26-Dec-2020 12:00 AM
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भारत कृषि प्रधान देश है। लेकिन भारत का किसान विश्व में सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। इसकी वजह है सरकार की नीति और नीयत में अंतर। इसी का परिणाम है कि आजादी के 73 साल बाद भी देश का किसान खुशहाल नहीं हो पाया है। सरकार ने किसानों में खुशहाली लाने के लिए जिस नए कृषि कानून को लागू किया है, उसे किसान कॉरपोरेट हितैषी मान रहे हैं। इस कानून के विरोध में किसान धरने पर बैठे हुए हैं और सरकार की एक नहीं सुन रहे हैं।
अन्याय और शोषण की पराकाष्ठा हमेशा बदलाव को आवाज देती है। जब तंत्र बेदम हो जाए तो इसे समाप्त कर एक नए जीवन तंत्र की स्थापना के सपनों को साकार कर पाना ऐसी क्रांति कहलाता है, जिसका युगों से पददलित इंतजार करते हैं। जब वक्त आता है तो इसके लिए संघर्ष करते हैं, जूझ मरते हैं। कुछ ऐसे ही संघर्ष का आव्हान सितंबर अंत से पंजाब और हरियाणा से उभरते हुए उस किसान आंदोलन से मिला, जिसमें बड़ी संख्या में किसान पैदल या अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर सवार होकर देश की राजधानी की सीमा की ओर कूच कर गए। इनके साथ उप्र और राजस्थान के किसानों ने भी स्वर मिलाया। यह एक अजब शांतिप्रिय अनुशासित आंदोलन है, जिसका विश्वभर में संज्ञान लिया गया। दिल्ली सीमा का घेराव करते हुए आंदोलनकारी अपनी बेहतरी के लिए बनाए गए कानूनों को किसान विरोधी बताकर उन्हें बदलने की बात कर रहे थे।
सरकार से उनकी बात दर बात होती रही। जो कानून उनकी आय को दोगुना करने के लिए बनाए गए थे या फसलों की खरीद-बेच को शोषण रहित बनाने के लिए एक नियमित मंडियों के साथ वैकल्पिक निजी मंडियों की स्थापना का उद्घाटन थे, उन्हीं को आक्रोशित धरती पुत्र कह रहे हैं कि देश के 80 प्रतिशत अढ़ाई हैक्टेयर से कम भूमि वाले किसान को कॉरपोरेट घरानों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है। बदलाव का नाम लेकर उन्हें एक छद्म परिवर्तन के समक्ष बंधक बनाया जा रहा है। यह एक अजब स्थिति है, जिसमें दोनों पक्ष अपने आपको सही और दूसरे को गलत, अपने आपको बदलाव से प्रतिबद्ध और दूसरे पक्ष को प्रतिक्रियावादी बता रहे हैं। दोनों ओर से संवाद की स्थिति का आव्हान हो रहा है, लेकिन कोई पक्ष भी लोचशील होकर किसी सर्व स्वीकार्य निर्णय को अपनाने के लिए तैयार नहीं।
निश्चय ही किसानों के इस क्रांति मार्च और घेराव को यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि उन्हें कानून समझने में भूल हो गई है। क्या कहीं न कहीं इस बदलाव के लिए चिल्लाते लोगों के मन में यह धारणा नहीं पैठ गई कि फसल उगने और बेचने वालों के सामने खरीदने वालों की ताकत कहीं अधिक है और वे अपनी शर्तों पर उनकी फसलें खरीद लेंगे, जो उनकी मेहनत या लागत का पूरा मूल्य नहीं देगी। वे लोग इसीलिए हर मंडी चाहे वह नियमित हो या निजी में एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं, या उसके लिए कानून बना देने का हठ कर रहे हैं। कानून बनाने वाली सरकार की बाध्यता यह है कि अगर न्यूनतम कीमत की गारंटी ही दे दी तो कौन-सा निजी कॉरपोरेट घराना इन फसलों की ओर आएगा, जो उन्हें मांग और पूर्ति के खुले खेल के बिना निश्चित कीमतों के साये तले लाभप्रद नहीं लगेंगी। इसकी जगह वे क्या देश के दूसरे राज्यों में नकद फसलों की खेती की ओर नहीं चले जाएंगे? एमएसपी की गारंटी मिल भी गई, तो किसानों को ग्राहक न मिलने की शिकायत पैदा हो जाएगी। यह शिकायत पुरानी है। इससे पहले शांता कुमार कमेटी का सर्वेक्षण भी यही बता गया कि जब इन नए कानूनों की वैकल्पिक मंडी व्यवस्था नहीं थी, एएमपीसी की पुरानी खरीद प्रणाली थी, तब भी किसान अपनी फसलों का 6 प्रतिशत ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच पाते थे।
