करीब एक पखवाड़े के बगावती खेल के बाद महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन की सरकार गिर गई। वहीं एकनाथ शिंदे ने भाजपा के सहयोग से नई सरकार बना ली है। ऐसे में देशभर में यह सवाल उठने लगा है कि विपक्ष का एक और किला ध्वस्त होने के पीछे भाजपा का ऑपरेशन लोटस या शिवसैनिकों की बगावत कारण बना है। वजह कोई भी हो, लेकिन यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा चिंता का विषय है। देश में पिछले कुछ सालों से लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को गिराने का जो खेल चल रहा है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
महाराष्ट्र में 2004 में चुनाव के दौरान तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से पूछा गया था कि क्या वे गठबंधन की जीत के बाद उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना चाहेंगे, तो उन्होंने नकारते हुए कहा था कि सीएम कोई भी बने रिमोट मेरे हाथ में ही रहेगा। महाराष्ट्र में ऐसा होता भी रहा और देखा भी गया, लेकिन 2019 में बहुमत नहीं होने के बाद भी उद्धव ठाकरे जिस तरह बाला साहेब ठाकरे की परिपार्टी को दरकिनार करते हुए मुख्यमंत्री बने, उसी समय लग गया था कि शिवसेना और मातोश्री की अहमियत कम होगी और अंतत: ऐसा ही हुआ। अब मातोश्री के हाथों से शिवसेना के साथ ही सरकार का रिमोट भी दूर चला गया है। उधर, सियासी ड्रामे के 11वें दिन एकनाथ शिंदे ने राज्य के 20वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। वहीं देवेंद्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की। इसके साथ ही गठबंधन के जरिए ही सही राज्य में ढाई साल बाद भाजपा ने फिर सत्ता में वापसी कर ली है।
महाराष्ट्र में भाजपा ने सत्ता में वापसी का जो तरीका अपनाया गया, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। दरअसल, भाजपा ने 8 साल में 5 राज्यों में सेंधमारी कर सत्ता हासिल की है। जिसे ऑपरेशन लोटस नाम दिया गया है। हालांकि भाजपा हमेशा इनकार करती है कि उसने किसी भी पार्टी में सेंधमारी नहीं की है। लेकिन पार्टी में बगावत के बाद अगली सरकार भाजपा के नेतृत्व में ही बनी है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि महाराष्ट्र में जो नई सरकार गठित की गई है, वह ऑपरेशन लोटस है या फिर बगावत। वजह कुछ भी हो, लेकिन एक बात तो साफ है कि भाजपा ने 23वें राज्य में अपनी सत्ता कायम कर ली है। गौरतलब है कि 2014 में भाजपा ने कांग्र्रेस मुक्त भारत बनाने का संकल्प लिया था। इस संकल्प को पूरा करने के लिए पार्टी साम, दाम, दंड, भेद सबका सहारा लेती रही है। आज इसी का परिणाम है कि देश के करीब 59 फीसदी आबादी वाले 18 राज्यों में भाजपा सत्ता में है। महाराष्ट्र में देश की 9 फीसदी से ज्यादा आबादी रहती है। वहीं, कांग्रेस की सरकार अब 4 राज्यों तक ही सिमटकर रह गई है। इन 4 राज्यों में देश की करीब 16 फीसदी आबादी रहती है। भाजपा जिस तरह की राजनीति इस समय कर रही है उसका एकमात्र लक्ष्य है कि वह देश में पूरी तरह विपक्ष को कमजोर कर दे।
जनाधार बढ़ाने नई नीति
