मप्र में भाजपा और कांग्रेस आगामी चुनाव की तैयारियों में जुटी हुई है। अब रिपोर्ट कार्ड से मिशन 2023 फतह होगा। सरकार और विपक्ष का अपना-अपना चुनावी रिपोर्ट कार्ड होगी। भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे का रिपोर्ट कार्ड तैयार करेगी। दोनों ही पार्टी एक-दूसरे की नाकामियों और खामियों को दिखाएगी। उधर, भाजपा की रणनीति यह है कि इस बार आधा सैकड़ा से अधिक सीटों पर नए चेहरों पर दांव लगाया जाए। यानी आगामी विधानसभा चुनाव में अधिकांश उम्रदराज नेता चुनावी मैदान से बाहर हो जाएंगे।
मप्र में सत्ता और संगठन में बदलाव की कवायद शुरू हो गई है। भाजपा सूत्रों की मानें तो पार्टी के शीर्ष नेताओं में कई दौर की बात हो चुकी है। सरकार में जहां कुछ नए मंत्री बनाए जाएंगे, वहीं संगठन में भी कुछ बदलाव होगा। इन बदलावों के साथ ही पार्टी नेताओं को संदेश देना चाहती है कि आगामी विधानसभा चुनाव में नए चेहरों पर दांव लगाया जाएगा। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा अभी से हर स्तर पर काम जोर-शोर से करने लगी है। इसके लिए पार्टी ने एक गाइडलाइन लगभग तैयार कर ली है। अगर इस पर पूरी तरह से पालन हुआ तो कोई बड़ी बात नही हैं कि मौजूदा पार्टी के आधा सैकड़ा विधायकों व बड़े नेताओं को टिकट ही नहीं मिले। इनमें पार्टी के वे चेहरे भी शामिल रहेंगे, जो बेहद बड़े माने जाते हैं, लेकिन या तो बीता चुनाव हार चुके हैं या फिर उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं, जो पार्टी द्वारा तय की गई आयु सीमा से अधिक है।
इसके अलावा पार्टी द्वारा अभी से हर विधानसभा सीट का अपने स्तर पर आंकलन कराया जा रहा है। इस आंकलन में जो विधायक खरे नहीं उतरेंगे उनके भी टिकट कटना तय माना जा रहा है। पार्टी ने इसके लिए संगठन स्तर पर नए व प्रभावी चेहरों की तलाश शुरू कर दी है। यह वे चेहरे होंगे जो न केवल साफ-सुथरी छवि के होंगे बल्कि मतदाताओं के बीच भी अच्छी पकड़ रखते होंगे। इस बार पार्टी अपने जिलाध्यक्षों को भी चुनाव में उम्मीदवार बनाने से परहेज करने जा रही है। इसके पीछे की वजह है चुनाव के समय जिलाध्यक्ष के प्रत्याशी होने की वजह से वह सिर्फ एक सीट पर ही पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करता है जिससे जिले की अन्य सीटों पर अव्यवस्था की स्थिति बनती है। यही नहीं इस बार भाजपा संगठन कई अन्य तरह के भी कदम उठा रही है, जिसमें निगम मंडल की कमान संभालने वाले नेताओं को भी अगर चुनाव लड़ना है तो उन्हें पहले पदों से इस्तीफा देना होगा। भाजपा में इन दिनों वैसे भी पीढ़ी परिवर्तन का दौर चल रहा है, जिसकी वजह से ही संगठन में अधिकांश पदों पर युवा चेहरों को ही जिम्मेदारी दी गई है। दरअसल भाजपा में यह पूरी कवायद दूसरी मजबूत पंक्ति तैयार करने के लिए की जा रही है।
जानकारों की माने तो मिशन 2023 के लिए जो क्राइटेरिया तय किया जा रहा है, उसमें पार्टी के ऐसे विधायकों को अगली बार टिकट नहीं देगी, जो न केवल उम्रदराज हो चुके हैं, बल्कि उनकी पकड़ भी अब मतदाताओं पर कमजोर होती जा रही है। खास बात यह है कि इस बार उन विधायकों के टिकट पर भी खतरा बना हुआ है, जो बेहद कम मतों से जैसे-तैसे जीत हासिल कर सके हैं। यही नहीं पार्टी के उन नेताओं के टिकट पर भी इस बार संकट खड़ा हो गया है जो मंत्री रहते पिछला चुनाव हार चुके हैं। ऐसे नामों में जयंत मलैया, ओम प्रकाश धुर्वे, रुस्तम सिंह, अर्चना चिटनिस, उमाशंकर गुप्ता, अंतर सिंह आर्य, जयभान सिंह पवैया, नारायण सिंह कुशवाहा, दीपक जोशी, लाल सिंह आर्य, शरद जैन, ललिता यादव और बालकृष्ण पाटीदार जैसे नाम शामिल बताए जा रहे हैं। इनमें से किसी को टिकट मिलेगा भी तो अपवाद स्वरूप। वैसे भी इनमें से कई चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें श्रीमंत समर्थकों की वजह से टिकट मिलना बेहद मुश्किल है। कहा जा रहा है कि पार्टी इन नेताओं के अनुभव का लाभ लेगी। यह लाभ किस तरह से लिया जाएगा यह अभी तय नहीं है। बताया जा रहा है कि परिवारवाद के आरोपों से बचने के लिए प्रदेश संगठन जनप्रतिनिधियों के परिवार के सदस्यों को टिकट देने का मामला केंद्रीय संगठन पर छोड़ेगा।