पहले भी अपनी आर्थिक दुरावस्था के कारण इन्हें अपनी फसलों को औने-पौने दामों में बेचना पड़ता था, अब भी बेचना पड़ेगा। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक किसान को उसकी फसल लागत और 50 प्रतिशत लाभ की शर्त पहले भी थी, अब भी मांगी जा रही है। लेकिन झंझट यह है कि परंपरागत धान और गेहूं के फसल चक्र का अनुसरण ही पंजाब और हरियाणा में होता रहा है, अब भी हो रहा है। इसलिए कुल उत्पादन मांग से कहीं अधिक हो जाता है। अब आपूर्ति अधिक और मांग कम, इसलिए अर्थशास्त्र के सादे संतुलन सिद्धांत के मुताबिक कीमत तो कम मिलेगी, चाहे जितनी भी एमएसपी की गारंटी दे दी जाए।
शोषण का डर
आय बढ़ाने का तो एक ही सीधा उपाय यहां है और वह है फसलों का वैविध्यकरण और जीवन-निर्वाह फसलों के स्थान पर नकद एवं व्यावसायिक खेती को अपनाना। जिन राज्यों ने फसल विविधता के इस चक्र को अपना लिया है, वहां इसीलिए उन्हें इस आंदोलन में एक प्रतिबद्धता के साथ कूदते नहीं देखा गया, जितना कि पंजाब और हरियाणा के परम्परागत फसल चक्र वाले किसान सामने आए। किसान की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में अपने शोषण का डर एवं धनाढ्य खरीदारों द्वारा जमाखोरी की बंदिश खुल जाने के बाद उनके द्वारा अनुचित लाभ और किसान की आय का वहीं का वहीं रह जाने का संशय अनुचित नहीं और इसीलिए उनके आंदोलन को इसकी तीखी धार भी मिली है। लेकिन समय की परख बताती है कि किसानों का आर्थिक कायाकल्प केवल किसान कानूनों में संशोधन अथवा उनके रद्द करके नए कानून बनाने से नहीं होगा।
ऐसा न हो कि किसानों का एक आंदोलन का अपना-अपना वोट बैंक भुनाने के लिए भी विपक्षी दलों द्वारा राजनीतिकरण हो जाए। यही बात हर क्रांति आंदोलन को उसकी राह से भटका कर नेताओं की सत्तालिप्सा की ओर धकेल देती है। यह भी सही है कि अभी तक किसानों का यह क्रांति आंदोलन एक साफ-सुथरे और अनुशासित ढंग से चलाया जाता रहा, लेकिन भारत बंद और टोल फ्री आवागमन और भूख हड़ताल की घोषणाओं ने जहां इसका राजनीतिकरण हो जाने की संभावना बढ़ा दी, वहां अराजक तत्वों और देश विरोधी ताकतों की घुसपैठ के लिए भी चोर दरवाजे खुलने का अंदेशा है। जरूरी है कि हर तरह के राजनीतिक हठ को त्याग कर जल्द से जल्द एक नई समझ और समझौता पैदा किया जाए, ताकि नवजागरण का ध्वजवाहक यह आंदोलन अपनी असफलता के बीज स्वयं ही बोने न लगे। यह भी न भूला जाए कि भारत की सरहदों पर शत्रु और आतंकी घात लगाए बैठे हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में अगर यह उद्वेलन चलता रहता है, तो इनके लिए भारत विरोधी खेल खेलने के लिए एक खुला और उपजाऊ मैदान मिल जाएगा।
संविधान का अपहरण
देश की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा हमारे किसान या कृषि सेवाओं से जुड़े हुए लोग हैं। किसानों का आर्थिक कायाकल्प ही उसकी सब समस्याओं का संपूर्ण हल है। तब तक किसान कानूनों के संशोधन का झगड़ा उनके किसी काम न आएगा। फसलों का वैविध्यकरण, कृषि संबंधित सेवाओं का विनिर्माण और ग्रामीण युवा शक्ति को खेतीबाड़ी में अपने नए जीवन की तलाश करने का संदेश ही उनका मुक्ति प्रसंग है, न कि अराजक हो सकने वाले आंदोलनों की उथल-पुथल।