भाजपा के ऑपरेशन लोटस को भले ही लोकतंत्र के लिए खतरा माना जा रहा है, लेकिन कांग्रेस सहित विपक्ष के असंतुष्ट नेताओं के लिए यह संजीवनी बना हुआ है। इसकी वजह यह है कि भाजपा ने पिछले कुछ सालों से जनाधार बढ़ाने के लिए जो नई नीति बनाई है, उसके तहत विपक्ष से आए नेताओं को मुख्यमंत्री सहित कई अहम पदों पर बैठाया जा रहा है। वर्तमान में देश के जिन 18 राज्यों में भाजपा की सरकार है, वहीं 5 ऐसे राज्य हैं, जहां भाजपा किसी अन्य दल के साथ सरकार में शामिल है। ऐसे में कुल मिलाकर 23 राज्यों की सत्ता में भाजपा शामिल है। अपनी नई रणनीति के तहत भाजपा ने दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को मुख्यमंत्री भी बनाया है। इनमें त्रिपुरा में कांग्रेस से आए डॉ. माणिक साहा, नगालैंड में नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोगेसिव पार्टी से आए नेफियू रियो, असम में कांग्रेस से आए हिमंत बिस्वा सरमा, मणिपुर में कांग्रेस से आए एन बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया है। वहीं महाराष्ट्र में सियासी कयासों को धता बताते हुए भाजपा के नेता देवेंद्र फडणवीस ने राज्यपाल से मुलाकात के बाद शिवसेना के बागी गुट के नेता एकनाथ शिंदे को अपने विधायकों का समर्थन देने का ऐलान कर दिया। हर तरफ की बाजी पलट गई। भाजपा के भी कुछ लोगों को इसकी भनक नहीं थी। हर कोई यह मानकर चल रहा था कि देवेंद्र फडणवीस राज्य के अगले मुख्यमंत्री होंगे, लेकिन सियासी दांव-पेंच इस करवट आकर बैठेगा, यह अप्रत्याशित था। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री और देवेंद्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है।
दोष उद्धव का भी
मप्र और कर्नाटक के बाद अब महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार को गिराया गया, इससे लोकतंत्र पर से लोगों का विश्वास उठने लगा है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ उन्हीं के शिवसैनिकों की बगावत और उनको भाजपा का सहयोग मिलना ऑपरेशन लोटस माना जा रहा है। भाजपा भले ही कुछ न कहे, लेकिन विपक्ष खुले तौर पर यह आरोप लगा रहा है कि मप्र, कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार गिराई गई, वह ऑपरेशन लोटस का ही परिणाम है। महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार पर छाए संकट के लिए एकनाथ शिंदे की महत्वाकांक्षा को जितना जिम्मेवार ठहराया जा रहा है, उससे कहीं ज्यादा दोष मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का है। खतरा तो उन्हें अपने सहयोगियों कांग्रेस और एनसीपी से होना चाहिए था। पर गठबंधन के उनके ये दोनों सहयोगी तो विपरीत विचारधारा के बावजूद पुख्ता तौर पर अभी तक उनके साथ खड़े हैं। शिंदे ने हिंदुत्व की विचारधारा की तो महज आड़ ली है। हकीकत तो यह है कि वे शिवसेना और सरकार में खुद को हाशिए पर पा रहे थे। मुंबई में किससे छिपा है कि सरकार उद्धव नहीं बल्कि उनकी पत्नी रश्मि ठाकरे और बेटे आदित्य ठाकरे चला रहे थे। बाकी रिमोट शरद पवार के हाथ में था।
बहरहाल भाजपा आज जो खेल महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ खेल रही है, 1995 में वही खेल कांग्रेस ने भाजपा के साथ खेला था। तब भाजपा की देश में इकलौती गुजरात में ही सरकार थी। मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल सितंबर 1995 में अमेरिकी दौरे पर थे। उनकी अनुपस्थिति में भाजपा के ही शंकर सिंह वाघेला पार्टी के 47 विधायकों को लेकर पड़ोसी मप्र के खजुराहो पहुंच गए थे। सरकार संकट में दिखी तो भैरो सिंह शेखावत और अटल बिहारी वाजपेयी ने वाघेला को मनाया। पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा। सुरेश मेहता मुख्यमंत्री बने और तबके गुजरात प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात छोड़ना पड़ा था।
