प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि: मकर संक्रान्ति
02-Jan-2015 02:33 PM 1235150

मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार का सम्बन्ध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है। ये तीनों चीजें ही जीवन का आधार हैं। प्रकृति के कारक के तौर पर इस पर्व में सूर्य देव को पूजा जाता है, मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात होती है। मकर संक्रांति से देवताओं का दिन आरंभ होता है जो कि आषाढ़ मास तक रहता है।

वैदिक काल में उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता था। मकर संक्रान्ति के दिन यज्ञ में दिये हव्य को ग्रहण करने के लिए देवता धरती पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएँ शरीर छोड़कर स्वर्ग आदि लोकों में प्रवेश करती हैं।
इस दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि को मिलने उसके घर जाते हैं सूर्य के घर आने पर शनि, सूर्य का सम्मान करता है। शनि ने तपस्या करके अपने को महान बनाया। भगवान सूर्य अपने पुत्र की महानता को देखकर उन्हें आशीर्वाद देने के लिए उनके घर जाते हैं। इस दिन गंगा नदी में स्नान व सूर्योपासना के बाद ब्राह्मणों को गुड़, चावल और तिल का दान भी अति श्रेष्ठ माना गया है। श्री तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है कि

माघ मकर रबिगत जब होई। तीरथपति आवहिं सब कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेंणी।  सादर मज्जहिं सकल त्रिवेंणी।।

यानी सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर सभी देवता तीर्थराज प्रयाग आकर पूरे माघ माह में निवास करते हैं। प्रयाग एक ऐसा धर्म स्थल है जहां मानव नहीं देवता भी संपूर्ण माघ महीने में निवास करते हैं। प्रयाग के तट पर माघ मास में कल्पवास का विशेष महत्व है। वैसे, प्रयाग का महात्म वेद, पुराण और उपनिषद में कहा गया है। मकर संक्रांति वह समय है, जब सूर्य उत्तरायण हो जाते है और इसी समय से शुरू हो जाता है मकर संक्रांति पर्व। प्रयाग के संगम पर मकर संक्रांति और माघ में कल्पवास की परंपरा प्राचीन काल से है। इसका उल्लेख वेद एवं शास्त्रों में मिलता है। कल्पवास ऐसी साधना है, जिसके माध्यम से तीर्थराज प्रयाग में कल्पवासी महीने भर के लिए अपने सांसारिक सुख-दुख, मोह और चिंताओं को छोड़कर सिर्फ परलोक के बारे में सोचते हैं। वह संयम से धर्म का निर्वाह करता है।
मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।  सूर्य संस्कृति में मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। विष्णुधर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शांति के लिए एवं स्व स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण के लिए तिल के छ: प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं -  तिल जल से स्नान करना, तिल दान करना, तिल से बना भोजन, जल में तिल अर्पण, तिल से आहुति, तिल का उबटन लगाना। संक्रांति के पर्व काल में दांत मांजना, कठोर बोलना, वृक्ष व घास काटना तथा काम विषय सेवन जैसे कृत्य नहीं करना चाहिए। उत्तरायण काल में ही गृह प्रवेश, देव प्रतिष्ठा, विवाह, मुण्डन, व्रतबंध दीक्षादि शुभ कार्य करने का विशेष महत्व है।

पद्म पुराण के अनुसार संक्रांति के दिन दिए जाने वाले दान का फल

  • इस समय ब्राह्मणों को अनाज, वस्त्र, ऊनी कपड़े, फल, मूल, आसन आदि दान करें। इस दिन रुई के वस्त्र दान करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
  • इस दिन जो उत्तम ब्राह्मण को अनाज, वस्त्र आदि दान करता है, उन्हें लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती।
  • ब्राह्मण को जूता, खड़ाऊं, वस्त्र दान करने पर मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
  • सभी दानों में अन्न दान महान कहा गया है। क्योंकि अन्न दान करने वाला प्राण दान करता है। अत: अन्न दान से ही सब दानों का फल मिल जाता है।
  • रोगी को औषधि, तेल, आहार दान करना रोगहीन, दीर्घायु एवं सुखी बनाता है।
  • अंजु आनंद
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