संविधान विशेषज्ञों की दलील है कि केंद्र के ये तीनों कानून संविधान के संघीय चरित्र का घोर उल्लंघन हैं। कृषि हमेशा राज्य सूची का विषय रहा है और केंद्र के पास समवर्ती सूची में भी कृषि के मामले में कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। सांसद तथा वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी कहते हैं, 'नए कानून के जरिए केंद्र ने राज्यों को राज्य सूची के तहत अनुसूची 14,18, 46, 28 के तहत प्रदत्त विशेष अधिकारों का अपहरण करने का प्रयास किया है। जिस तरीके से ये तीनों कृषि कानून लाए गए हैं, वह वैधानिक ढांचे के अनुरूप नहीं है। ये कानून राज्यों को शुल्क या लेवी के जरिए राजस्व जुटाने से वंचित करते हैं। इसलिए ये तीनों कानून सत्ता के बंटवारे को चुनौती देते हैं, जो हमारे लोकतंत्र की रीढ़ है।Ó
तुलसी की दलील है, इन कानूनों के विवाद निपटाने के प्रावधान यह भी साफ नहीं करते कि विवाद की स्थिति में संबंधित पक्षों का प्रतिनिधित्व कौन करेगा। फिर, कानून कृषि करार में सुलह की प्रक्रिया के अभाव में विवाद निपटाने का बोझ भी पहले से काम से लदे अनुमंडलाधिकारी (एसडीएम) पर डाल देता है। कानून के प्रावधानों में सबसे अमानवीय तो किसान से अपील करने का अधिकार छीन लेना है। लगता है कि राज्य नौकरशाहों की फौज के जरिए अपनी ताकत के इजहार में खुद को ईश्वर समझ बैठा है, जो हर तरह के सवाल और चुनौती से परे है। ऐसे में, अगर उच्च अधिकारी का फैसला भ्रष्टाचार, पूर्वाग्रह या महज तुनकमिजाजी की वजह से पक्षपाती हो, तो उसके खिलाफ किसान को कोई अधिकार न होना अजीबोगरीब है।
नए कानून का क्या होगा असर?
यही खुली छूट आने वाले वक्त में एपीएमसी मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी। एपीएमसी मंडी के बाहर नए बाजार पर पाबंदियां नहीं हैं और न ही कोई निगरानी। सरकार को अब बाजार में कारोबारियों के लेनदेन, कीमत और खरीद की मात्रा की जानकारी नहीं होगी। इससे खुद सरकार का नुकसान है कि वह बाजार में दखल करने के लिए कभी भी जरूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर पाएगी। इस कानून से एक बाजार की परिकल्पना भी झूठी बताई जा रही है। यह कानून तो दो बाजारों की परिकल्पना को जन्म देगा। एक एपीएमसी बाजार और दूसरा खुला बाजार। दोनों के अपने नियम होंगे। खुला बाजार टैक्स के दायरे से बाहर होगा। सरकार कह रही है कि हम मंडियों में सुधार के लिए यह कानून लेकर आ रहे हैं। लेकिन, सच तो यह है कि कानून में कहीं भी मंडियों की समस्याओं के सुधार का जिक्र तक नहीं है। यह तर्क और तथ्य बिल्कुल सही है कि मंडी में पांच आढ़ती मिलकर किसान की फसल तय करते थे। किसानों को परेशानी होती थी। लेकिन कानूनों में कहीं भी इस व्यवस्था को तो ठीक करने की बात ही नहीं कही गई है।
मंडी व्यवस्था में कमियां थीं। बिल्कुल ठीक तर्क है। किसान भी कह रहे हैं कि कमियां हैं तो ठीक कीजिए। मंडियों में किसान इंतजार इसलिए भी करता है क्योंकि पर्याप्त संख्या में मंडियां नहीं हैं। आप नई मंडियां बनाएं। नियम के अनुसार, हर 5 किमी के रेडियस में एक मंडी। अभी वर्तमान में देश में कुल 7000 मंडियां हैं, लेकिन जरूरत 42000 मंडियों की है। आप इनका निर्माण करें। कम से कम हर किसान की पहुंच तक एक मंडी तो बना दें। संसद में भी तो लाखों कमियां हैं। क्या सुधार के नाम पर वहां भी एक समानांतर निजी संसद बनाई जा सकती है? फिर किसानों के साथ ऐसा क्यों?
