बाघों की गुर्राहट टकरा रही है। खुले जंगलों में विचरण करने वाले वनराज अब पगडंडियों पर हैं। लड़-झगड़कर बाघों ने समझौता कर लिया है। वे चिड़ियााघर के बाघों की तरह मिलकर रह रहे हैं। शावकों में भी जंगल का राजा बनने की कोई होड़ नहीं है। ये सब सुनने में अजीब लग सकता है, मगर हालात जस के तस रहे तो कुछ साल बाद टाइगर स्टेट के जंगलों की तस्वीर ऐसी ही हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं।
दरअसल, प्रदेश में जैसे-जैसे बाघ बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उनका बसेरा कम होता जा रहा है। शहरों का विस्तार और गांव के खेत जंगलों की हदों पर कब्जा कर रहे हैं। नतीजा यह है कि बाघ और अन्य जंगली जानवर आबादी वाले क्षेत्रों का रुख कर रहे हैं। इतना ही नहीं, बाघों में क्षेत्र संघर्ष (टेरेटोरियल फाइट) भी छिड़ गया है। जानकारों के मुताबिक, एक बाघ का इलाका पांच सौ वर्ग किमी तक होता है और वह भी तब जबकि उसे भोजन, पानी और बाघिन उपलब्ध हों। बाघों के मौजूदा कुनबे के हिसाब से बाघों को इतनी जगह नहीं मिल रही है।
वैसे तो बाघ सघन जंगलों में रहते हैं, लेकिन बीते सात वर्षों में वे सामान्य जंगलों को भी अपना बसेरा बनाने लगे हैं। अब सतना, कटनी, भोपाल, शहडोल, देवास, रायसेन, सीहोर, बालाघाट, दमोह, विदिशा, बैतूल, खंडवा, इंदौर, हरदा, बुरहानपुर, डिंडोरी, श्योपुर जिले भी बाघों के घर बने हैं। वर्ष 2018 के बाद अब फिर से बाघों की गणना शुरू हो रही है। वर्ष 2018 के आंकड़ों के अनुसार, 526 बाघों के साथ प्रदेश देश में अव्वल था और वन्य जीव विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस बार यह संख्या 750 से अधिक हो सकती है। बीते तीन वर्षों में जंगलों का दायरा बढ़ाने की कोई बड़ी कोशिश नहीं हुई है। सघन, विरल, खुले वन मिलाकर 77482 वर्ग किलोमीटर है। इनमें से बाघों के लिए सिर्फ 42 हजार वर्ग किमी ही है, क्योंकि शेष खुले जंगलों में बाघ नहीं रहते हैं।
दरअसल, जंगलों में मनुष्यों की बसाहट बढ़ने से घास के मैदान घट रहे हैं। ऐसे में शाकाहारी वन्य जीव संकट में हैं और उनकी कमी होने पर बाघों का भोजन सिमट रहा है। वहीं वन क्षेत्रों में खनिज संपदा भी छिपी हुई है और सरकारें उत्खनन करना चाहती हैं। ऐसे में बाघों के जीवन में खलल पैदा हो रहा है। वहीं प्रदेश में दस साल में करीब पांच बड़ी परियोजनाएं आई हैं। इसमें हजारों हैक्टेयर जमीन वनों से गई। भरपाई के लिए सरकार पैसा और जमीन देती है, लेकिन वन तैयार होने में 20 साल लग जाते हैं और दो साल के अंदर इन परियोजनाओं के लिए वनों की कटाई हो जाती है। उधर लकड़ी और वन संपदा पर माफिया की निगाह है। वे अंदर ही अंदर जंगलों को खोखला कर रहे हैं। इसकी भरपाई संभव ही नहीं। हालांकि प्रदेश में दस अभयारण्य और तीन नेशनल पार्क का प्रस्ताव तैयार है। इसे अमल में लाया जाए। श्योपुर, सीहोर, बुरहानपुर, छिंदवाड़ा, मंडला, हरदा, इंदौर, नरसिंहपुर, सागर और श्योपुर अभयारण्य के लिए प्रस्तावित हैं। वहीं, औंकारेश्वर, रातापानी और मानधाता नेशनल पार्क के लिए चिन्हित किए गए हैं। बाघ प्रदेश की सीमाओं में बंधे नहीं हैं और वे पड़ोसी राज्यों में जा रहे हैं। ऐसे में जंगलों के कॉरिडोर पर राष्ट्रीय स्तर पर ठोस चर्चा की जानी चाहिए। वन क्षेत्रों में बसे आदिवासियों को भरोसे में लेकर उन्हें संरक्षित करके जंगलों को बचाया जाए। विशेषज्ञों का कहना है कि बाघ परियोजनाओं पर बजट बढ़ाया जाए क्योंकि बीते तीन वर्षों से राशि पर्याप्त नहीं मिल रही है। इससे जंगलों के विकास और संरक्षण के काम प्रभावित हो रहे हैं।
बाघों की संख्या के मामले में मप्र अपना अव्वल दर्जा देश में कायम रख पाएगा या नहीं, यह तो अगले साल प्रस्तावित बाघों की देशव्यापी गणना के बाद तय होगा, पर प्रदेश के जंगलों से अच्छे संकेत मिलने लगे हैं। वन विभाग की आंतरिक गिनती में प्रदेश के टाइगर रिजर्व में वर्ष 2018 की तुलना में औसतन पांच से 60 फीसदी तक बाघ बढ़ गए हैं। ये आंकड़े भरोसा दिलाते हैं कि मप्र देश में सबसे ज्यादा बाघ वाले राज्य (टाइगर स्टेट) के रूप में पहचान कायम रखेगा। प्रदेश के पांच नेशनल पार्क, 24 अभयारण्य और 63 सामान्य वनमंडलों में दो साल में 100 से ज्यादा बाघ बढ़े हैं। इसके अलावा 45 से ज्यादा शावक हैं, जो अगले साल गिनती शुरू होने तक एक वर्ष की उम्र पार कर लेंगे और गिनती में शामिल हो जाएंगे।
एक साल में जन्मे हैं 100 से ज्यादा शावक
वन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, बीते तीन साल में मप्र में देश में सबसे ज्यादा 80 बाघों की अलग-अलग कारणों से मौत हुई। इनमें से आधे से ज्यादा बाघों ने टेरिटोरियल फाइट में अपनी जान गंवाई। इधर, बीते एक साल में 100 से ज्यादा शावक जन्मे भी हैं। प्रदेश के टाइगर रिजर्व में बाघ आंकलन फेज-4 के तहत पिछले साल आंतरिक गणना की गई थी। इसके हाल में सामने आए उत्साहजनक आंकड़ों ने वन विभाग में नई उम्मीदों का संचार कर दिया है। यदि इसी अनुपात में बाघों की संख्या बढ़ी, तो आगामी गणना में बाघों की संख्या 660 के आसपास होगी। हालांकि वर्ष 2018 में कर्नाटक में 524 और मप्र में 526 बाघ गिने गए थे। दोनों में बड़ा अंतर नहीं है इसलिए वन विभाग को सावधानी बरतनी होगी। पहले तो बाघों की मौत के ग्राफ को कम करने की कोशिश करनी होगी, जो मॉनीटरिंग बढ़ाकर ही संभव है। वहीं तकनीक का अधिकतम उपयोग कर प्रत्येक बाघ को गिनने का प्रयास करना होगा।
- श्याम सिंह सिकरवार