अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए एनडीए का गठन किया था। इसके सहारे उन्होंने भाजपा को न केवल मजबूत किया बल्कि सत्ता भी हासिल की। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी एनडीए की बलि देती जा रही है। दरअसल, इनकी कोशिश यह है कि भाजपा के आगे उसकी सहयोगी पार्टियां दबी रहें। जिसने भी बराबरा की कोशिश की, उसे दरकिनार कर दिया गया। इससे एनडीए का परिवार दिन पर दिन सिमटता जा रहा है।
लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा ने 1998 में 25 से ज्यादा सहयोगियों को मिलाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन किया था और इसके साथ भारत में सबसे सफल गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुई थी। इसके बाद तीन ऐसे गठबंधनों ने पूरे कार्यकाल तक सरकार चलाई जिसमें केंद्रीय पार्टी को बहुमत हासिल नहीं था। लेकिन 2020 में आज नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने एनडीए को खत्म कर दिया है और राष्ट्रीय राजनीति के लिए नए कायदे और नए समीकरण तय कर दिए हैं। आडवाणी के एनडीए को खत्म कर दिया गया है, उसका इस्तेमाल करके फेंक दिया गया है। आप इसकी तुलना वैदिक विधान से किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से कर सकते हैं। जब आपके अश्व ने पूरे राष्ट्र में निर्बाध घूमकर आपकी सत्ता, आपकी संप्रभुता स्थापित कर दी हो, तब आप क्या करते हैं? उस पवित्र अश्व की बलि चढ़ा देते हैं। एनडीए वही बलि का अश्व था। और हम यह कोई फैसला नहीं सुना रहे हैं।
इसे आज भी एनडीए की सरकार कहा जाता है, भले ही 53 सदस्यों वाले इसकी मंत्रिपरिषद में गठबंधन का केवल एक सहयोगी शामिल है। अगर आपको उसका नाम याद नहीं आ रहा तो परेशान मत होइए। हम आपको गूगल में सर्च करने की जहमत से बचाते हुए बता देते हैं कि वे हैं रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के उस धड़े के नेता रामदास अठावले जो धड़ा उनके ही नाम से जाना जाता है। एनडीए की गठबंधन सरकार नाम की कोई चीज आज मौजूद है, इसकी याद दिलाने वाले केवल एक वे ही प्रतीक हैं। यह वैसा ही है जैसे 1990 के दशक में आडवाणी की रथयात्रा को 'सेक्युलरÓ साबित करने के लिए उनके रथ का सारथी एक मुसलमान था।
अठावले अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने के लिए गाहे-बगाहे ऐसा कुछ बोलते रहते हैं जिसके 'वायरलÓ होने की गारंटी रहती है। मंत्रिपरिषद में उन्हें वह जगह दी गई है जिसके वे हकदार हैं। उनकी पार्टी का महाराष्ट्र में दलितों के बीच छोटा-सा वोट आधार है। इसलिए उन्हें सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण विभाग का राज्यमंत्री बनाया गया है। यह तो एक क्षेपक है लेकिन कैबिनेट में एकमात्र मुसलमान सदस्य जो हैं, उन्हें भी इसी तरह अल्पसंख्यक मामलों का विभाग सौंपा गया है।
क्या इसके लिए आप मोदी-शाह की भाजपा की आलोचना कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री (भ्रष्टाचार के लिए जेल भेजे गए, फिलहाल पैरोल पर) ओम प्रकाश चौटाला के इस बयान में मिल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था- 'हम यहां तीर्थ यात्रा पर नहीं आए, राजनीति सत्ता के लिए होती है।Ó नई भाजपा इस कसौटी पर खरी उतरती है, भले ही किसी के पैर कुचले हों, किसी का अंगभंग हुआ हो और कई के अहम चकनाचूर हुए हों।
अब हम 1998 से 2014 पर आ जाएं। भाजपा को बहुमत मिल गया। फिर भी सात सहयोगी दल सरकार के साथ थे। शिवसेना, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी (टीडीपी), शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) कैबिनेट में शामिल थे। अनुप्रिया पटेल का अपना दल, उपेंद्र कुशवाहा की लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी (आरएसपी) और अठावले की आरपीआई में से टीडीपी को छोड़ हरेक के राज्यमंत्री सरकार में थे।
