01-Dec-2015 10:55 AM
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बिहार चुनाव से पहले मुलाकातों का दौर खूब चला। हर मुलाकात का मकसद किसी न किसी तरह की मोर्चेबंदी ही रही। राजनीति में परिवार को स्थापित करना आसान है। मगर स्थापित राजनेताओं का परिवार बनाना मुश्किल ही नहीं

नामुमकिन है। मुलायम सिंह से बेहतर इसे शायद ही कोई जानता हो। इसका थोड़ा स्वाद अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने भी चखा है। लगता है हरेक को उसका स्वाद मथुरा के पेड़े जैसा ही लगा होगा। राजनीति का जायका कुछ ऐसा होता है कि उसका असर चेहरे पर कम और एक्शन में ज्यादा दिखता है।
बिहार चुनाव से पहले मुलाकातों का दौर खूब चला। हर मुलाकात का मकसद किसी न किसी तरह की मोर्चेबंदी ही रही। उन दिनों बाहर से जो भी नेता दिल्ली आता केजरीवाल से मिलने का एक कार्यक्रम जरूर बनता। जब नीतीश दिल्ली आए तो केजरीवाल से मिलने खुद सचिवालय पहुंचे। केजरीवाल भी उन्हें लेने और छोडऩे बाहर तक आए। ऐसी ही मुलाकात ममता बनर्जी के साथ भी रही। बल्कि, ममता के साथ मुलाकात थोड़ी बढ़कर ही रही।
केजरीवाल भी काफी दिनों से को-आपरेटिव फेडरलिज्म के नाम पर लोगों को इक_ा करने की कोशिश में थे। अगस्त में ममता ने एक मुलाकात का कार्यक्रम रख दिया। ये मुलाकात शरद पवार के घर पर तय हुई। केजरीवाल पहले तो राजी नहीं हुए, लेकिन ममता के जोर देने पर हामी भर दी। उधर, पवार ने भी कांग्रेस को उससे दूर रखने को कहा था, इसलिए वैसा ही हुआ। जो नेता पहुंचे उन्होंने नीतीश को समर्थन देने का एक अनौपचारिक प्रस्ताव पारित किया। केजरीवाल उस मीटिंग में नहीं पहुंचे। जो वजह मानी गई वो वेन्यू ही रहा। भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर शरद पवार के प्रति हमलावर रहे केजरीवाल ने खुद को उस मीटिंग से दूर रखा - और उस गली में भी कदम रखना मुनासिब नहीं समझा। इस तराजू पर केजरीवाल बिहार महागठबंधन के नेता लालू प्रसाद को भी बराबर ही बताते रहे हैं।
दिल्ली में मोर्चे बंदी
ममता की तरह ही मुख्यमंत्रियों की एक मीटिंग केजरीवाल ने भी बुलाई थी। ये गैर-कांग्रेसी और गैर-बीजेपी मोर्चेबंदी की एक कोशिश रही। इस मीटिंग में शामिल नहीं होने वालों अहम शख्सियत रहे अखिलेश यादव। केजरीवाल की मनपसंद मोर्चेबंदी में कई पेंच हैं। केजरीवाल को शरद पवार से परहेज है। लालू से गले मिलने को गले पडऩा बता चुके हैं। अखिलेश को केजरीवाल से ही परहेज है। पवार नीतीश के साथ हैं। नीतीश लालू के साथ हैं। ममता नीतीश और पवार दोनों के साथ हैं। मंच पर लालू के साथ फोटो देखकर ममता को लालू से परहेज जैसी कोई बात नहीं नजर आती - और न ही उन्होंने केजरीवाल जैसी कोई सफाई दी है।
केजरीवाल के बयान में दो बातें साफ तौर पर सामने आई हैं। एक, वो किसी गठबंधन में शामिल नहीं हैं। दूसरा, वो किसी रेस में नहीं हैं। लगता है केजरीवाल के को-आपरेटिव फेडरलिज्म का यही डिप्लोमैटिक फंडा है - और शायद इसीलिए गले मिलने और गले पडऩे में फर्क समझ से परे हो जाता है।
वो जादू की झप्पी नहीं जी...
केजरीवाल के लालू प्रसाद से गले मिलने को लेकर विवाद हुआ तो उन्होंने बाकायदा इस बात पर सफाई दी। केजरीवाल ने पूरे वाकये के बारे में बताया, शपथ समारोह में लालू जी मिले को उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और खींच कर गले लगा लिया, फिर जनता की ओर रुख करके हाथ ऊपर उठा दिया। मुझे प्रोजेक्ट किया जा रहा है, जो कि बिल्कुल गलत है। लेकिन उनके गुरु अन्ना हजारे को भी ये बात गले नहीं उतरती। इस बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में अन्ना कहते हैं, अच्छा हुआ केजरीवाल साथ नहीं... वरना मुझे भी दाग लग जाता। केजरीवाल ने इस एपिसोड पर विस्तार से अपना पक्ष भी रखा है, हमने कोई गठबंधन नहीं बनाया है। हम उनके भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड के खिलाफ हैं और हम हमेशा इसका विरोध करेंगे।।। उनके दो बेटे मिनिस्टर हैं, हम उसके भी खिलाफ हैं।
नहीं... अब और नहीं
2014 में केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को बनारस में चैलेंज किया था। उस बुरी शिकस्त को केजरीवाल ने दिल्ली में ऐतिहासिक जीत से बराबर किया। फिर आम आदमी पार्टी नई बहस शुरू हुई। सिर्फ दिल्ली में या दिल्ली से बाहर भी। दिल्ली वाले रह गए बाहर वाले खदेड़ दिए गए। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के निष्कासन के साथ ही ये बहस भी खत्म हो गई। आप की नेशनल काउंसिल में केजरीवाल ने कहा, हम यहां सत्ता की राजनीति के लिए नहीं हैं। लोग पूछते हैं कि क्या आप 2019 के चुनाव की रेस में हैं? हम किसी रेस में नहीं हैं। दिल्ली की जीत चमत्कारिक थी। हमे सिर्फ मेहनत और ईमानदारी के साथ काम करना है। केजरीवाल के इस बयान को उनके अगला आम चुनाव न लडऩे का संकेत माना जाने लगा है। हालांकि, अपने गोल मटोल जवाब में केजरीवाल ने आप के पंजाब चुनाव लडऩे की संभावना की न तो पुष्टि की है, न पूरी तरह खारिज किया है।
-दिल्ली से रेणु आगाल