पार्टी इस बार अभी से उन सीटों पर खास फोकस करने जा रही है, जिन पर कांग्रेस के विधायक हैं। यही नहीं बीते चुनाव में जिन तीन जिलों में पार्टी का खाता तक नहीं खुला था, उन सीटों पर भी अभी से पार्टी चुनावी तैयारियों में लगने की योजना पर काम कर रही है। यह बात अलग है कि इन तीनों ही सीटों पर श्रीमंत के आने के बाद उनके समर्थक विधायक जीतकर भाजपा के लिए राह आसान बना चुके हैं। इनमें खरगौन, मुरैना और भिंड जिला शामिल है।
भाजपा मप्र में भी हाल ही में संपन्न हुए उप्र की तर्ज पर चुनावी रणनीति तैयार कर रही है। जिसमें एक-एक विधानसभा क्षेत्र का आंकलन किया जाएगा। वहां यदि पार्टी का विधायक है, तो उसकी क्षेत्र की जनता से जुड़ाव, लोकप्रियता, भ्रमण और सरकार की योजनाओं के क्रियान्वयन में व्यक्तिगत भागीदारी का भी पता लगाया जाएगा। सूत्रों की मानें तो पार्टी संगठन इसी साल जिला संगठन से प्रत्येक विधानसभा क्षेत्रों के लिए पांच-पांच नामों का पैनल मांगेगा। इनमें मौजूदा जहां विधायक हैं, वहां उनका नाम सबसे पहले लिखा जाएगा। युवराज महाआर्यमन सिंधिया इस वर्ष से अपने पिता के साथ कई कार्यक्रमों में मंच भी साझा करने लगे हैं, हालांकि उन्हें राजनीति का ककहरा विरासत में मिला है। उनकी परदादी स्व. राजमाता विजयाराजे सिंधिया से लेकर दादा स्व. माधवराव सिंधिया भी राजनीति में थे, वहीं उनके पिता भी राजनीति में ऊंचाईयों पर हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में पार्टी के जनाधार के बावजूद उमाशंकर गुप्ता, रुस्तम सिंह, हिम्मत कोठारी जैसे 70 से ज्यादा उम्र वाले नेताओं को नकार दिया गया। हालांकि इनकी हार की अन्य वजह भी रही हैं। अब ये नेता फिर अपने क्षेत्र में सक्रिय हैं। पार्टी के राष्ट्रीय संगठन से निर्देश मिलने पर उम्रदराज नेताओं को चुनाव के लिए टिकट देने से इनकार करते हुए मार्गदर्शक मंडल में भेजा जा सकता है।
उधर बीते साल ही भाजपा प्रदेश संगठन ने पहले से चली आ रही संभागीय संगठन मंत्री की व्यवस्था के सभी पद समाप्त कर दिए थे, जिसके बाद इन पदों पर काम कर रहे लोगों को निगम मंडलों की कमान देकर उन्हें सत्ता में भागीदारी प्रदान की जा चुकी है। इसके बाद तय किया गया था कि प्रदेश को तीन अलग-अलग प्रांतों में बांटकर उनकी जिम्मेदारी तीन सह संगठन मंत्रियों को प्रदान कर दी जाए। इन पदों पर नियुक्तियों के लिए तभी से इंतजार किया जा रहा है। वहीं मंत्रिमंडल में भी बदलाव की संभावना जताई जा रही है। दरअसल अभी शिवराज कैबिनेट में मंत्रियों के चार पद रिक्त चल रहे हैं। इन चार पदों के लिए कई वरिष्ठ भाजपा विधायकों की दावेदारी बनी हुई है। इनमें कुछ चेहरे तो ऐसे हैं जो पहले भी लगातार मंत्री रह चुके हैं, लेकिन श्रीमंत समर्थकों की वजह से उन्हें इस बार मौका नहीं मिल सका है। माना जा रहा है कि विस्तार में दो से लेकर तीन मंत्रियों को शपथ दिलाई जा सकती है। इसके लिए जिन नामों की चर्चा बनी हुई हैं उनमें मुख्य तौर पर विंध्य क्षेत्र के राजेंद्र शुक्ला, केदार शुक्ला तो वहीं महाकौशल से अजय विश्नोई, संजय पाठक, जालम सिंह पटेल, मध्य क्षेत्र से रामपाल सिंह और निमाड़ मालवा से रमेश मेंदोला, सुदर्शन गुप्ता जैसे नाम शामिल हैं। यह बात अलग है कि जिस तरह से भाजपा सरकार और उसके संगठन का प्रदेश में इन दिनों अनुसूचित जाति व जनजाति पर फोकस बना हुआ है, उससे यह भी अटकलें लगाई जा रहीं हैं कि इस बार इन दोनों वर्ग के नेताओं को ही शपथ दिलाने में प्राथमिकता मिलनी तय है।