उद्धव प्रसंग ने फिर साबित किया है कि पिता से विरासत में पार्टी और हैसियत पाना अलग बात है पर उसे बनाए रखने का कौशल हर वारिस में नहीं होता। जैसे चौधरी चरण सिंह का जनाधार उनके पुत्र अजित सिंह के बजाय मुलायम सिंह यादव ने छीन लिया था। जैसे एमजीआर का जनाधार उनकी पत्नी जानकी रामचंद्रन नहीं संभाल पाई थी और जयललिता ने खुद को उनका उत्तराधिकारी साबित किया था। आंध्र में एनटीआर की पत्नी लक्ष्मी पार्वती के बजाय उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू सियासी वारिस बनकर उभरे थे। कमोबेश यह अखिलेश यादव के लिए भी नसीहत है। जो पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत संभालने में अभी तक निपुण नहीं हुए हैं।
पिक्चर अभी बाकी है
महाराष्ट्र सरकार के मंत्री और बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने सोचा था कि बाल ठाकरे की वैचारिक तथा राजनीतिक विरासत पर दावा करने के लिए शिवसेना कुल 55 में से 36 के आसपास विधायकों को तोड़ लेना काफी होगा। उन्होंने शायद सोचा था कि बगावत करने वाले दो तिहाई विधायकों को अलग गुट के रूप में मान्यता मिल जाएगी और वह भाजपा को सरकार बनाने में मदद कर सकेगा। शिंदे को संविधान की 10वीं अनुसूची को ध्यान से पढ़ना चाहिए था। दल से अलग हुए दो तिहाई विधायकों को अलग गुट की मान्यता नहीं मिल जाती। ये विधायक अगर दूसरे दल में शामिल नहीं होते तो उन्हें अयोग्य ठहराया जा सकता है। लेकिन बाल ठाकरे की वैचारिक तथा राजनीतिक विरासत के स्वयंभू झंडाबरदार भाजपा को इस विरासत पर कैसे कब्जा करने दे सकते हैं? आखिर, वे अपनी बगावत को हिंदुत्व की विचारधारा पर दावा करने का सच्चा आंदोलन बताते हैं, जिसे उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाकर कथित रूप से कमजोर कर दिया है। इसलिए, ये बागी अगर भाजपा में शामिल होते हैं तो वे अपना नैतिक दावा, शिवसेना वाली पहचान और शिवसैनिकों का समर्थन गंवा देंगे। सेना से अलग होते ही और भाजपा में शामिल होते ही मोलभाव करने की उनकी ताकत कमजोर हो जाएगी। इसलिए विलय वाले विकल्प को फिलहाल तो टालना ही होगा।
महाराष्ट्र के राजनीतिक हलकों में एक इस विकल्प की भी चर्चा हो रही है कि शिंदे समूह निर्दलीय विधायक ओमप्रकाश बाबाराव काडू की प्रहार जनशक्ति पक्ष (पीजेपी) में शामिल हो जाए। काडू एक मंत्री हैं, जो शिंदे के साथ गुवाहाटी में मौजूद हैं। इस विकल्प के साथ दिक्कत यह है कि काडू एक मनमौजी नेता हैं, जो हेमा मालिनी को 'बंपर पियक्कड़Ó कह चुके हैं और केंद्रीय मंत्री रावसाहब दानवे को उनके घर में घुसकर 'पिटाई करनेÓ की धमकी दे चुके हैं। जाहिर है, शिंदे और भाजपा काडू के साथ सहयोग करने पर दो बार सोचेंगे, क्योंकि काडू ही पीजेपी चीफ के रूप में केंद्र में रहेंगे। शिंदे के सामने तीसरा विकल्प यह है कि वे शिवसेना के चुनाव चिन्ह पर दावा करने के लिए चुनाव आयोग के दरवाजे पर दस्तक दें। लेकिन चुनाव अगर हमदर्द भी हो तो भी शिंदे को सेना के विधायकों, सांसदों, पार्षदों और पार्टी पदाधिकारियों के बहुमत का समर्थन साबित करना होगा। लेकिन यह बड़ा सवाल है। शिंदे और उनके समर्थक फिलहाल महाराष्ट्र लौटने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें शिवसैनिकों के कोप का सामना करना पड़ सकता है और खुद उनके खेमे के विधायक दलबदल करके उद्धव के साथ जा सकते हैं। यह दुविधा ही भाजपा नेताओं की चुप्पी का कारण लगती है।
पीढ़ी परिवर्तन के संकेत
