04-Feb-2015 03:41 PM
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देश के जंगलों में बाघों की संख्या बढ़कर 2226 हो गई है। 2010 के मुकाबले यह वृद्धि 30 प्रतिशत है। उस समय 1706 बाघ भारत के जंगलों में विचरण करते थे। वर्ष 2006 में इनकी संख्या 1411 तक घट गई थी। इसके बाद संरक्षण के उपाय करने से अब 2226 के करीब बाघ जंगलों में विचरण कर रहे हैं। यदि बाघों के बढऩे की रफ्तार प्रतिवर्ष 7.5 प्रतिशत मानी जाए तो आगामी 5 सालों में बाघों की संख्या 3 हजार को पार कर सकती है। यह निश्चित रूप से एक सुखद स्थिति होगी। भारत के जंगलों में सारी दुनिया के 70 प्रतिशत बाघ पाए जाते हैं, लेकिन इनमें वह संख्या शामिल नहीं है जो जंगल के बाहर चिडिय़ाघरों में या अन्य जगह बाघ रखे गए हैं।
बाघों की संख्या का सही पता लगाने के लिए देश के उन 18 राज्यों में 3 लाख 78 हजार 118 वर्ग किमी वन क्षेत्र का सर्वेक्षण किया गया, जिनमें 9 हजार 735 कैमरों की मदद से 80 प्रतिशत बाघों की दुर्लभ तस्वीरें ली गईं। हालांकि संख्या की दृष्टि से मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट का दर्जा अब नहीं मिलेगा, क्योंकि मध्यप्रदेश बाघों की संख्या के लिहाज से तीसरे नंबर पर सिमट गया है। यहां 308 बाघ हैं। पहले नंबर पर कर्नाटक है जहां 406 बाघ हैं और उसके बाद उत्तराखंड का नंबर है, जहां 340 बाघ पाए गए हैं। मध्यप्रदेश 2006 तक टाइगर स्टेट कहलाता था, लेकिन अब कर्नाटक को टाइगर स्टेट कहा जा रहा है। वैसे देखा जाए तो छोटे से राज्य उत्तराखंड ने बाघों की संख्या मेें अभूतपूर्व प्रगति हासिल की है। वर्ष 2010 की बाघ गणना में मध्यप्रदेश में 257 बाघ बच गए थे, जो अब बढ़कर 308 पहुंचे हैं। अन्य राज्यों के मुकाबले यह संख्या कम है। दरअसल बाघ की संख्या में कमी का सबसे बड़ा कारण चीन में बाघ के अंगों तथा मांस की मांग होना है। चीन ने जुलाई 2014 मेें सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि वह कैद में रखे गए बाघों की खाल के व्यापार की अनुमति देता है। कैद में रखे गए बाघ की संख्या चीन मेेंं 5 से 6 हजार के बीच बताई जा रही है। एक तरफ तो चीन में बाघ की हड्डियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन दूसरी तरफ वह कैद में रखे बाघों की खाल के व्यापार की अनुमति भी दे रहा है, ये विरोधाभास ही बाघों अवैध शिकार का सबसे बड़ा कारण है।
जो संगठन जानवरों के संरक्षण के लिए काम करते हैं, उनका कहना है कि खालों के व्यापार पर भी रोक लगना चाहिए। चीन के बाघ कैदगाह से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय कालाबाजार में कैसे पहुंच जाते हैं? यह भी एक बड़ा प्रश्न है। वर्ष 2000 में जंगली और कैद में रखे गए करीब 1600 बाघों का व्यापार किया गया था। बाघ जैसे प्राणी को उसके प्राकृतिक आवास में ही बढऩे देना चाहिए, लेकिन चीन में लाभ कमाने के लिए कैप्टिव ब्रीडिंग पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। यहां के लोग इसे बाघों की खेती कहते हैं। इस बाघों की खेती ने भारत जैसे देशों में अवैध शिकार और अवैध व्यापार को बढ़ावा दिया। इसी कारण बाघों की संख्या कम हो गई थी, अब यह संख्या फिर से बढ़ी है। भारत में बाघों की दुनिया सिमटती ही जा रही थी। इसका प्रमुख कारण है कि पिछले कुछेक सालों में मानव और बाघों के बीच शुरू हुआ संघर्ष। बढ़ती आवादी के साथ प्राकृतिक संपदा एवं जंगलों का दोहन और अनियोजित विकास वनराज को अपनी सल्तनत छोडऩे के लिए विवश होना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो या फिर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि प्रदेशों के जंगल हों उसमें से बाहर निकलने वाले बाध चारों तरफ अक्सर अपना आतंक फैलाते रहते हैं और वेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाघ और मानव के बीच संधर्ष क्यों बढ़ रहा है? और बाघ जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों विवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जव भारत की घरा से बाघ विलुप्त हो जाएगें।
उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र के साथ किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। इसी प्रकार दुधवा नेशनल पार्क तथा कतरनिया वन्यजीव प्रभाग का वनक्षेत्र भारत-नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय खुली सीमा से सटा है साथ ही आसपास जंगल के किनारे तमाम गांव आबाद हैं। जिससे सीमा पर नेपाली नागरिकों के साथ ही भारतीय क्षेत्र में मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही पड़ता है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन जाते हैं। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ ने एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया था, बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई मवेशियों का शिकार भी किया। इस पर काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरे में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। सन् 2010 पीलीभीत के जंगल से निकले बाघ द्वारा खीरी, शाहजहांपुर में द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे गए थे। वन विभाग ने प्रयास करके बाघ को पिंजरे में कैद करके लखनउ प्राणि उद्यान में भेज दिया था। उत्तर प्रदेश में ही नहीं वरन उत्तरांचल में भी बाघ जंगल से बाहर भाग रहे हैं। 2011 के माह जनवरी व फरवरी के एक पखवारे के भीतर उत्तरांचल के जिम कार्वेट पार्क के ग्रामीण सीमाई क्षेत्रों में दो बाघों को मानवभक्षी घोषित करके गोली मारी जा चुकी थी। दुधवा टाइगर रिजर्व से सटे किशनपुर वंयजीव विहार एवं साउथ खीरी फारेस्ट डिवीजन के जंगल के किनारे शिकारियों ने दो तेंदुओं को फांसी पर लटकाकर मौत के घाट उतार दिया था। दुधवा पार्क के जंगलों के साथ ही उससे सटे जिला बहराइच, पीलीभीत, गोंडा के जंगलों में बाघों का शिकार एवं उसके अंगों का अंतर्राष्ट्ीय स्तर पर अवैध कारोबार करने वाले गैंग की कुख्यात महिला सरगना दलीपो को मार्च 2011 में खीरी की निचली अदालत ने पांच साल की सश्रम कठोर कारावास एवं दस हजार रुपए के दंड की सजा सुनाई थी।
विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढऩे पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे।
जब तक भरपूर मात्रा में जंगल थे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारियों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए इससे जंगल में चारा की कमी हो गई है। परिणाम स्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आने को विवश हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे-पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा जंगल के भीतर अनुपयोगी हो रहे चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।