जिम्मेदारी से बचना चाहती है सरकार?
आज सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। कृषि सुधार के नाम पर किसानों को निजी बाजार के हवाले कर रही है। हाल ही में देश के बड़े पूंजीपतियों ने रीटेल ट्रेड में आने के लिए कंपनियों का अधिग्रहण किया है। सबको पता है कि पूंजी से भरे ये लोग एक समानांतर मजबूत बाजार खड़ा कर देंगे। बची हुई मंडियां इनके प्रभाव के आगे खत्म होने लगेंगी। ठीक वैसे ही जैसे मजबूत निजी टेलीकॉम कंपनियों के आगे बीएसएनएल समाप्त हो गई। इसके साथ ही एमएसपी की पूरी व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। कारण है कि मंडियां ही एमएसपी को सुनिश्चित करती हैं। फिर किसान औने-पौने दाम पर फसल बेचेगा। सरकार बंधन से मुक्त हो जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे बिहार की सरकार किसानों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई है। वर्ष 2020 में बिहार में गेहूं के कुल उत्पादन की 1 प्रतिशत ही सरकारी खरीद हो पाई। बिहार में यही एपीएमसी कानून तो 2006 में ही खत्म किया गया था। सबसे कम कृषि आयों वाले राज्य में आज बिहार अग्रणी है। लेकिन आज यही कानून पूरे देश के लिए क्रांतिकारी बताया जा रहा है। कोई एक सफल उदाहरण नहीं है जहां खुले बाजारों ने किसानों को अमीर बनाया हो।
सरकार कह रही है कि निजी क्षेत्र के आने से किसानों को लंबे समय में फायदा होगा। यह दीर्घकालिक नीति है। लेकिन, बिहार में सरकारी मंडी व्यवस्था तो 2006 में ही खत्म हो गई थी। 14 वर्ष बीत गए। यह लंबा समय ही है। अब जवाब है कि वहां कितना निवेश आया? वहां के किसानों को क्यों आज सबसे कम दाम पर फसल बेचनी पड़ रही है? अगर वहां इसके बाद कृषि क्रांति आ गई थी तो मजदूरों के पलायन का सबसे दर्दनाक चेहरा यहीं क्यों दिखा? क्यों नहीं बिहार कृषि आय में अग्रणी राज्य बना? क्यों नहीं वहां किसानों की आत्महत्याएं रुकीं? कई सवाल हैं।
दूसरा कानून है- 'कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020Ó। इस कानून के संदर्भ में सरकार का कहना है कि वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच में समझौते वाली खेती का रास्ता खोल रही है। इसे सामान्य भाषा में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते है। आपकी जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराए पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा। यह तो किसानों को बंधुआ मजदूर बनाने की शुरुआत जैसी है। चलिए हम मान लेते हैं कि देश के कुछ किसान कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग चाहते हैं। लेकिन, कानून में किसानों को दोयम दर्जे का बनाकर रख दिया गया है। सबसे अधिक कमजोर तो किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसान और ठेकेदार के बीच में विवाद निस्तारण के संदर्भ में है। विवाद की स्थिति में जो निस्तारण समिति बनेगी उसमें दोनों पक्षों के लोगों को रखा तो जाएगा, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पूंजी से भरा हुआ इंसान उस समिति में महंगे से महंगा वकील बैठा सकता है और फिर किसान उसे जवाब नहीं दे पाएगा। इस देश के अधिकतर किसान तो कॉन्ट्रैक्ट पढ़ भी नहीं पाएंगे।
कितना समर्थ है किसान
कानून के अनुसार पहले विवाद कॉन्ट्रैक्ट कंपनी के साथ 30 दिन के अंदर किसान निपटाए और अगर नहीं हुआ तो देश की ब्यूरोक्रेसी में न्याय के लिए जाए। नहीं हुआ तो फिर 30 दिन के लिए एक ट्रिब्यूनल के सामने पेश हो। हर जगह एसडीएम अधिकारी मौजूद रहेंगे। धारा-19 में किसान को सिविल कोर्ट के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। कौन किसान चाहेगा कि वह महीनों लग कर सही दाम हासिल करे? वह तहसील जाने से ही घबराते हैं। उन्हें तो अगली फसल की ही चिंता होगी।
