जन नेता नहीं बन पाए मोदी?
02-Jan-2016 08:14 AM 1234796

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व में भारत की जनता ने चार तत्व देखा। वे एक सुयोग्य प्रशासक, सफल विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी और छप्पन इंच छाती की वजह से आतंकवाद का विनाशक के तौर पर उभर कर सामने आते हैं। लेकिन, दुखद है कि ऐसा होता नहीं दिख रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आम जनमानस को भारी अपेक्षाएं हैं। अपेक्षा है कि वह भ्रष्टाचार को कम करेंगे ताकि आम आदमी की जिंदगी में थोड़ा सुकून आ सके। अपेक्षा है कि मोदी बेरोजगारी को दूर करेंगे ताकि गरीबी का बोझ कुछ कम हो सके। अपेक्षा है कि विकास का पहिया मोदीराज में तेज दौड़ेगा ताकि आने वाली पीढिय़ां एक विकसित देश में सांस ले सकें। अपेक्षा भ्रष्टाचार से जन्मे काले धन की वापसी को लेकर भी है जो विदेशी मुल्कों में उन रहबरों का जमा है जिनकी रहनुमाई दरअसल रहजनी थी जिसके चलते आजादी के बाद भारत अपेक्षित तरक्की न कर सका। ऐसी और इस सरीखी ढेर सारी अपेक्षाएं भारतीयों को मोदी से हैं। इन्हीं अपेक्षाओं के चलते वह दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आज विराजमान हैं। उन्हें सत्तानशीन हुए डेढ़ बरस हो चुका है। इस डेढ़ बरस में मोदी जन अपेक्षाओं के पैमाने पर अभी तक तो खरा नहीं उतर पाए हैं।
पहला कारण नरेंद्र मोदी सरकार का पिछले 19 महीनों के दौरान दिशाहीनता का शिकार रहना है। उन्होंने अपनी पारी की शुरुआत शानदार अंदाज में की। शपथ ग्रहण समारोह में पड़ोसी देशों के नेताओं की उपस्थिति अपने आप में नायाब थी। नवाज शरीफ की उपस्थिति ने उन आशंकाओं पर पानी फेरने का काम किया जो एक दक्षिणपंथी पार्टी के सत्ता में आने से उपजी थीं।  संसद की सीढ़ी पर माथा टिका जब मोदी के आंसू छलके तब नामालूम कितनों की आंखें भर आई होंगी। फिर जब देश का सबसे ताकतवर इंसान सड़क साफ करने झाडू लेकर निकला तब वाह-वाह से देश गूंज उठा। लोगों की छाती तब गर्व से छप्पन इंच की हो उठी थी जब उन्होंने देखा कि कैसे एक चाय वाले का बेटा शक्तिमान अमेरिका के सबसे ताकतवर नेता को बराक कह संबोधित करता है। पर यह सब हनीमून पीरियड की बातें हैं। फिर शुरू हुआ वायदों का ऐसा दौर जिसने कुछ समय और आमजन की आस को बनाए रखा। गरीब-गुरबा को बैंकिंग सिस्टम से जोडऩे की एक अच्छी पहल पीएम साहब ने की। इस वायदे के साथ कि ऐसे खाताधारकों को बगैर किसी गारंटी इत्यादि के पांच हजार तक की रकम तत्काल बैंक जरूरत पडऩे पर देगा। तकनीक के दीवानों को फोर जी के जरिए नई क्रांति की उम्मीद बंधी तो पीडीपी के संग कश्मीर में भाजपा को लेकर सरकार बनाना भी सराहा गया। यह सब भाजपा के लिए फील गुड था जो ज्यादा समय तक चला नहीं।
प्रधानमंत्री को देश की सत्ता संभालते हुए 19 महीने बीत चुके हैं। देश में बदलाव की बयार बहाने के लिए यह कोई लंबा वक्त तो नहीं, लेकिन इतना कम भी नहीं, जो बदलाव का अहसास भी न करा सके। इस अवधि में कुछ हुआ हो या न हुआ हो, पर इतना तो जरूर हुआ कि देश का माहौल बिगड़ा है। इस माहौल का विरोध करने के लिए पुरस्कार वापसी की होड़ सी लग गई तो वक्त की आहट सुनने-समझने की बजाय उनके मंत्री जब-तब भड़काऊ बयान देने में मशगूल पाए जाते हैं। प्रधानमंत्री इन बयानों पर सख्ती बरतने की बजाय चुप्पी ओढ़े रहते हैं तो फिर लगता है कि उनकी प्राथमिकताएं अब बदल चुकी हैं।
