मप्र में कुपोषण एक ऐसा कलंक है, जिसे खत्म करने के लिए सरकार हर साल हजारों करोड़ रुपए खर्च करती है, लेकिन कुपोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इसकी मुख्य वजह यह है कि कागजों में ही कुपोषण से जंग लड़ी जा रही है। इस कारण सरकार की योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इससे कुपोषण के मामले घटने की बजाय बढ़ रहे हैं। किसी देश का भविष्य कैसा होगा, यह उसके बच्चों के भविष्य पर निर्भर होता है। लेकिन जब विकास का आधार ही कुपोषित हो तो सोचिए वह देश के भविष्य में कितना योगदान देगा। क्या होगा, जब देश के लगभग 58 फीसदी नौनिहालों (6 से 23 माह के बच्चों) को पूरा आहार ही न मिलता हो और जब 79 फीसदी के भोजन में विविधता की कमी हो। कैसे पूरे होंगे, उनके सपने जब लगभग 94 फीसदी के भोजन में विकास के लिए जरूरी पोषक तत्व ही न हो। यह दुखद और चिंताजनक आंकड़ें भारत सरकार द्वारा किए गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (2016-18) में सामने आए थे।
मप्र के आदिवासी अंचलों में तो स्थिति सबसे अधिक खराब है। सरकार की लाख कोशिश के बावजूद अफसर कागजों में कुपोषण के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं। प्रदेश में 40 हजार से ज्यादा कुपोषित बच्चे हैं। अधिकारी इन दिनों सुपोषण अभियान भी चला रहे हैं। मैदानी अधिकारियों के पेंच कसे जा रहे हैं। बच्चों को एनआरसी सेंटरों तक लाने में फोकस किया जा रहा है लेकिन मैदानी हकीकत एकदम अलग हैं। कोरोनाकाल में मैदानी अधिकारियों ने भी कुपोषित बच्चों से दूरियां बना ली। स्थिति यह है कि पिछले चार माह में जिला अस्पतालों सहित ब्लॉकों में संचालित पोषण पुनर्वास केंद्र में कुपोषित बच्चों को भर्ती ही नहीं कराया गया।
पोषण पुनर्वास केंद्रों में बच्चों को भर्ती न होने पर अधिकारी अब परिजनों द्वारा न भेजने की दलील दी जा रही है। महिला बाल विकास विभाग का कहना है कि कोरोना के चलते परिजन बच्चों को भेजना नहीं चाह रहे हैं लेकिन मैदानी अमला परिजनों को यह समझा नहीं पा रहा है कि पोषण पुर्नवास केंद्र में कुपोषित बच्चों के लिए हर प्रकार की सुविधा मौजूद है व कोरोना संक्रमण के बीच कोई खतरा नहीं है। इसके बावजूद भी पुनर्वास केंद्रों पर बच्चों को भर्ती नहीं किया जा रहा है। वहीं पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन की ओर से कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी है। जबकि जिन बच्चों का विकास नहीं हो रहा है, उनकी संख्या 39.3 फीसदी, जल्दी थक जाने वाले बच्चों की संख्या 15.7 फीसदी, कम वजनी बच्चों की संख्या 32.7 फीसदी, अनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 59.7 फीसदी, 15 से 49 साल की अनीमिया पीड़ित महिलाओं की संख्या 59.7 फीसदी और अधिक वजनी बच्चों की संख्या 11.5 फीसदी पाई गई है।
हालांकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के कुल मामलों में 1990 के मुकाबले 2019 में कमी आई है। 1990 में यह दर 2336 प्रति एक लाख थी, जो 2019 में 801 पर पहुंच गई है, लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों के मामले में मामूली सा अंतर आया है। 1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी जो कि 2019 में 2.2 फीसदी घटकर, 68.2 पर ही पहुंच पाई है। यह चिंता का एक बड़ा विषय है, क्योंकि इससे पता चलता है कि पिछले सालों में किए जा रहे अनगिनत प्रयासों के बावजूद देश में कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है। इससे निपटने के लिए समय-समय पर अनगिनत सरकारी योजनाएं चलाई गई हैं। जिससे इस बीमारी को समाज से दूर किया जा सके। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ऐसी ही एक पहल थी, जिसका लक्ष्य देश के गरीब तबके को सस्ती दर पर भोजन मुहैया कराना था। देश में पीडीएस सबसे बड़ी कल्याणकारी योजना है, जो गरीब परिवारों को रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराती है।
जर्नल बीएमसी में छपे इस शोध में यह जानने का प्रयास किया गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) गरीब तबके के बच्चों में स्टंटिंग और कुपोषण की समस्या को हल करने में कितनी कामयाब हुई है। शोध से पता चला है कि देश में जो गरीब तबका पीडीएस से बाहर है उस वर्ग के बच्चों में कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है। यह शोध राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस-4) के आंकड़ों पर आधारित है।
पीडीएस के तहत अनाज वितरण में खामी
गरीबी, कुपोषण और पीडीएस के बीच के संबंध को समझने के लिए सभी परिवारों को चार वर्गों में बांटा गया है। पहला वह वर्ग है जिसे वास्तविक गरीब कहा गया है जो आर्थिक रूप से गरीब है और जिनके पास बीपीएल कार्ड है। दूसरा वह वर्ग है जो गरीब तो है पर उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं है। तीसरा वह वर्ग है जो आर्थिक रूप से समृद्ध है इसके बावजूद उसके पास बीपीएल कार्ड है। चौथा वह वर्ग है जो न तो गरीब है न ही उसके पास योजनाओं का लाभ उठाने के लिए बीपीएल कार्ड है। शोध से प्राप्त नतीजों के अनुसार वह वर्ग जो वास्तविकता में गरीब है और जिसके पास बीपीएल कार्ड भी है उसके और दूसरा वर्ग जो गरीब है पर उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं है उस वर्ग के करीब आधे बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। वहीं दूसरी ओर जो वर्ग आर्थिक रूप से समृद्ध है और जिसके पास बीपीएल कार्ड है उसके करीब 40 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। जबकि आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग जिसके पास कार्ड नहीं है उसके करीब एक तिहाई से कम बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।
- रजनीकांत पारे