18-Jan-2016 06:41 AM
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क्या पठानकोट में भारतीय वायुसेना के अड्डे पर आतंकवादी हमला भारत की खुफिया एवं सुरक्षा एजेंसियों की लापरवाही के कारण संभव हुआ? हालांकि दहशतगर्द वायुसेना के किसी विमान या अन्य उपकरण तक पहुंचने में नाकाम रहे,

लेकिन यह दु:खद हकीकत हमारे सामने है कि उनसे लड़ते हुए हमारे सात बहादुर सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए और 20 जख्मी हुए। फिर दुश्मन देश से आए आतंकवादी वायुसेना के अड्डे में घुस जाएं, यह भी हमारी चौकसी इंतजामों की कोई कम नाकामी नहीं है।
घटना हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल रही है। यह नौबत क्यों आई? क्या खुफिया और निगरानी एजेंसियां ने अपना दायित्व ठीक से नहीं निभाया? गौरतलब है कि पंजाब पुलिस के अगवा हुए एक अधिकारी ने सीमापार से घुसपैठ की सूचना दी थी, लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। उस चेतावनी के तकरीबन 24 घंटों के बाद वायुसेना अड्डे पर हमला हुआ। यानी बीच की यह महत्वपूर्ण अवधि सुरक्षा एजेंसियों ने गंवा दी। बड़ा सवाल है कि उसी नाले से फिर घुसपैठ कैसे हो गई, जहां से कुछ महीने पहले दहशतगर्द पाकिस्तान से भारत आए थे? क्या वहां रात में निगरानी के लिए लगाए उपकरण काम नहीं करते? हमला होने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स (एनएसजी) के दस्ते भेजने के निर्णय पर भी सुरक्षा एवं सैन्य विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं। हैरत जताई गई है कि पठानकोट में मौजूद भारतीय सेना की टुकड़ी की सेवा लेने के बजाय एनएसजी पर भरोसा किया गया। अनेक जानकारों की बेलाग राय जताई है कि हमले के पीछे पाकिस्तानी सेना और आईएसआई का हाथ है। पठानकोट पर धावा भी पिछले जुलाई में गुरदासपुर में हुए हमले की तर्ज पर बोला गया। विशेषज्ञों की राय है कि पंजाब में पुलिस तथा अन्य एजेंसियों के बीच समन्वय एवं गंभीरता के अभाव का अंदाजा पाकिस्तान में बैठी ताकतों ने लगा लिया है। अत: अब वे यहां के ठिकानों को भी निशाना बना रही हैं। फिर नई जगह पर हमला होने से प्रचार पाने और अधिक आतंक फैलाने का उनका मकसद भी सधता है।
तो अहम सवाल है कि आखिर वे ताकतें कौन हैं? क्या वे वही ताकतें हैं, जिन्होंने अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर भी आक्रमण किया? क्या इन दोनों हमलों के तार कहीं आपस में जुड़ते हैं? ये सारे सवाल अब भारतीय रक्षा एवं विदेश नीतिकारों के सामने आ खड़े हुए हैं। बहरहाल, यह तो साफ है कि जब तक ये ताकतें हैं, भारत अपनी चौकसी में लापरवाही बरतने का जोखिम एक पल के लिए भी नहीं उठा सकता। पाकिस्तान से संबंध सुधरने के भ्रम में पडऩा हमेशा भारत को भारी पड़ा है। पठानकोट और मजार-ए-शरीफ में जो हुआ, उसका भी यही संदेश है। अब हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मास्टरस्ट्रोक वाली लाहौर कूटनीति से उपजे उत्साह पर आतंकवादी इतना जल्दी पानी फेर देंगे, इसका अंदेशा बहुतों को नहीं रहा होगा। हालांकि पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने इस हमले की निंदा की है, इसलिए सरकार के पास थोड़ी संतुष्टि जाहिर करने का अवसर है, लेकिन इसके बावजूद हमें कुछ चीजों को समझने की जरूरत है। पहली यह कि प्रधानमंत्री की अप्रत्याशित लाहौर यात्रा से बने सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को इतना जल्दी आतंकवादी बिगाड़ देंगे, क्या इसका अनुमान दोनों सरकारों को नहीं था? क्या यह हमला केवल चरमपंथ की देन है या फिर इसमें पाकिस्तान की सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई बराबर की साझीदार है?
