बढ़ती खाद्य महंगाई और विकास का विरोधाभास
16-Jan-2016 10:53 AM 1234789

भारत में आमतौर पर महंगाई खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्घि की वजह से ही बढ़ती है। इसके लिए आसानी से उन आंकड़ों पर नजर डाली जा सकती है जिनमें महंगाई के दौर में खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी देखने को मिलती है। मुद्रास्फीति का मौजूदा दौर वर्ष 2008-09 में शुरू हुआ और अब तक जारी है। यह भी इसका अपवाद नहीं है। वर्ष 2007-08 से लेकर अब तक थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति की औसत सालाना दर 7.3 फीसदी रही है जबकि खाद्य महंगाई की औसत सालाना दर 11.6 फीसदी रही है। खुदरा महंगाई में भी यही परिदृश्य नजर आता है जबकि खुदरा महंगाई की दर हमेशा थोक मूल्य सूचकांक से अधिक रहती है। अप्रैल 2012 से मार्च 2014 के दरमियान उपभोक्ता महंगाई सूचकांक में खाने की कीमतों के दाम थोक सूचकांक के मुकाबले अधिक रहा। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर 6.7 फीसदी थी जबकि खुदरा सूचकांक में यह 9.9 फीसदी रहा।
सवाल यह है कि महंगाई हमेशा खाने-पीने की चीजों की कीमतों के कारण ही क्यों बढ़ती है? इसका छोटा सा जवाब यह है कि भारत में अभी भी आर्थिक विकास पर खाद्यान्न उत्पादन का प्रभाव है। कृषि क्षेत्र में उत्पादन की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि खाद्यान्न उत्पादन की गति बहुत धीमी है। चूंकि खपत में खाद्यान्न की अहम भूमिका है इसलिए आय में होने वाली वृद्घि का संबंध खाद्यान्न की मांग में होने वाले इजाफे से भी है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्घि दर की एक सीमा है जो खाद्यान्न उत्पादन की मांग को संतुलन में रखती है। जब भी जीडीपी विकास की वास्तविक दर में इजाफा होता है, तब तब खाद्य कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी होती है और मुद्रास्फीति का दबाव बनता है। जीडीपी विकास और खाद्य उत्पादन में होने वाली वृद्घि का संतुलन बिगडऩे की स्थिति निश्चित तौर पर मुद्रास्फीति की एक वजह है।
बढ़ती आय, खाद्य खपत के रुझान आदि में भी बदलाव आ रहा है। औसत खाद्यान्न खपत में खाद्यान्न की हिस्सेदारी कम हो रही है जबकि फलों, सब्जियों, अंडों, मांस और मछली की हिस्सेदारी बढ़ रही है। मौजूदा महंगाई में ही देखा जाए तो खाद्यान्न के बजाय बाकी उत्पादों का योगदान ज्यादा है। हकीकत में देखा जाए तो इनकी कीमत में होने वाली बढ़ोतरी खाद्यान्न की तुलना में मामूली ज्यादा है। यह तथ्य चौंकाने वाला है कि चावल और गेहूं की कीमतों में अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है। यह कहा जा सकता है कि चावल और गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी की गति फलों और सब्जियों तथा अंडा, मछली और मांस से कम नहीं रही है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की व्यवस्था सही नहीं है। सरकारी नीतियां जीडीपी को बढ़ाने वाली होती हैं, क्योंकि सरकार ने विकास को मापने का जरिया जीडीपी मान रखा है। सरकार सोचती है कि जीडीपी जितनी बढ़ेगी, उतना विकास होगा। जीडीपी ऊंची रहने पर ही बाहरी कंपनियां भारत में जीडीपी दर को 9 अंक तक ले जाना चाहती हैं। यही नीति महंगाई बढ़ा रही है और आर्थिक विषमताएं पैदा कर रही है। इसी नीति के कारण एक किसान और अम्बानी के बीच 90 हजार गुणा का फर्क है।
जीडीपी क्या है जो आम लोगों की समझ से बाहर
जीडीपी की गहरी जानकारी आम लोगों को नहीं है। दरअसल बाजार में पैसे का बहाव जितना अधिक होगा, जीडीपी उतनी ही बढ़ेगी। यानी एक पेड़ खड़ा है तो जीडीपी नहीं बढ़ेगी, पर जब उसे काट दिया जाए तो जीडीपी में वृद्धि दर्ज होगी। यह आर्थिक नीति ठीक है या गलत इस पर हम नीति तय करने वालों से सवाल नहीं पूछते। जब तक हम नीति निर्माताओं से इस तरह के प्रश्न नहीं पूछेंगे, तब तक हमें महंगाई मारेगी। यदि यमुना नदी साफ रहेगी तो जीडीपी नहीं बढ़ेगी, किंतु यमुना गंदी रहेगी तो जीडीपी तीन बार तक बढ़ती है। पहली बार तो तब बढ़ती है, जब उसके किनारे कल-कारखाने लगाए जाएं और ये कारखाने अपनी गंदगी यमुना में डालें। दूसरी बार जीडीपी तब बढ़ेगी, जब यमुना की सफाई के लिए करोड़ों की योजना बनाई जाएगी और तीसरी बार तब बढ़ती है, जब हम उसके गंदे पानी को पीकर बीमार हो जाएं। बीमार होंगे तो डाक्टर के यहां जाएंगे, डाक्टर फीस लेगा और हम दवाई भी खरीदेंगे। इस तरह ये सारी चीजें जीडीपी को बढ़ाती हैं। याने कि कोई भी स्थाई न होकर बार-बार-आती जाती रहे।
द्यकुमार राजेंद्र

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