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र विकास अघाड़ी गठबंधन अंतिम सांसें गिन रहा है। ठाकरे के सामने अब चुनौती पार्टी बचाने की है। इस राज्य का राजनीतिक घटनाक्रम सभी परिवारवादी पार्टियों के लिए सबक है। बेटे को आगे बढ़ाने के फेर में पार्टी जाती हुई दिख रही है। शिवसेना में बगावत महाराष्ट्र की राजनीति में बड़े बदलाव लेकर आई है। यह बदलाव पीढ़ी परिवर्तन का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। ठाकरे के साथ पवारों और चव्हाणों के दिन जा रहे हैं या कहिए कि गए ही समझिए। कहावत है सौ सुनार की, एक लोहार की। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे, शरद पवार, गांधी परिवार मिलकर पिछले ढाई साल से भाजपा पर हमलावर थे। उनके निशाने पर राज्य का भाजपा नेतृत्व कम और राष्ट्रीय नेतृत्व ज्यादा था। उन्हें गालियां दी जा रही थीं, उनके मरने की इच्छा जाहिर की जा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी चुपचाप सुन रहे थे। ये सारे धतकरम ही महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सरकार के गले का पत्थर बन गए। मोदी ने सीधे कुछ नहीं किया। घर में ही भारी झगड़ा हो गया।
आजकल भारतीय राजनीति के बारे में बात करते हुए महाभारत के उस प्रसंग की याद आती है, जिसका निहितार्थ है कि सत्ता के बंटवारे में बेईमानी और हठधर्मी कभी काम नहीं आती। दूसरी बात यह कि जो पांच गांव नहीं देते, उन्हें पूरा राजपाट देना पड़ता है। महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बड़ी पार्टी होने के नाते मुख्यमंत्री पद पर भाजपा का दावा स्वाभाविक था, लेकिन शिवसेना अचानक यह दावा करने लगी कि भाजपा ने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था। अब शिवसेना के विधायक ही कह रहे हैं कि यह झूठ था। महाराष्ट्र में जो हो रहा है, वह भले ही शिवसेना का अंदरूनी मामला हो, लेकिन इस घटनाक्रम ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार की बहुत बड़े रणनीतिकार की छवि को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। इस सरकार के मुखिया भले ही उद्धव ठाकरे थे, पर इसके जनक तो पवार ही थे। शिवसेना की बगावत में वह कुछ नहीं कर सकते थे, पर जिस सरकार को उन्होंने बनाया और जिसे वह बाहर से चला भी रहे थे, उसमें इतने बड़े संकट की उन्हें आहट भी नहीं लगी। एक जमाने में 6 विधायक लेकर अपना राज्यसभा उम्मीदवार जिता लेने वाले शरद पवार राज्य में राज्यसभा और विधानपरिषद चुनाव में युवा नेता देवेंद्र फडणवीस से मात खा गए।
परिवारवादियों के लिए सबक
महाराष्ट्र का घटनाचक्र उन सभी परिवारवादी पार्टियों के लिए यह सबक है कि जहां संगठन और सरकार के फैसले खाने की मेज या बेडरूम में होते हैं, वहां पतन और बिखराव ही होता है। आम कार्यकर्ता संगठन और विचारधारा से जुड़ा होता है। वह किसी नेता का बंधुआ मजदूर नहीं होता। जिस नेता को यह गलतफहमी हो जाए, उसका पराभव तय मानिए। महाराष्ट्र के संकट में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है, जबकि वह अघाड़ी सरकार में शामिल है। कांग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी दल है, लेकिन राष्ट्रपति के उम्मीदवार के चयन में उसकी कोई भूमिका नहीं। पूरी विपक्षी राजनीति में कहीं बिखराव, कहीं ठहराव, कहीं टकराव और कहीं पराजित भाव नजर आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष देश की राजनीति में फिनिशिंग लाइन तक पहुंचने की इच्छाशक्ति ही खो चुका है। आज सवाल सिर्फ इतना है कि वह फिनिशिंग लाइन से कितना पहले गिरेगा।
महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, वह केवल उद्धव ठाकरे के राजनीतिक पतन की कहानी नहीं बता रहा। यह राज्य के सबसे कद्दावर मराठा नेता शरद पवार के राजनीतिक नेपथ्य में जाने की मुनादी भी कर रहा है। यह देवेंद्र फडणवीस के राज्य के सबसे लोकप्रिय और कद्दावर नेता के रूप में उभरने की भी कहानी है। वह अब महाराष्ट्र में भाजपा के निर्विवाद रूप से सबसे बड़े नेता बन गए हैं। यह मानकर चला जाना चाहिए कि एकनाथ शिंदे के रूप में भाजपा को एक नए लोकप्रिय मराठा नेता का साथ मिलने वाला है। वह भाजपा में आएं या शिवसेना पर कब्जा करके साथ रहें, कम से कम हिंदुत्व की विचारधारा के मुद्दे पर शिंदे के मन में कोई दुविधा नहीं है। इन सब बातों और घटनाक्रम का निष्कर्ष क्या है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तात्कालिक राजनीतिक फायदे के नजरिये से कोई कदम नहीं उठाते। उनकी रणनीति हमेशा दीर्घकालिक होती है। उनकी राजनीति का मकसद यह नहीं है कि जब तक मैं रहूं, सब ठीक रहे, उसके बाद जो हो, वह आगे आने वाला जाने। वह भविष्य की भाजपा बना रहे हैं और इसका प्रबंध कर रहे हैं कि उनके बाद जो लोग आएं, उन्हें उनके जैसा परिश्रम न करना पड़े। नेतृत्व परिवर्तन में केवल पीढ़ी परिवर्तन पर ही ध्यान नहीं रहता। नेतृत्व की गुणवत्ता की जांच-परख भी की जाती है। महाराष्ट्र का मामला हो, राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार का प्रकरण हो, मंत्रिमंडल में चयन का मामला हो, सबसे बड़ा लिटमस टेस्ट होता है विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता। जो नए लोग लाए जाते हैं, उनमें भी इसका ध्यान रखने की कोशिश होती है। कुल मिलाकर भाजपा और विपक्ष में होड़ लगी है क्रमश: बेहतर होने और पतन की ओर जाने की।
बहुत कठिन है डगर आगे की
अलग-अलग दौर में शिवसेना छोड़कर राजनीतिक जमीन की तलाश में निकले नेताओं में सिर्फ दो ही नाम हैं जो ठीक-ठाक पोजीशन में हैं और उसकी एक वजह उनका एक खूंटे को पकड़कर बने रहना भी लगता है। राज ठाकरे ने अपनी नई पार्टी बनाई और नारायण राणे पाला बदलते रहे, लेकिन छगन भुजबल एक बार जो शरद पवार की शरण में गए तो अब तक बने हुए हैं। ठीक ऐसा ही हाल सुरेश प्रभु का है। मंत्री पद न सही, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के साथ बने हुए तो हैं ही। कभी शिवसेना के ओबीसी फेस रहे छगन भुजबल ने 1991 में 18 विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ी थी, लेकिन तब 12 वापस चले गए। फिर भी छगन भुजबल ने अपने वादे के साथ कांग्रेस ज्वाइन कर लिया और अपना योगदान देते रहे। बाद में करीब 8 साल बाद जब शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी बनाई तो छगन भुजबल भी साथ हो लिए। हाल ही में गिरी महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार में वो मंत्री थे।
हाल ही में राज ठाकरे को खासा एक्टिव देखा गया था। मस्जिदों से लाउडस्पीकर के खिलाफ मुहिम शुरू की थी और अल्टीमेटम दे दिया था। अल्टीमेटम की मियाद पूरी होने के बाद भी कहे थे कि महाराष्ट्र की मस्जिदों से सारे लाउडस्पीकर उतारे जाने तक उनकी मुहिम जारी रहेगी। उसी दौरान मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने को लेकर पुलिस ने अमरावती से सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था और फिर राज ठाकरे के खिलाफ भी वैसी ही कार्रवाई की आशंका जताई जाने लगी थी। फिर अचानक एक दिन रैली में राज ठाकरे ने अपनी अयोध्या यात्रा तक रद्द करने की घोषणा कर डाली। कह रहे थे वो किसी के जाल में नहीं फंसना चाहते। बताया कि उनके खिलाफ साजिशें रची जा रही हैं।