तीसरा कानून है-'आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020Ó। यह न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि आमजन के लिए भी खतरनाक है। अब कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी। सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है? खुली छूट। यह तो जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देने जैसा है। सरकार कानून में साफ लिखती है कि वह सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में रेगुलेट करेगी। सिर्फ दो कैटेगरी में 50 प्रतिशत (होर्टिकल्चर) और 100 प्रतिशत (नॉन-पेरिशबल) के दाम बढ़ने पर रेगुलेट करेगी नहीं बल्कि कर सकती है की बात कही गई है। सरकार कह रही है कि इससे आम किसानों को फायदा ही तो है। वे सही दाम होने पर अपनी उपज बेचेंगे। लेकिन यहां मूल सवाल तो यह है कि देश के कितने किसानों के पास भंडारण की सुविधा है? हमारे यहां तो 80 प्रतिशत तो छोटे और मझोले किसान हैं।
आवश्यक वस्तु संशोधन कानून, 2020 से सामान्य किसानों को एक फायदा नहीं है। इस देश के किसान गोदाम बनवाकर नहीं रखते हैं कि सही दाम तक इंतजार कर सकेंगे। सरकारों ने भी इतने गोदाम नहीं बनवाएं हैं। किसानों को अगली फसल की चिंता होती है। तो जो बाजार में दाम चल रहा होगा उस पर बेच आएंगे। लेकिन, फायदा उन पूंजीपतियों को जरूर हो जाएगा जिनके पास भंडारण व्यवस्था बनाने के लिए एक बड़ी पूंजी उपलब्ध है। वे अब आसानी से सस्ती उपज खरीदकर स्टोर करेंगे और जब दाम आसमान छूने लगेंगे तो बाजार में बेचकर लाभ कमाएंगे।
किसान को सहारे की जरूरत
सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा कर चुकी है। यह देश के 14 करोड़ कृषि परिवारों का सवाल है। शांता कुमार समिति कहती है कि महज 6 फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ उठा पाते हैं। बाकी 94 फीसदी बाजार और बिचौलियों पर ही निर्भर रहते हैं। अन्य क्षेत्रों की तुलना में कृषि क्षेत्र आय असमानता को सबसे अधिक देख रहा है। इसलिए किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार दिए जाने की जरूरत है। कोई उनकी फसल उससे नीचे दाम पर न खरीदे। अगर कोई खरीदता है तो उस पर कानूनी कार्रवाई हो और सरकार या संबंधित व्यक्ति उसकी क्षतिपूर्ति करे। यह कितना विचारणीय विषय है कि जो किसान देश के 130 करोड़ आबादी का पेट भर रहा है, आज वह अपनी उपज का सही दाम भी हासिल नहीं कर पाता है। देश के किसी किसान या किसान संगठन ने कभी ऐसे कानूनों की मांग नहीं की थी। किसान और कृषि संगठनों की मांग हमेशा एमएसपी और उसका सी2 के आधार पर निर्धारण, कर्ज मुक्त किसान और 100 प्रतिशत फसल खरीदी की रही है।
यह कानून सिर्फ किसानों के ऊपर थोपा जा रहा है। यह एक संवैधानिक प्रश्न भी है। कारण है कि कृषि राज्य और केंद्र दोनों का विषय है और यह समवर्ती सूची में आता है। एपीएमसी कानून को पारित करना राज्यों का अधिकार है। इसलिए यह कानून तो असंवैधानिक भी हो सकता है। यह भारत के फेडरल स्ट्रक्चर (संघवाद) को कमजोर करने वाला कानून है। सरकार बाजार आधारित कृषि के लिए काम कर रही है न कि देश के 14 करोड़ किसान परिवारों के लिए।
दुनियाभर से किसानों को समर्थन
आज सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच से किसान आंदोलन को दुनियाभर में बसे भारतीयों का जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। इसमें अमेरिका, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों में बसे या गए भारतीय शामिल हैं। विदेश में मौजूद आप्रवासी किसानों के समर्थन में ऑनलाइन अर्जियों पर दस्तखत कर रहे हैं। ब्रिटेन के 36 सांसदों ने वहां के विदेश सचिव डॉमिनिक राब को साझा पत्र लिखा कि भारत खासकर पंजाब और दिल्ली के मुहाने पर जुटे व्यापक किसान आंदोलन के प्रति ब्रितानी नागरिकों की चिंताओं को उचित मंच पर उठाया जाए। कनाडा में बड़ी संख्या में मौजूद पंजाबी मूल के वोटरों के मद्देनजर प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भारत में चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में बयान जारी करने वाले दुनिया के पहले नेताओं में हैं। उन्होंने 4 दिसंबर को दोबारा किसानों का समर्थन दोहराया, 'कनाडा हमेशा दुनिया के किसी भी कोने में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करता रहेगा। बातचीत की कोशिशों को देखकर हमें खुशी है।Ó भारत ने कड़ी आपत्ति जारी की कि कनाडा के प्रधानमंत्री की ये टिप्पणियां दोनों देशों के रिश्ते में खटास पैदा कर सकती हैं। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 7 दिसंबर को कोविड-19 महामारी की रोकथाम की रणनीति तैयार करने के मकसद से कनाडा के नेतृत्व में विदेश मंत्रियों की बैठक का बहिष्कार किया। कनाडा के भारतवंशियों में पंजाब के मजबूत सांस्कृतिक संबंधों का ही असर था कि 5 दिसंबर को पुराने टोरंटो में भारतीय दूतावास के सामने किसानों के समर्थन में हजारों की संख्या में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया।