क्या हमें इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान के साथ बात नहीं करने की अपनी चुनौतियां हैं और करने की अपनी? वहीं अति जल्दबाजी में उठाए गए कदमों की चुनौतियां तो और असाधारण हैं। सीधे सैन्य बेस को निशाना बनाकर आतंकवादी क्या संदेश देना चाह रहे हैं और भारत इसे किस रूप में ले रहा है? क्या इस हमले में यह संदेश निहित नहीं है कि रणनीतिक कूटनीति को भावुकता, लोकप्रियता और उत्सुकता के बजाय गंभीर अध्ययनों, आकलनों और विश्लेषणों से निकले निष्कर्षों व रणनीतियों पर आधारित होना चाहिए? 2 जनवरी की सुबह पठानकोट स्थित भारतीय वायुसेना के ठिकाने पर हुई आतंकी कार्रवाई के बाद भ्रम की जैसी स्थिति निर्मित हुई, वह भी कम चिंतनीय नहीं। सरकार की तरफ से ऑपरेशन पूर्ण होने की सूचना दे दी गई, जो पूरी तरह गलत साबित हुई। हमें याद रखना चाहिए कि पठानकोट एयरबेस पर मिग-21, एमआई-25 और एमआई-35 हमलावर हेलिकॉप्टर रखे गए हैं, इसलिए इसकी विशिष्ट सामरिक महत्ता है। दूसरा, खुफिया एजेंसियों ने जो इंटरसेप्ट्स प्राप्त किए हैं, उसके अनुसार आतंकियों को उनके सरगनाओं की तरफ से आदेश दिया गया था कि चॉपर्स और प्लेनों को उड़ा दो। तात्पर्य यह हुआ कि आतंकी अब भारत के सुरक्षा तंत्र को सीधे चुनौती देने का साहस दिखा रहे हैं। पठानकोट पर हमला करने वाले आतंकियों का संबंध पाकिस्तान आधारित जैशे-मोहम्मद से है (यह संगठन उसी मसूद अजहर का है, जिसे 1999 के कंधार विमान अपहरण हादसे के बाद बंधकों को छुड़ाने के लिए भारतीय कैद से रिहा किया गया था) और जैश को इस समय पाकिस्तान की सेना तथा आईएसआई की विशेष कृपा प्राप्त हो रही है। इसलिए भारत सरकार को इसकी गंभीरता समझनी होगी और यह तय करना होगा कि वार्ता और सामरिक आवश्यकता के बीच कैसा साम्य स्थापित करे।
पठानकोट हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू की टिप्पणी का संयुक्त सार यह निकलता है कि पठानकोट में हमला करने वाले समूह को पाकिस्तान के कुछ तत्वों से मदद मिली है और भारत इसका मुंहतोड़ जवाब देगा। इसमें कोई शक नहीं कि इस हमले में पाकिस्तानी तत्व शामिल हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के निहितार्थ क्या हैं कि भारत इसका मुंहतोड़ जवाब देगा? यहां दो सवाल महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि पाकिस्तान अप्रत्यक्ष रूप से इस युद्ध के जरिए भारत में घुसकर लगातार हमले कर रहा है, लेकिन भारत तमाम तनावों के बावजूद पहले कभी मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाया तो अब कैसे देगा, जब नई कूटनीति भारत-पाक रिश्तों को भिन्न आयाम दे रही हो? दूसरा यह कि यदि भारत ऐसा करना भी चाहे तो वह जवाब देगा किसे? पाकिस्तान की हुकूमत को या जैश जैसे आतंकी संगठनों को? इसके लिए पहले तो यह सिद्ध करना होगा कि ऐसा