राज ठाकरे की अयोध्या यात्रा की घोषणा पर ही भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने वहां घुसने न देने का ऐलान कर दिया था। भाजपा सांसद का कहना रहा कि जब तक राज ठाकरे अपनी पुरानी हरकतों के लिए उत्तर भारतीय लोगों से माफी नहीं मांग लेते, उनको अयोध्या में नहीं घुसने देंगे। हालांकि, उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा तय हुई तो वैसा कुछ नहीं हुआ। 15 जून को उद्धव ठाकरे तो नहीं लेकिन आदित्य ठाकरे जरूर अयोध्या गए थे। शिवसेना छोड़ने के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाकर राज ठाकरे में तमाम कोशिशें की, लेकिन अब तक महाराष्ट्र में अपनी कोई अलग राजनीतिक जमीन खड़ा नहीं कर सके हैं। ये ठीक है कि राज ठाकरे के समर्थक काफी हैं और उनकी एक कॉल पर सड़कों पर उत्पात मचा सकते हैं, लेकिन चुनावी राजनीति में तो अब तक वो फेल ही रहे हैं। फिलहाल मनसे के पास एक विधायक है।
19 राज्यों में भाजपा सत्ता में
अभी 19 राज्यों में भाजपा सत्ता में है। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हैं। दोनों राज्यों में अभी भाजपा सत्ता में हैं। 2023 में 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मप्र, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना शामिल हैं। अभी कर्नाटक, त्रिपुरा, मप्र में भाजपा की सरकार है। इसके अलावा मेघालय, नगालैंड में भाजपा गठबंधन के साथ सरकार में है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस जबकि तेलंगाना में टीआरएस की सरकार है। 2024 में लोकसभा और 7 राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होंगे। इनमें सिक्किम, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड शामिल हैं। अभी हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम में भाजपा की सरकार है। ओडिशा में बीजद, आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी सरकार है। इन राज्यों में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती यह है कि जहां वह सरकार में है, उसे कायम रखना और जहां वह विपक्ष में है, वहां जीत हासिल करना।
बगावत को प्रोत्साहन
महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उससे बगावत को प्रोत्साहन मिलेगा। बिना सबूत के कोई आरोप लगाना मुश्किल है कि ये बगावतें मुख्यत: पैसे के लिए होती हैं। लेकिन अगर आप यह नहीं भी मानते कि इनमें से अधिकतर बगावतों का विचारधारा या सरकार के कामकाज से कोई संबंध नहीं होता बल्कि विधायकों की खरीद-फरोख्त से ही होता है, तब भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इनके कारण सैकड़ों करोड़ का नुकसान होता है। विधायकों को चार्टर्ड विमान में देशभर में घुमाने का खर्च कौन देता है? पांच सितारा होटलों और रिजॉर्टों में विधायकों को पहरे के अंदर रखने पर कितना खर्च होता है? किन्हीं कारणों से, इस तरह के सवाल शायद ही उठाए जाते हैं। अगर उठाए भी जाते हैं तो उनका कभी जवाब नहीं दिया जाता। भाजपा की अजेयता के किस्से को मजबूत करने (आपने भाजपा सरकार के लिए वोट न भी दिया हो तो भी उसकी सरकार बन ही जाती है) के अलावा ये तख्तापलट और बगावतें मतदाताओं को यही दर्शाती हैं कि चुनाव नतीजे का मोल कितना कम है। जब आप किसी प्रतिनिधि को चुनते हैं तब आप वास्तव में ऐसे व्यक्ति को नहीं चुनते, जो आपके हितों का प्रतिनिधित्व करे या जो अपनी उस विचारधारा को लागू करे जिसमें आस्था रखने का उसने वादा किया है। चुनाव में जीत आज किसी स्टार्ट-अप को दिए जाने वाले कर्ज के जैसा राजनीतिक कर्ज बन गया है। कुछ विधायक जनादेश लेते हैं और फिर उसे पैसे से भुना लेते हैं, और अपनी तकदीर संवारने के लिए राजनीतिक उद्यमी बन जाते हैं। मतदाता उनकी समृद्धि को संभव बनाने वाले साधन भर हैं। इसके कारण मतदाताओं के मन में जो संशय पनपता है उसे कमतर नहीं आंकना चाहिए। कभी भी कोई राजनीतिक दल 45 फीसदी से ज्यादा वोट से चुनाव नहीं जीतता (बल्कि अक्सर इससे कम वोट प्रतिशत से चुनाव जीतता है)। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय लोकतंत्र जब ठीक-ठाक काम कर रहा होता है, तब भी सरकारों को बहुमत का समर्थन नहीं हासिल होता है, चाहे हम 'जोरदार जीतÓ का जितना भी शोर क्यों न मचाएं। ज़्यादातर संसदीय लोकतंत्रों में यह बड़ी समस्या नहीं बनती क्योंकि चुनाव जीत कर बनी सरकारें सबको साथ लेकर चलने की ज्यादा कोशिश करती हैं।
पार्टी पर दावेदारी का दंगल
अब महाराष्ट्र में शिवसेना पर दावेदारी का दंगल शुरू हो चुका है। बागी विधायकों का दावा है कि अब शिवसेना पर उनका अधिकार है, जबकि उद्धव ठाकरे ताल ठोंक रहे हैं कि चूंकि उनके पिता ने यह पार्टी बनाई थी, इसलिए इस विरासत पर उनका अधिकार है। फिर सारे जिलों के संगठन प्रमुख उनके साथ हैं, इसलिए बागी विधायकों का इस पार्टी पर अधिकार जताना बेमानी है। दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना का एक बड़ा जनाधार है और जिसके पास उसका चुनाव निशान रहेगा, पार्टी पर जिसका कब्जा रहेगा, भविष्य में उसी के लिए वहां की राजनीति में जगह बनाने की संभावना भी रहेगी। इसलिए बागी विधायक जानते हैं कि अगर उन्होंने अलग पार्टी बनाई, तो उन्हें उस तरह समर्थन हासिल नहीं हो सकेगा, जैसा शिवसेना में रहते मिला करता था। इसका उदाहरण उनके सामने है कि शिवसेना से अलग होकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई, पर वैसा समर्थन नहीं मिल सका, जैसा शिवसेना को प्राप्त है। इसलिए वे उसे हथियाने का प्रयास कर रहे हैं। मगर उद्धव ठाकरे अपने पिता की बनाई पार्टी को इस तरह किसी को हड़पने नहीं दे सकते। उसे बचाने के लिए वे अपनी राजनीतिक गोटियां ठीक कर रहे हैं। बागी विधायकों ने पार्टी पर अधिकार पाने के लिए निर्वाचन आयोग में अर्जी भी दे दी है। कानूनी नुक्ते से निर्वाचन आयोग पार्टी पर उन्हें कब्जा दिला सकता है। नियम के मुताबिक जिस पक्ष के पास दो तिहाई से अधिक सदस्य हैं, उसे पार्टी का असली हकदार मान लिया जाता है। बागी विधायकों का दावा है कि उनके पास फिलहाल 38 विधायक हैं। हालांकि उद्धव ठाकरे का दावा है कि सारे जिलों के प्रमुख और कार्यकर्ता उनके साथ हैं। मगर कानून पार्टी की स्थिति का निर्णय कार्यकर्ताओं के आधार पर नहीं, प्रतिनिधियों के आधार पर करता है।
ऑपरेशन लोटस
'ऑपरेशन लोटसÓ भाजपा की उस स्ट्रैटजी के लिए गढ़ा गया शब्द है, जिसमें सीटें पूरी न होने के बावजूद पार्टी सरकार बनाने की कोशिश करती है। ऑपरेशन लोटस के तहत भाजपा उन राज्यों को अपना टारगेट बनाती है जहां भाजपा सत्ता में नहीं होती या कम सीटें होनी की वजह से वो सत्ता में आ नहीं पाती। महाराष्ट्र से पहले भी भाजपा कई राज्यों में अपना ऑपरेशन लोटस चला चुकी है। जिसमें से कई राज्यों में भाजपा को सफलता मिली तो कई राज्यों में उसे असफलता का स्वाद चखना पड़ा। इस ऑपरेशन के तहत भाजपा अलग-अलग तरीके से सत्ता को गिराकर अपनी सरकार बनाने की कोशिश करती है। 2016 में अरुणाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। लेकिन पार्टी के अंदर विवाद हो गया। इसके बाद कांग्रेस के 42 विधायकों ने बागी रूख अख्तियार कर लिया। इन सभी ने पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल बना ली और भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई। बाद में पीपीए का भाजपा में विलय हो गया था। 