पहले दिल्ली, फिर बिहार और अब गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र। इनके चुनाव परिणाम एक संदेश दे रहे हैं। अगर यह संदेश सत्ता पक्ष या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं पढ़ पाते तो विपरीत बुद्धि चरितार्थ कर रहे हैं। आज 19 महीने के मोदी शासन के बाद अगर किसी कक्षा सात के बच्चे से भी 2014 के आम चुनाव के परिणाम, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता के पीछे जनता की अपेक्षाएं और जबरदस्त मतदान (2009 के 18.6 प्रतिशत से बढ़कर 31.3 प्रतिशत) से हासिल पूर्ण बहुमत की पूरी स्थिति बताते हुए यह पूछा जाये कि देश की सरकार और खासकर प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए तो वह अनायास ही कह उठेगा उन अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए। और ये मूल अपेक्षाएं क्या थीं? देश में नई औद्योगिक इकाइयां लगे ताकि युवाओं को रोजगार मिले, किसान आर्थिक तंगी झेलने में असफल होकर पास वाले आम के पेड़ से न लटके यानी कृषि का विकास, भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश , देश में शांति का माहौल और राज्य की शक्तियों और अभिकरणों के सामथ्र्य का आतंकवाद पर दहशत और इन्हें पूरा करने के सभी कारक मौजूद भी थे। पहली जन-स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी। नेहरु को जो जन-स्वीकार्यता मिली थी, वह आजादी के जश्न में झूमती जनता के दुलारे (डार्लिंग ऑफ इंडियन मासेज) के रूप में थी उनसे कोई अपेक्षा नहीं थी। दूसरी इंदिरा को मिली लेकिन वह दिक्-काल सापेक्ष थी। कांग्रेस को आजादी के उपहार के तौर पर दो दशक तक औसतन 38 प्रतिशत वोट मिलता रहा। अशिक्षा और गरीबी के कारण देश की सामूहिक चेतना भी उस स्तर की नहीं थी कि जनता अपने कल्याण को समझे और उसे गवर्नेंस से सीधे जोड़ सके। लेकिन नरेन्द्र मोदी की यह जन-स्वीकार्यता सबसे अलग थी। यह सशर्त थी। और मोदी ने उन्हें पूरा करने के वायदे पर अपनी राष्ट्रीय छवि बनाई।
देश की जनता ने बड़ी आशा के साथ नरेंद्र मोदी को चुना था। लोगों को लगा था कि उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से मुक्ति मिलने के बाद राहत मिलेगी। भ्रष्टाचार कम होगा, महंगाई पर लगाम लगेगी और बेरोजगारी की समस्या का हल निकलेगा। नरेंद्र मोदी भी अपने चुनावी भाषण में यह कहते थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं, लेकिन अच्छे दिन आए क्या? देश के 80 फीसदी लोग गरीब है। जिंदगी जीने के लिए रोज उन्हें जिंदगी से लडऩा पड़ता है। उनकी तकलीफों की सूची बहुत लंबी है, लेकिन सरकार से उनकी अपेक्षाएं बहुत कम हैं। इसके ठीक विपरीत देश के 20 फीसदी समृद्ध वर्ग की तकलीफें कम हैं, लेकिन उसकी अपेक्षाओं की सूची बहुत लंबी है। हर सरकार को यह तय करना होता है कि उसकी प्राथमिकता क्या है। दुर्भाग्य से जबसे देश में नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था लागू की गई, तबसे जितनी भी सरकारें आईं, उनकी प्राथमिकता में वे 80 फीसदी लोग नहीं रहे, जो गरीब हैं। अच्छे दिनों का सही मतलब तो यही था कि मोदी सरकार की प्राथमिकता बदलेगी, लेकिन नई सरकार ने भी वही काम किया, जो 1991 से होता आ रहा है। समस्या यह है कि गरीब तो परेशान हैं ही, उद्योगपतियों को