पाकिस्तान ने ही किया। फिर कार्रवाई करनी होगी। यह भी निर्धारित करना होगा कि कार्रवाई किसके विरुद्ध हो। क्या भारत जैश के खिलाफ अमेरिका की तरह कोई ऑपरेशन करेगा या पाकिस्तान की सरकार को उसके खिलाफ सैन्य ऑपरेशन के लिए राजी करेगा? फिलहाल ये दोनों विकल्प संभव नहीं हैं। लगता तो यही है कि वही पुरानी परंपरा निभाई जाएगी, जिसमें भारत-पाकिस्तान की सरकार से आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करेगा, डोजियर सौंपेगा और पाकिस्तान सरकार उन्हें अपर्याप्त बताकर या तो कार्रवाई न कर पाने की असमर्थता प्रकट करेगी या छुटपुट कार्रवाई करेगी लेकिन वहां के न्यायालय पर्याप्त सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर देंगे। भारत सरकार कुछ समय के लिए अनमनी होगी और फिर नई कवायद शुरू हो जाएगी। फिर इतने बड़े बोल क्यों?
प्रधानमंत्री ने लाहौर यात्रा के जरिए हार्ट-टु-हार्ट डिप्लोमेसी का संकेत दिया था। इसकी अपनी जगह पर भले सराहना होनी चाहिए, लेकिन कूटनीति में वैयक्तिक एजेंडे और संवेदनाओं के बजाय रियलपॉलिटिक की ज्यादा जरूरत होती है। चिंताजनक बात है कि पिछले कुछ समय से विदेश नीति को पॉपुलिस्ट एप्रोच पर आगे बढ़ाया जा रहा है, इसलिए उसमें आधारभूत तत्वों पर प्रचारवादी पक्ष हावी दिखते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसकी नजीर हम अमेरिका, चीन और रूस की विदेश नीति में देख सकते हैं। पाकिस्तान के साथ रिश्तों में ठहराव लाने और पुन: शुरू करने में भारत प्राय: गलती करता है। यही गलती इस बार फिर हुई। उफा में दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात यदि सार्थक स्थिति नहीं प्राप्त कर सकी तो इसके विभिन्न आयामों पर गंभीर अध्ययन करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। खास बात यह है कि पाकिस्तानी मीडिया की तरफ से तो मोदी के मास्टर स्ट्रोक पर यही कहा गया कि उन पर काफी दबाव है, जिसके चलते उन्हें ऐसा करना पड़ा। भारत में इस पर जैसा शोरगुल हुआ, उससे इसकी सही समीक्षा भी नहीं हो पाई ताकि इसके निहितार्थ और संभावनाएं पता चलते।
यह सवाल सबसे अहम बना हुआ है कि क्या पाकिस्तान ने अपने एजेंडे में किसी तरह का बदलाव किया है? क्या उसकी सेना व आईएसआई का रुख बदला है? क्या उसकी लोकतांत्रिक सरकार पर सैन्य नियंत्रण कम हुआ है? क्या पाकिस्तान के स्टेट एक्टर (सेना) और नॉन स्टेट एक्टर के संबंधों में कोई बदलाव आया है या दोनों आज भी भारत को दुश्मन नंबर 1 ही मानते हैं? फिलहाल तो प्रत्येक का उत्तर यहां नकारात्मक ही होगा। जुलाई 2015 को गुरदासपुर में आतंकी हमला, एक सप्ताह बाद जम्मू के ऊधमपुर में भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला और अब पठानकोट के एयरबेस पर हमला एक सबक है। सवाल उठ रहा है कि क्या हम सबक लेंगे।
-राजेंद्र आगाल