2017 में गोवा में भी चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन भाजपा ने खेल बिगाड़ दिया। यहां भी भाजपा ने ऑपरेशन लोटस चलाया और कांग्रेस के 10 विधायकों ने एक साथ राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया। सभी भाजपा में शामिल हो गए। यहां भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हो गई। वहीं 2018 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन बहुमत के आंकड़ों से दूर थी। उस समय जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बना ली। फिर ऑपरेशन लोटस चला। एक साल बाद इन दोनों पार्टियों के कई विधायकों ने एकसाथ इस्तीफा दे दिया। इसके चलते कुमारस्वामी की सरकार गिर गई। भाजपा ने कर्नाटक में अपनी सरकार बनाई। तब विपक्ष ने भाजपा पर ऑपरेशन लोटस चलाने का आरोप लगाया था। 2020 में ऑपरेशन लोटस मप्र में भी सफल हुआ था। यहां 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में 15 साल बाद कांग्रेस सत्ता में वापस आई थी। कमलनाथ मुख्यमंत्री बनाए गए थे। तब मुख्यमंत्री का सपना देख रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजगी सामने आई। कुछ समय बाद उन्होंने बगावत कर दी। सिंधिया के पास 22 विधायकों का साथ था। सभी ने कांग्रेस से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई। सिंधिया गुट के 22 विधायक भाजपा के साथ चले गए। भाजपा के शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। वहीं, सिंधिया को राज्यसभा का सांसद बनाकर भाजपा ने केंद्रीय मंत्री बना दिया। वहीं अब महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर राज्य में भाजपा ने अपनी सत्ता कायम कर ली है।
शिवसेना में बगावत...यह तो होना ही था
शिवसेना में बगावत को लेकर हैरानी नहीं। जब शिवसेना ने विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद भाजपा से नाता तोड़कर अपने धुर विरोधी दलों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि यह बेमेल सरकार अधिक दिनों तक चलने वाली नहीं। वास्तव में तब यह भी साफ हो गया था कि इस विचित्र प्रयोग की सबसे बड़ी कीमत शिवसेना को ही चुकानी पड़ेगी। वैसे तो सत्ता के लोभ में पहले भी परस्पर विरोधी दल एक साथ आते रहे हैं, लेकिन शिवसेना ने राकांपा और कांग्रेस के साथ जाकर अपने उस आधार को अपने ही हाथों खिसकाने का काम किया, जिस पर उसकी समस्त राजनीति केंद्रित थी। हिंदुत्व को अपनी राजनीति का आधार बताने वाली शिवसेना ने राकांपा और कांग्रेस के पाले में जाकर अपनी विचारधारा से मुंह ही मोड़ा। इसके चलते वह हर गुजरते दिन के साथ अपनी साख गंवाती जा रही थी। इसे शिवसेना के समर्थक, कार्यकर्ता और नेता न केवल महसूस कर रहे थे, बल्कि यदा-कदा व्यक्त भी कर रहे थे, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी के लालच में उद्धव ठाकरे इस सबकी अनदेखी करते रहे। वह ऐसे कई निर्णय भी करते रहे, जो शिवसेना के मूल चरित्र से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते थे। हद तो तब हो गई, जब ऐसे फैसलों का बचाव करते हुए शिवसेना नेताओं की ओर से बाल ठाकरे के विचारों को भी खारिज करने की कोशिश की गई। यह सत्ता की भूख का ही नतीजा था कि शिवसेना कांग्रेस नेताओं की ओर से उन वीर सावरकर के अपमान की भी अनदेखी करती रही, जिन्हें वह अपना प्रेरणास्रोत बताती है। राकांपा प्रमुख शरद पवार कह रहे हैं कि शिवसेना में बगावत उसका आंतरिक मामला है। इसके पहले कांग्रेस की ओर से यह कहा जाता रहा है कि वह अगला चुनाव अपने दम पर लड़ेगी।
-राजेंद्र आगाल