भी अब लगने लगा है कि सरकार की दिशा-दशा ठीक नहीं है। मतलब यह कि मोदी सरकार न तो उद्योग जगत को खुश कर पा रही है और न उन 80 फीसदी लोगों को राहत दे पा रही है, जिन्हें मदद की वाकई जरूरत है। हकीकत यह है कि पिछले 19 महीनों में हर वर्ग निराश हुआ है। किसान परेशान हैं, मजदूर आंदोलित हैं, युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है और महंगाई आसमान छू रही है। ऐसे में आर्थिक क्षेत्र में सरकार के सफल होने के सारे संकेत धुंधले होते दिख रहे हैं।
नीति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढिय़ा ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि भारत की विकास दर इस  साल आठ फीसदी पर पहुंचने वाली है। कुछ महीने पहले देश के विभिन्न अखबारों ने यह खबर दी थी कि भारत की विकास दर चीन से आगे बढ़ जाएगी और वह 7.5 फीसदी होने वाली है। अब जबकि नतीजे आने लगे हैं, तो पता चला कि यह महज एक भ्रामक प्रचार था। वर्ष 2015-16 की पहली तिमाही में विकास दर 7.5 फीसदी से कम यानी सिर्फ 7.0 फीसद हो पाई। अब पता नहीं कि सरकार आंकड़ों का कौन-सा खेल खेलकर वार्षिक विकास दर 7.5 या 8.0 फीसद पर पहुंचाएगी।

महंगाई के नाम पर आंकड़ेबाजी
महंगाई के नाम पर जो आंकड़ेबाजी होती है, वह खासी मजेदार है। हर शख्स कहता है कि सब्जियां महंगी हो गई हैं, दालें महंगी हो गई हैं, तेल महंगा हो गया है। लेकिन, सरकार कहती है कि महंगाई नियंत्रण में है। सरकार के मुताबिक, कंज्यूमर प्राइज इनडेक्स और होलसेल प्राइस इंडेक्स में कमी आई है और कमोडिटी इंडेक्स प्राइस जुलाई में 3.69 फीसदी और अक्टूबर में 5.0 फीसदी ही रहा। अक्टूबर में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 5.25 फीसदी  रही। यह अजीब इत्तेफाक है कि मोदी सरकार के 19 महीनों के कार्यकाल में पिछले 11 महीनों से निर्यात में लगातार गिरावट देखी जा रही है। अक्टूबर 2015 में निर्यात में 17.5 फीसदी की गिरावट देखी गई। विश्लेषकों का मानना है कि इस साल जिस तरह निर्यात बाधित हुआ, वह 2008-09 के दौर से भी खराब है।
अब मंद पड़ रही है करिश्माई छवि
गरीबों का पेट भाषणों से नहीं भरा जा सकता। आम जनता की अपेक्षाएं आंकड़ों की बाजीगरी से पूरी नहीं हो सकतीं। हवा-हवाई बातों से युवाओं को रा़ेजगार नहीं मिलता। सिर्फ लोकप्रिय नारे उछालने से सामाजिक बदलाव नहीं आता। जब कल-कारखानों की हालत खराब होने लगे, किसान आत्महत्या करने लगें, मजदूर हड़ताल करने के लिए मजबूर हो जाएं, रोजगार मिलना बंद हो जाए और महंगाई की मार लोगों की कमर तोडऩे लगे, तो समझना चाहिए कि देश में बुरे दिन आने वाले हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के 19 महीने यानी डेढ़ साल बीत चुके हैं, लेकिन सरकार अभी तक सिर्फ बयानबाजी में व्यस्त है। जमीन पर किसी भी तरह का कोई बदलाव नजर नहीं आता। हर सरकार पांच साल के लिए चुनी जाती है, लेकिन पहले ही साल में सरकार के लक्ष्यों और दिशा का पता चल जाता है। क्या मोदी सरकार मूलभूत परिवर्तन लाने में सफल होगी? क्या वादों के मुताबिक विकास संभव है? इस बात को समझने के लिए 19 महीनों के बाद आज मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और आर्थिक क्षेत्र में उसकी उपलब्धियों का आकलन बहुत जरूरी है।

-राजेंद्र आगाल

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