संसद ने किसानों के लिए 3 नए कानून बनाए हैं
2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे के साथ सरकार ने किसानों के लिए तीन नए कानून बनाए हैं। पहला है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020। इसमें सरकार कह रही है कि वह किसानों की उपज को बेचने के लिए विकल्प को बढ़ाना चाहती है। किसान इस कानून के जरिए अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे। निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे। लेकिन, सरकार ने इस कानून के जरिए एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। इसके जरिए बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है। बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं। लेकिन किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि हर बदलाव को सुधार नहीं कहा जा सकता है। कुछ विनाश का कारण भी बन सकते हैं। देश ने ऐतिहासिक सुधार के नाम पर नोटबंदी को झेला और भयावह परिणाम देखने को मिले। इस एक कदम से लाखों नौकरियां और सैकड़ों जिंदगियां खत्म हो गईं। जीएसटी को भारत की आर्थिक आजादी के रूप में दिखाया गया। दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का दावा किया गया। जीएसटी आधी रात में आ तो गया। लेकिन, कभी जीडीपी को ऊपर नहीं बढ़ा पाया। अलग से अर्थव्यवस्था को और नीचे लेकर चला गया। कोविड-19 से लड़ने के नाम पर पूरे देश में महज 4 घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन किया गया। 21 दिन की अभूतपूर्व लड़ाई बताई गई। कोरोना तो खत्म नहीं हुआ। लेकिन, हजारों प्रवासी मजदूरों की जिंदगियां देश की सड़कों पर खत्म हो गईं। लाखों नौकरियां चली गईं। अर्थव्यवस्था निगेटिव हो गई। अब इतिहास बनाने के नाम पर किसानों को चुना गया है। सदन में तमाम हो-हल्ले के बीच किसानों की नई आर्थिक आजादी की कहानी लिखी जा चुकी है। एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने द्वारा लाए गए सुधारों को नई आजादी के रूप में प्रचारित किया है। लेकिन, सच कितना है, इसे लेकर कई सवाल हैं। कानून को लेकर किसान जिस तरह आंदोलन पर अड़े हुए हैं, उससे एक बात तो साफ है कि वे कानून को हर हाल में निरस्त कराना चाहते हैं। किसानों का कहना है कि सरकार तीन नए कानूनों को खत्म कर दे, तो हम अपने घर वापस चले जाएंगे। उनको आशंका है कि इन कानूनों के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बनकर रह जाएंगे। अब देखना यह है कि किसान और सरकार के बीच में चल रही यह लड़ाई किस मुकाम पर पहुंचकर खत्म होती है।
किसानों को मोहरा बना रहे राजनीतिक दल
देश के किसानों के हितों और उनकी स्थिति में सुधार को लेकर जितना काम बीते पांच-छह साल में हुआ है, उतना उससे पहले कभी नहीं हुआ। खेती-किसानी की लागत कम करने से लेकर उनके लिए बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए केंद्र की भाजपा सरकार की तरफ से निरंतर कदम उठाए जा रहे हैं। इन दिनों जिन तीन कृषि कानूनों को लेकर पंजाब के कुछ किसान संगठनों द्वारा आंदोलन किया जा रहा है, दरअसल वे भी किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार के उद्देश्य से ही लाए गए हैं, लेकिन कांग्रेस और कुछ अन्य दल राजनीतिक स्वार्थ के चलते इनका विरोध कर रहे हैं। वास्तव में आज की तारीख में ये सभी दल अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं और जनता का विश्वास उन पर से उठ चुका है। इसलिए मुद्दों से विहीन ये पार्टियां कृषि कानूनों को मुद्दा बनाकर अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश में किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही हैं। जबकि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के नेतृत्व में इन्हीं दलों ने कृषि और मंडी कानूनों में बदलाव की शुरुआत की थी, जिसे मौजूदा सरकार ने केवल परिणति तक पहुंचाया है। अगर 2014 से पूर्व मंडी कानून में बदलाव किसानों के हित में थे तो 2020 में ये किसान विरोधी कैसे हो गए?
