंग पर जल चढ़ाने से मनुष्य शिव का प्रिय भक्त हो जाता है। ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम सर्वोपरि माना जाता है उसकी स्थापना भगवान राम ने अपने हाथों से की है जो व्यक्ति निष्काम भाव से रामेश्वरम के दर्शन करता है या
जल चढ़ाता है उसे शिव के साथ-साथ प्रभु राम की कृपा भी प्राप्त हो जाती है।
होइ अकाम जो छल तज सेइहि, भगति मोरि तेहि संकर देहि।
ममकत सेतु जो दरसनु करिही, सो विनु श्रम भव सागर तरिही।।
भगवान राम का कहना है भगवान शिव के समान मुझे कोई दूसरा प्रिय नहीं है इसलिय शिव मेरे आराध्य देव हैं जो शिव के विपरीत चलकर या शिव को भूलकर मुझे पाना चाहे तो में उस पर प्रसन्न नहीं होता। जिसका प्रमाण रामचरितमानस में चंद चौपाई और दोहों में किया गया है।
लिंग थाप कर विधिवत पूजा, शिव समान मोही और न दूजा।।
शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहु मोही न भावा।।
जो व्यक्ति राम से वैर कर शिव का उपासक अथवा शिव से वैर रखता हो ओर राम का उपासक बनना चाहता हो तो वह पुण्य नहीं पाप का भागी होता है।
राम चरितमानस में गोस्वामी जी ने लिखा है।
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही ममदास।। ते नर करही कलप भरी, घोर नरक महुं वास।।
सावन के महीने में रामचरितमानस का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि कहा जाता है इसकी रचना स्वयं शंकर जी ने की है। इसका जिक्र तुलसीदास जी ने लिखा है।
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमय सिवा मनभाषा।।
ताते राम चरितमानस वर। धरेउ नाम हियं हेरि हरसि हर।।
अर्थात महेश ने (महादेव जी) इसे रचकर अपने मन में रखा था और अच्छा अवसर देखकर पार्वती जी को कहा। शिव जी ने अपने मन में विचार कर इसका नाम रामचरितमानस रखा।
स्वतंत्रता और नियंत्रण ये दो शब्द परस्पर विरोधी हैं। लेकिन एक-दूसरे के पूरक हैं। स्वतंत्रता जीव की स्वाभाविक अभिलाषा है पर नियंत्रण भी आवश्यक है तथा नियंत्रण में कारावास की अनुभूति न हो इसलिए इसमें स्वतंत्रता भी आवश्यक है। शिव जी स्वतंत्रता के भगवान् हैं और राम जी नियंत्रण के भगवान है। भगवान राम मर्यादा में रहते हैं और भगवान शिव मर्यादा का उपहास उड़ाते दिखते हैं। आसुरी या राक्षसी प्रवर्ति के जीव स्वेच्छानुसार अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहते हैं तभी वे शिव भगवान के वास्तविक स्वरूप को न समझने के कारण भगवान शिव की पूजा में आस्था रखते हैं। प्रत्येक भोगवादी प्रवर्ति का व्यक्ति स्वेच्छाचार की छूट चाहता है तभी वह श्री शंकर भगवान की भक्ति की ओर अग्रसर होता है। जबकि यह सिर्फ भ्रांत विचारों पर ही आधारित है। भगवान शिव की नग्नता तथा उनके साथ जुड़े मादक पदार्थो में उसे अपनी ही इच्छा के दर्शन होते है। क्या श्री शंकर भगवान का वास्तविक स्वरूप यही है? बाहरी दृष्टि से देखने पर मर्यादा के विरुद्ध दिखाई देने वाले भगवान शंकर के कर्म उनके गहरे स्वरुप को दर्शाते हैं। मर्यादा का पालन करना एक व्यक्ति या समाज की आवशाक्ताओं के अनुसार ही बनाया गया है। जोकि हर समय और स्थान के लिए उपयोगी भी नहीं है। एक मनुष्य अपने आप में अलग होते हुए भी समाज का ही हिस्सा है और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए किसी भी एक मनुष्य को पूर्णरूप से स्वेच्छा से चलने की अनुमति नहीं दी जा सकती तभी नियंत्रण की आवश्यकता होती है। जब शंकर भगवान समाज में अथवा व्यकि में मर्यादा के पालन हेतु कारावास की स्थिति को अनुभव करते देखते हैं तो वह इस मर्यादा का उपहास उड़ाते दिखते हैं। जब एक मर्यादित व्यक्ति वस्त्रों के आवरण के बोझ से दबे होने पर भी कर्मो द्वारा अपनी कुंठित वासनाओं को उजागर होने से नहीं रोक पाता तो शंकर भगवान अपनी नग्नता द्वारा अपनी श्रेष्टता सिद्ध करते हुए दिखते हैं। तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति आडम्बरों के वस्त्रों से अपनी अंदरूनी नग्नता को ढकने को मर्यादा का नाम देता है तो भगवान शंकर अपनी बाहरी नग्नता की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। इस बात से हम यह निष्कर्ष निकाल पाते हैं कि मनुष्य द्वारा निर्मित यह समाज चलाने हेतु हमें स्वतंत्रता और नियंत्रण दोनों की ही आवश्यकता होती है। जैसे किसी वाहन को सुचारू रूप से चलाने के लिए गति एवं गति निरोधक दोनों ही चाहियें।
गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान शंकर एवं भगवान राम के आपस में सम्बन्ध पर रामचरितमानस में लिखा है...
सेवक स्वामी सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब विधि तुलसी के !!
अर्थात भगवान शंकर-भगवान श्री राम के सेवक (दास) -स्वामी (इष्ट) -सखा (मित्र) हैं। अभिप्राय: यह कि भगवान शंकर और श्रीराम एक हैं और एक की पूजा से दोनों प्रसन्न होते हैं। इसलिए सावन में भगवान राम की भी पूजा की जा सकती है।
-ओम