6 साल बाद अगर इनमें से केवल अठावले ही परिभाषा के मुताबिक अभी भी एनडीए सरकार में बचे हुए हैं तो इससे साफ है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति किस कदर बदल गई है। राष्ट्रीय राजनीति पर अपने वर्चस्व के साथ मोदी-शाह की भाजपा वैसी ही हो गई है जैसी कांग्रेस इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हो गई थी। वह गठबंधन के सहयोगियों की, उनके लालच और अहम की क्यों परवाह करेगी? वे 'तीर्थ यात्राÓ के लिए राजनीति में थोड़े ही आए हैं।
यहां हम बीते हुए कल की वकालत नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत, यह भविष्य की राजनीति को गति देने वाली चीज साबित हो सकती है। फिर भी हमें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत है। आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने एनडीए के पहले गठजोड़ में जिन पार्टियों को जोड़ा था उनमें से कई आज अस्तित्व में नहीं हैं, उनमें से कई के नाम भी आज हिज्जे की गलतियां नजर आएंगी और आईएएस का टॉपर भी शायद उनका नाम याद न कर पाए। लेकिन कुछ नाम तो शायद ही भुलाए जा सकते हैं।
एनडीए के मूल कैबिनेट में जॉर्ज फर्नांडीस रक्षामंत्री थे और वे सहयोगी दल के आखिरी सदस्य थे जिन्हें सुरक्षा मामलों की महिमा मंडित कमेटी (सीसीएस) में जगह मिली थी। उनके कॉमरेड और कभी दोस्त कभी दुश्मन नीतीश कुमार कभी रेल मंत्री रहे तो कभी कृषि मंत्री। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शरद यादव और रामविलास पासवान भी महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। इसी तरह सुरेश प्रभु थे जो उस समय शिवसेना में थे। नायडू की टीडीपी लोकसभा अध्यक्ष (जीएमसी बालयोगी) के रूप में शामिल थी। सहयोगी दल के आखिरी सदस्य थे। नेशनल कांफे्रंस के अब्दुल्ला पिता-पुत्र भी जुड़े थे। यह एक प्रामाणिक विशाल गठबंधन था।
आज नीतीश एनडीए के सहयोगी हैं मगर केंद्रीय कैबिनेट में उनकी पार्टी का कोई भी नहीं है और बिहार में वे हर दिन सिकुड़ते जा रहे हैं। वे वहां फिर शायद मुख्यमंत्री बन जाएं लेकिन यह उनका आखिरी कार्यकाल ही साबित हो सकता है। उनके परिवार या पार्टी में उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, सो भाजपा उनके पूरी तरह बेअसर होने का इंतजार कर सकती है और तब कब्जा जमा सकती है।
पश्चिम बंगाल में भाजपा अपनी पूर्व सहयोगी ममता बनर्जी से आरपार की लड़ाई लड़ रही है। वे जीतें या हारें, कमजोर तो होंगी ही और भाजपा राज्य की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बन जाएगी। नवीन पटनायक को ओडिशा में अलग-थलग कर दिया गया है, बेशक उन्हें कभी-कभी परेशान किया जाता है लेकिन भाजपा को पता है कि वे उम्रदराज हो रहे हैं और उनके बाद तो मैदान उसी का है। मुमकिन है कि 2024 के चुनाव से पहले ही वह वहां बाजी पलटने की चाल चल दे। खेल जाना-पहचाना है। एक-दो असंतुष्ट सामने आएंगे, कुछ आरोप उछालेंगे, सीबीआई, ईडी, आदि एजेंसियां दखल देंगी, समर्थक टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर जंग शुरू हो जाएगी और अकेले मुख्यमंत्री के लिए इन सबका मुकाबला करना मुश्किल हो जाएगा, खासकर पटनायक के लिए जो 2024 में उस उम्र में पहुंच जाएंगे। अब्दुल्ला पिता-पुत्र को एक साल हिरासत में रखा गया और महबूबा मुफ्ती को भी, हालांकि वे मोदी-शाह दौर में भाजपा की सहयोगी बनी थीं।