उधर, मिशन 2023 की तैयारी में जुटी भाजपा के लिए ग्वालियर-चंबल अंचल टेंशन बना हुआ है। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीत ले गई थी। हालांकि उसके स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भाजपा में हैं। लेकिन इस इलाके के जातीय समीकरण भाजपा को बेचैन किए हुए हैं। मप्र के लिहाज से ग्वालियर-चंबल अंचल की अहमियत इस लिहाज से समझी जा सकती है कि 2018 के चुनाव में ग्वालियर-चंबल से कांग्रेस के खाते में गई 26 सीटों ने प्रदेश का सियासी समीकरण बदल दिया और सत्ता भाजपा के हाथ से निकलकर कांग्रेस के पास चली गई। कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो गई थी। हालांकि कांग्रेस नेताओं का पाला बदलने के बाद स्थिति बदल गई है। लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में यही स्थिति बनी रहेगी इस पर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता।
लगातार की जा रही है कामकाज की समीक्षा
दरअसल जिस तरह से प्रदेश में बीते कुछ माह में लगातार मंत्रिमंडल के सदस्यों की बैठकें संगठन के अलावा मुख्यमंत्री द्वारा ली गई हैं, उससे भी मंत्रिमंडल विस्तार को बल मिला है। हाल ही में मुख्यमंत्री ने अपने सभी मंत्रियों के साथ पचमढ़ी में बैठक की है। दो दिन तक चली इस बैठक को भले ही चिंतन शिविर का नाम दिया था और विभागीय कामकाज के लिए योजनाओं पर मंथन करने का दावा किया गया था, लेकिन वास्तव में इस बैठक में कामकाज की समीक्षा भी की गई। इसके पूर्व राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश प्रदेश भाजपा कार्यालय में मंत्रियों के साथ अलग से बैठक कर चुके हैं। उनके पहले राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष ने सभी मंत्रियों के साथ बैठक की थी और उन्हें पार्टी की अपेक्षाओं के बारे में बताया था। यही नहीं जनवरी में भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा 3 से लेकर 10 जनवरी तक विभागों की समीक्षा की गई थी। माना जा रहा है कि लगातार की कई विभागों के कामकाज की समीक्षा में कई विभागों के कामकाज से संगठन व सरकार खुश नहीं है। इसकी वजह से संबधित विभागों के मंत्रियों के विभागों में भी फेरबदल होना तय माना जा रहा है। कुछ मंत्री तो ऐसे हैं, जो अब तक अपने विभागों में पकड़ ही नहीं बना पाए हैं। इसकी वजह से सरकार की जनहितैषी योजनाएं प्रभावित हो रही हैं। माना जा रहा है कि ऐसे मंत्रियों से महत्वपूर्ण विभाग लेकर उनका कद कम किया जाएगा। उनके विभाग अन्य मंत्रियों को दिए जाएंगे।
70+ नेताओं को दिया जाएगा आराम
नर्मदापुरम के विधायक डॉ. सीतासरन शर्मा चार बार से विधायक हैं। उन्होंने पहला चुनाव 1993 में लड़ा था। इसके बाद 1998 में भी विधायक रहे। 2003 के चुनाव में उनका टिकट काटा गया तो उनके भाई पं. गिरिजाशंकर शर्मा को पार्टी ने टिकट दिया। वे दो बार विधायक रहे। 2013 में डॉ. शर्मा को फिर पार्टी ने टिकट दिया और वे जीतकर विधानसभा के स्पीकर भी रहे। 2018 में उन्हें एक बार फिर विधायक बनने का मौका मिला। डॉ. शर्मा बंद कमरे में चुनाव नहीं लड़ने की बात कई बार कह चुके हैं, लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ दिनों पहले उन्होंने एक बार और चुनाव लड़ने के लिए ताल ठोक दी है। इन नेताओं की खास बात यह है कि ये अपने क्षेत्र में खासे लोकप्रिय हैं। अब पार्टी के सामने समस्या यह है कि नए कार्यकर्ताओं को मौका देने के लिए इन नेताओं को कैसे इनकार किया जाए। आने वाले चुनावों में भाजपा के एक दर्जन विधायक 70 की उम्र पार कर चुके होंगे। पार्टी के लगभग 13 विधायक अगले साल होने वाले चुनाव के दौरान 70 वर्ष की आयु पूरी कर चुके होंगे। अगर पार्टी के नए विचाराधीन फॉर्मूला पर अमल होता है तो 70 साल से अधिक की उम्र के नेताओं को टिकट नहीं देने के क्राइटेरिया में कई नेताओं को माननीय बनने का मोह त्यागना पड़ेगा।
- कुमार राजेन्द्र