अपनी शर्तों पर सौदा करने में सक्षम होंगे किसान
तकरीबन यही स्थिति मंडी कानून में हुए बदलाव को लेकर भी है। मंडी कानून में बदलाव कर सरकार की मंशा किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए अधिक विकल्प प्रदान करना है, ताकि किसान अपनी फसलों की बिक्री के लिए केवल मंडी के आढ़तियों पर आश्रित न रहें। इससे किसान न केवल अपनी फसलों के लिए बेहतर मूल्य हासिल कर सकेंगे, बल्कि अपनी शर्तों पर सौदा करने में सक्षम भी होंगे। खुद कांग्रेस ने 2004 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद मंडी कानून में बदलाव पर चर्चा शुरू की और इसे किसानों के लिए फायदेमंद बताया था। आज इस मुद्दे पर केंद्र सरकार पर निशाना साधने वाले शरद पवार का राज्यों के साथ 2010 और 2011 में हुआ पत्र-व्यवहार इस बात का गवाह है कि उस वक्त की कांग्रेस सरकार मंडी कानून यानी एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन समिति) एक्ट में बदलाव के लिए राज्य सरकारों पर दबाव बना रही थी। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उस वक्त इस आशय का एक मॉडल कानून भी राज्यों को भेजा था। विभिन्न संगठनों समेत इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा की प्रक्रिया भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ही शुरू की थी। इसी तरह विपक्षी दल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर भी किसानों को भड़का रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस प्रावधान के तहत किसानों को अपनी पैदावार का सौदा ही कंपनियों के साथ करना है, जमीन का नहीं। ऐसे में उनकी जमीन छिनने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
किसान आंदोलन का इतिहास
कहते हैं, इतिहास अपने को दोहराता है। आज से करीब 32 साल पहले 1988 में 25 अक्टूबर से नवंबर की शुरुआत तक लगभग हफ्ते भर दिल्ली में किसानों की ऐसी ही घेरेबंदी देखी गई थी। तब भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के करिश्माई नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में लगभग पांच लाख किसानों ने 35 मांगों की भारी-भरकम फेहरिस्त के साथ बोट क्लब पर लगभग कब्जा जमा लिया था, जिससे कुछ गज की दूरी पर सत्ता-केंद्र नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के साथ संसद भवन है। तब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने ही वाला था। खासकर पश्चिमी उप्र से आए किसानों की बड़ी मांगों में गन्ने की ज्यादा कीमत, बिजली और पानी के शुल्क से मुक्ति जैसे अहम मुद्दे थे। भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में यह गोलबंदी इतनी बड़ी थी कि विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक का पूरा लंबा-चौड़ा इलाका किसानों से पटा पड़ा था। भारतीय किसान यूनियन के उस आंदोलन पर गहरा शोध करने वाली प्रोफेसर जोया हसन कहती हैं, 'टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन दिवंगत राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ अहम ताकत का प्रदर्शन था। तब कांग्रेस भारी बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज थी। हालांकि, प्रो. हसन कहती हैं, 'फिर भी भाकियू तब मोटे तौर पर पश्चिमी उप्र तक सीमित एक क्षेत्रीय ताकत ही थी। उसके विपरीत मौजूदा किसान आंदोलन बड़े पैमाने पर पूरे देश के फलक पर फैला है और उसकी मांगें भी अधिक महत्वाकांक्षी हैं।
- राजेंद्र आगाल