शिवसेना तो अब दुश्मन ही बन गई है और सुरेश प्रभु भाजपा में शामिल हो गए हैं। शरद यादव अप्रासंगिक होने के कगार पर हैं और उनकी बेटी सुभाषिणी अभी-अभी कांग्रेस में शामिल हो गई हैं। पासवान का वंश जानी-पहचानी लंबी कहानी की तरह खिंच रहा है और इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी के पटाक्षेप की कहानी लिख सकता है। चंद्रबाबू नायडू अब प्रतिद्वंदी हैं और आंध्रप्रदेश में उन्हें परास्त करने वाले जगन मोहन रेड्डी सीबीआई और ईडी के रहमोकरम पर हैं। वे न्यायपालिका में हताश लड़ाई लड़ रहे हैं और मोदी सरकार हमेशा उन पर भारी पड़ सकती है। दक्षिण में और आगे बढ़ें तो भाजपा को कमजोर पड़ी एआईडीएमके से निपटने में कोई दिक्कत नहीं होगी, वह बस मौके का इंतजार कर रही है। राजनीति दरअसल युद्ध का सबसे क्रूर रूप है। इसलिए स्थिति ऐसी है कि पटनायक, रेड्डी, नीतीश, सबको पता है कि भाजपा उसका शिकार करने और उन्हें बेदखल कर देने वाली है। फिर भी, वे चुनावों में मुकाबला करेंगे। अपने अपमान को पी लेने के सिवाय और अहम मसलों पर राज्यसभा में भाजपा के पक्ष में मतदान करने के सिवाय उनके पास कोई उपाय नहीं है।
एनडीए नहीं, भाजपा की रैली
बिहार चुनाव के लिए प्रधानमंत्री की रैलियों की घोषणा हुई थी तो बताया गया था कि हर रैली एनडीए की रैली होगी। साफ तौर पर कहा गया था कि यह भाजपा की नहीं, बल्कि एनडीए की रैलियां होंगी। इससे जदयू के नेता खुश थे। उनको लग रहा था कि एनडीए की रैली होगी तो अपने आप भाजपा के कार्यकर्ताओं को सिग्नल होगा और आम मतदाता के दिमाग से भी कंफ्यूजन निकलेगा। प्रधानमंत्री की पहली रैली के लिए सासाराम का चुनाव भी अच्छा था क्योंकि इस इलाके में लगभग सभी सीटों पर जदयू लड़ रही है और उसके खिलाफ चिराग पासवान ने लोजपा के उम्मीदवार उतारे हैं। सो, लगा था कि इस जगह का चुनाव रणनीतिक रूप से किया गया है। परंतु जदयू के नेता जैसा सोच रहे थे सब कुछ उसके उलटा हो गया। रैली पूरी तरह से भाजपा की हो गई। जदयू बिल्कुल हाशिए में चली गई। इसके लिए जदयू के नेता भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने इस बात के लिए जोर नहीं लगाया कि उनके समर्थक अपना झंडा-बैनर लेकर रैली में पहुंचें। इसका नतीजा यह हुआ कि चारों तरफ सिर्फ भाजपा के झंडे और कमल का निशान दिख रहा था।
डिसलाइक का रहस्य
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिल रहे डिसलाइक का क्या रहस्य है? अचानक दो महीने पहले ऐसा क्या हुआ, जिसकी वजह से प्रधानमंत्री के वीडियोज को लाइक से ज्यादा डिसलाइक किया जाने लगा? काफी समय के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने गत दिनों राष्ट्र को संबोधित किया। जैसे ही उनका संबोधन शुरू हुआ और भारतीय जनता पार्टी के यूट्यूब चैनल पर लाइव हुआ, उसे डिसलाइक मिलने लगे। एक मिनट के अंदर 28 सौ लाइक थे और साढ़े चार हजार डिसलाइक हो गए। आनन-फानन में पार्टी ने नंबर्स छिपा दिए। उनका 12 मिनट का भाषण खत्म हुआ तो भाजपा के यूट्यूब चैनल पर नहीं दिख रहा था कि कितने लोगों ने इसे लाइक किया और कितने लोगों ने डिसलाइक किया। हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय, प्रधानमंत्री मोदी की अपनी साइट और पीआईबी की साइट पर लाइक्स ज्यादा थे। वहां लाइक्स ज्यादा थे तो दिख रहे थे। भाजपा की साइट पर नहीं दिख रहे थे इसका मतलब है कि वहां डिसलाइक ज्यादा थे। इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या पीएमओ, पीआईबी वगैरह ठीक काम कर रहे हैं और भाजपा का आईटी सेल ठीक काम नहीं कर रहा है? यह बात गले नहीं उतरती है। भाजपा का आईटी सेल तो इतना सक्षम है कि भाजपा के अपने सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी तक उसके शिकार बन गए। इसका मतलब है कि कहीं न कहीं देश के लोगों में लगातार होने वाले भाषणों से उब हुई है। एक अनुमान यह भी है कि कोरोना के बीच नीट, जेईई की परीक्षाएं कराने से छात्र-नौजवान नाराज हैं तो कृषि और श्रम कानूनों में बदलाव से किसानों, मजदूरों में नाराजगी है, जिसका असर सोशल मीडिया पर दिख रहा है।
- इन्द्र कुमार