02-May-2017 06:53 AM
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पाश्चात्य जगत में विश्व साहित्य का कोई भी ग्रंथ इतना अधिक उद्धरित नहीं हुआ है जितना भगवद्गीता। भगवद्गीता ज्ञान का अथाह सागर है। जीवन का प्रकाशपुंज व दर्शन है। शोक और करुणा से निवृत होने का सम्यक मार्ग है। भारत की महान धार्मिक संस्कृति और उसके मूल्यों को समझने का ऐतिहासिक-साहित्यिक साक्ष्य है। इतिहास भी है और दर्शन भी। समाजशास्त्र और विज्ञान भी। लोक-परलोक दोनों का आध्यात्मिक मूल्य भी। वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:, या स्व्यं पद्मनाभस्य मुखमद्माद्विनी: सुता।Ó अर्थात गीता सुगीता करने योग्य है इसे भली प्रकार पढ़कर अंत:करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान श्रीविष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है। स्वयं श्री भगवान ने भी गीता के महात्मय का बखान किया है। श्रीगीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है जिसमें एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है।
श्रीगीता में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिए मुख्य दो मार्ग बतलाए हैं- एक सांख्ययोग और दूसरा कर्मयोग। उन्होंने कर्म की महत्ता पर विशेष बल दिया है। उन्होंने फल की आसक्ति छोड़ कर्म करने को कहा है। श्रीगीता में श्रीभगवान ने मानव जाति के लिए धर्मपरक सदाचार व त्यागपरक आचरण के अनुसरण पर जोर दिया गया है। श्रीगीता निराशा के भंवर में फंसे संसार को सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करने की प्रेरणा देती है। इसे ही कर्मयोग कहा गया है। गीता के शब्द अमृत वचन हैं। संसाररुपी भवसागर से पार उतरने की औषधी है। हजारों वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता का उपदेश दिया था जब वे सत्य की रक्षा के लिए अपने बंधु-बांधवों से युद्ध करने से हिचक रहे थे। मोहग्रस्त होकर युद्धस्थल में आयुध रख दिए थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें नश्वर भौतिक शरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत अंतर को समझाकर युद्ध के लिए तैयार किया। बिना फल की आशा किए बिना कर्म का संदेश दिया। श्रीकृष्ण के उपदेश से अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ। कर्तव्य का बोध हुआ। ईश्वर से आत्म साक्षात्कार हुआ। उन्होंने कुरुक्षेत्र में अधर्मी कौरवों को पराजित किया। सत्य और मानवता की जीत हुई। अन्याय पराजित हुआ।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से जगत को समझाया है कि निष्काम कर्म भावना में ही जगत का कल्याण है। श्रीकृष्ण का उपदेश ही गीता का अमृत वचन है। उन्होंने गीता के जरिए दुनिया को उपदेश दिया कि कौरवों की पराजय महज पांडवों की विजय भर नहीं बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर जीत है। श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और न्याय-अन्याय को भलीभांति परिभाषित किया है। उन्होंने धृतराष्ट्र पुत्रों को अधर्मी, पापी और अन्यायी तथा पाडुं पुत्रों को पुण्यात्मा कहा है। उन्होंने संसार के लिए क्या ग्राहय और क्या त्याज्य है उसे भलीभांति समझाया। श्रीकृष्ण के उपदेश ज्ञान, भक्ति और कर्म का सागर है। श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्म और ईश्वर हैं। संसार के समस्त पदार्थों के बीज उन्हीं में निहित है। वे नित्यों के नित्य और जगत के सूत्रधार हैं। शास्त्रों में उन्हें साक्षात व साकार ईश्वर कहा गया है। भारतीय चिंतन और धर्म का निचोड़ उनके उपदेश में ही समाहित है। श्रीगीता में समस्त संसार और मानव जाति के कल्याण का मार्ग छिपा है। श्रीगीता श्रीकृष्ण द्वारा मोहग्रस्त अर्जुन को दिया गया उपदेश है। विश्व संरचना का सार तत्व है। गीता महज उपदेश भरा ग्रंथ ही नहीं बल्कि मानव इतिहास की सबसे महान सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक वार्ता भी है। संसार की समस्त शुभता गीता में ही निहित है। गीता का उपदेश जगत कल्याण का सात्विक मार्ग और परा ज्ञान का कुंड है।
विश्व के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है कि भगवद्गीता को पढ़कर मुझे ज्ञान हुआ कि इस दुनिया का निर्माण कैसे हुआ। महापुरुष महात्मा गांधी कहते थे कि जब मुझे कोई परेशानी घेर लेती है तो मैं गीता के पन्नों को पलटता हूं। महान दार्शनिक श्री अरविंदों ने कहा है कि भगवद्गीता एक धर्मग्रंथ व एक किताब न होकर एक जीवन शैली है, जो हर उम्र के लोगों को अलग संदेश और हर सभ्यता का अलग अर्थ समझाती है।
गीता के प्रथम अध्याय में कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन रूपी जीव द्वारा मोहग्रस्त होना, करुणा से अभिभूत होकर अपनी शक्ति खो देना इत्यादि का भलीभांति उल्लेख है। दूसरा अध्याय हमें देहान्तरण की प्रक्रिया, परमेश्वर की निष्काम सेवा के अलावा स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के गुणों से अवगत कराता है। तीसरे, चौथे व पांचवे अध्याय में कर्मयोग और दिव्य ज्ञान का उल्लेख है। यह अध्याय इस सत्य को उजागर करता है कि इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार के कर्म में प्रवृत होना पड़ता है। छठा, सातवां और आठवें अध्याय में ध्यानयोग, भगवद्ज्ञान और भगवद् प्राप्ति कैसे हो इसका मार्ग सुझाया गया है।
नवें और दशवें अध्याय में परम गुह्य ज्ञान व भगवान के ऐश्वर्य का उल्लेख है। कहा गया है कि भक्ति के मार्ग से जीव अपने को ईश्वर से सम्बद्ध कर सकता है। ग्यारहवें अध्याय में भगवान का विराट रुप और बारहवें में भगवद् प्राप्ति का सबसे सुगम और सर्वोच्च मार्ग भक्ति को बताया गया है। तेरहवें और चैदहवें अध्याय में प्रकृति, पुरुष और चेतना के माध्यम से शरीर, आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझाया गया है। बताया गया है कि सारे देहधारी जीव भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन हैं-वे हैं सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण। कृष्ण ने वैज्ञानिक तरीके से इसकी व्याख्या की है। पंद्रहवें अध्याय में वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य भौतिक जगत के पाप से अपने आप को विलग करने की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। सोलहवें, सत्रहवें और अन्तिम अठारहवें अध्याय में दैवी और आसुरी स्वभाव, श्रद्धा के विभाग व सन्यास सिद्धि का उल्लेख है। श्रीगीता ज्ञान का सागर ही नहीं बल्कि जीवन रुपी महाभारत में विजय का मार्ग भी है।
-ओम