एनसीटीसी पर विवाद फिर बढ़ा
02-Mar-2013 09:39 AM 1234924

हाल ही में केंद्रीय रक्षा मंत्री सुशील शिंदे ने जब यह कहा कि राष्ट्रीय आतंक विरोधी केंद्र यानी एनसीटीसी की स्थापना को लेकर ममता बनर्जी ने हामी भर दी है तो एक बार फिर यह मुद्दा केंद्र में आ गया। एनसीटीसी के गठन को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच तनातनी चल रही है। गैर कांग्रेसी सरकारें इसका विरोध कर रही हैं। वहीं कांग्रेस शासित कुछ राज्य भी इससे सहमत नहीं हैं लेकिन यह उन लोगों की मजबूरी है कि उन्हें केंद्र के आदेश को मानना ही होगा। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि एनसीटीसी देश के संवैधानिक ढांच को नुकसान पहुंचाते हुए संघीय प्रणाली पर चोट करेगा। राज्य सरकारों को इस कानून के कारण बड़ी भारी परेशानी का सामना भी करना पड़ सकता है। इससे उनके संवैधानिक अधिकारों का भी हनन होगा। देखना है कि केंद्र इस पर सहमति बना पाता है अथवा नहीं।
कारगिल में हुए संघर्ष में इंटेलिजेंस की नाकामी के बाद केंद्र सरकार ने एक मंत्रिसमूह का गठन किया था, जिसने तय किया कि एक ऐसे संगठन की स्थापना की जानी चाहिए जो आंतरिक और वाह्य सुरक्षा के मामलों की पूरी तरह से जिम्मेदारी ले सके। मंत्रियों के समूह ने कहा था कि एक स्थायी संयुक्त टास्क फोर्स बनाई जानी चाहिए, जिसके पास एक ऐसा संगठन भी हो जो अंतरराज्यीय इंटेलिजेंस इक_ा करने का काम भी करे। इसका काम राज्यों से स्वतंत्र रखने का प्रस्ताव था। मुंबई में 26 नवंबर 2008 में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस संगठन की जरूरत बहुत ही शिद्दत से महसूस की गई और 31 दिसंबर 2008 के दिन केंद्र सरकार ने एक पत्र जारी करके इस मल्टी एजेंसी सेंटर के काम के बारे में विधिवत आदेश जारी कर दिया था। देश की आंतरिक सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए इस तरह के संगठन की जरूरत चारों तरफ से महसूस की जा रही थी। वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारें इसके बारे में विचार करती रही थीं।
केंद्र सरकार से गलती तभी हो गई जब एनसीटीसी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रख दिया गया। इसका मुखिया इंटेलिजेंस ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक रैंक का एक अधिकारी बनाना तय किया गया था। एनसीटीसी के गठन का नोटिफिकेशन जारी किया गया था। उसके बाद से ही विरोध शुरू हो गया। सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुलानी पड़ी। बैठक के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एनसीटीसी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी। लगता है कि एनसीटीसी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पड़ेगा। लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि आतंकवाद से लडऩा बहुत जरूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उसके बारे में कुछ किया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनसीटीसी के गठन का ही विरोध किया था। मुख्यमंत्रियों के दबाव के बाद केंद्र सरकार को एनसीटीसी के स्वरूप में कुछ परिवर्तन करने पड़े। वह उसके नियंत्रण की व्यवस्था में कुछ ढील देने को तैयार है। आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का कोई मतलब नहीं है। आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है। समुद्र, आसमान, जमीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है, लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है। उसको रोकना किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। जाहिर है कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था से आतंकवाद को कंट्रोल करना नामुमकिन होगा, अब तक ज्यादातर मामलों में वारदात के बाद ही कार्रवाई होती रही है, लेकिन यह सच्चाई कि अगर अपनी पुलिस को वारदात के पहले इंटेलिजेंस की सही जानकारी मिल जाए, पुलिस के पास सही नेतृत्व हो और राजनीतिक सपोर्ट हो तो आतंकवाद पर हर हाल में काबू पाया जा सकता है। सीधी पुलिस कार्रवाई में कई बार एक्शन में सफलता के बाद पुलिस को पापड़ बेलने पड़ते हैं और मानवाधिकार आयोग वगैरह के चक्कर लगाने पड़ते हैं। पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में सीधी पुलिस कार्रवाई का बड़ा योगदान है, लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि राजनीतिक कारणों से उस दौर के आतंकवादी लोग हीरो के रूप में सम्मानित किए जा रहे हैं, जबकि पुलिस वाले मानवाधिकार आयोग के चक्कर काट रहे हैं। कारगिल की घुसपैठ और संसद पर आतंकवादी हमले के बाद यह तय है कि सामान्य पुलिस की व्यवस्था के रास्ते आतंकवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता। अगर राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आइबी की दखलंदाजी नहीं मंज़ूर है तो सरकार को कोई और तरीका निकालना ही पड़ेगा, लेकिन यह जरूर है कि एक विशेषज्ञ पुलिस फोर्स के बिना आधुनिकतम तकनीक और हथियारों से लैस आतंकवादियों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता।

संप्रग सरकार का रवैया ढुलमुल : अरुण जेटली
हालिया इतिहास के कुछ दिलचस्प अध्यायों से पता चलता है कि आतंक पर संप्रग सरकार का रवैया नरम रहा है। जब राजग सरकार ने प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट लागू करना चाहा तो कांग्रेस ने यह कहकर इसका विरोध किया कि यह आतंकवाद के बजाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ है। आतंकवादियों की जांच और उन्हें दंडित करने के लिए पोटा एक प्रभावी औजार था। संप्रग के चुनावी घोषणापत्र में पोटा को रद करने का वादा किया गया था। भाजपा के साथ-साथ भारत का सुरक्षा प्रतिष्ठान भी पोटा के निरस्तीकरण से असहज महसूस कर रहा था। इस कारण संप्रग गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम में बदलाव करने को मजबूर हुआ। इसमें पोटा के दो प्रावधानों को छोड़कर अन्य सभी प्रावधान शामिल किए गए। जिन दो प्रावधानों को इसमें शामिल नहीं किया गया वे जमानत और अपराध के कुबूलनामे से संबंधित हैं। जब पी चिदंबरम ने गृह मंत्रालय का कार्यभार संभाला तो माओवादी हिंसा को लेकर उनके शुरुआती बयान उत्साह बढ़ाने वाले थे, किंतु जब कांग्रेस के मुखपत्र में संप्रग अध्यक्ष का एक लेख छपा तो उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। उन्होंने रास्ता बदल लिया। इसके बाद उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि माओवाद से लड़ाई राज्यों की जिम्मेदारी है और केंद्र राज्यों की खुफिया क्षमता बढ़ाने और सुरक्षा बल उपलब्ध कराने तक ही सीमित है।

ऋतेंद्र माथुर

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