एक मोदी समर्थक, शिवसेना का संभावित सहयोगी, एनसीपी के लिए एक उपयुक्त सहयोगी, संभावनाएं ढूंढ़ता एक राजनेता और हिंदुत्व का पैरोकार। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे ने अपनी पार्टी का चुनावी भविष्य तलाशने की कवायद के दौरान पिछले दो वर्षों में तमाम प्रयोग किए हैं। अब जबकि मुंबई के निकाय चुनावों में 16 महीने बाकी रह गए हैं, मराठी गौरव का अपना चिरपरिचित और आजमाया हुआ राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ाने के साथ ठाकरे एक और राजनीतिक फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं- अपने चाचा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की तरह ही एक ऐसा 'गॉडफादरÓ बनना जो लोगों की समस्याओं को सुनता है और उन्हें सुलझाता है।
पिछले महीने ठाकरे मुंबई के डब्बावालों, शहर के मछुआरों, पुस्तकालय प्रतिनिधियों और महिला सेल्फ हेल्प ग्रुप जैसे कई समूहों की परेशानियां जानने और उन्हें राज्य सरकार तक पहुंचाने के लिए विभिन्न प्रतिनिधिमंडलों से मिले। एमएनएस के नेता सोशल मीडिया पर इन बैठकों का जिक्र शिवाजी पार्क स्थित ठाकरे के आवास के संदर्भ में 'कृष्णकुंजवर न्याय मिलतो (कृष्णकुंज में न्याय मिलता है)Ó और 'मनसे डंका (मनसे का असर)Ó जैसे हैशटैग के साथ करते हैं, यह ठाकरे को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित करता है जो जरूरतमंदों की आवाज उठाता है और उन्हें न्याय दिलाता है। पार्टी के नेता स्थानीय दुकानों और बड़ी कंपनियों तक यह संदेश पहुंचाने में भी जुट गए हैं कि मराठी में लेनदेन करें। पार्टी सूत्रों का कहना है कि मनसे फरवरी 2022 में होने वाले बृहन्मुंबई नगर निगम चुनाव के लिए अभी से जमीन तैयार करने में जुट गई है। मनसे के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि मुंबई में शिवसेना के पारंपरिक मतदाता, अगड़ी जाति के मराठी, संभ्रांत वर्ग, पार्टी के भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने और प्रतिद्वंदियों कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बाद से उससे छिटक गए हैं। मतदाताओं का शिवसेना से मोहभंग होना हमारे लिए एक अच्छा मौका है।
राजनीतिक टिप्पणीकार हेमंत देसाई का मानना है कि व्यापक परिदृश्य में तो राज ठाकरे अभी यह तय ही नहीं कर पाए हैं कि क्या राजनीतिक रुख अपनाएं। देसाई ने कहा, 'पूरे कोरोना संकट के दौरान न तो उन्होंने सख्ती के साथ शिवसेना की आलोचना की और न ही भाजपा की ओर झुकाव माने जा रहे अपने नए रुख के अनुरूप हिंदुत्ववादी एजेंडे पर ही मजबूती से आगे बढ़ते दिखे। लेकिन मुंबई में निकाय चुनाव उनका तात्कालिक लक्ष्य है। पार्टी अब शिवसेना के मराठी जनाधार पर नजर गड़ाए हुए है जिसकी छवि कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद ज्यादा धर्मनिरपेक्ष मानी जाने लगी है।
मनसे ने पिछले तीन साल में खुद को स्थापित करने की कवायद में कई बार अपने राजनीतिक रुख में अप्रत्याशित बदलाव किए हैं। 2017 के बीएमसी चुनाव के दौरान पार्टी ने अपनी प्रतिद्वंदी शिवसेना को मुंबई में बिना शर्त साथ चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया। हालांकि, शिवसेना ने इस प्रस्ताव को कोई तवज्जो नहीं दी। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे ने प्रधानमंत्री मोदी की तीखी आलोचना करनी शुरू कर दी जबकि 2014 में उन्होंने उनकी उम्मीदवारी का पुरजोर समर्थन किया था। यहां तक कि उन्होंने एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के साथ नजदीकियां बढ़ाना तक शुरू कर दिया। 2018 में ठाकरे ने पुणे में पवार के साथ एक सार्वजनिक संवाद आयोजित किया, औरंगाबाद-मुंबई की उड़ान के दौरान एक घंटे तक उनकी मुलाकात चली और साथ ही एनसीपी प्रमुख के साथ उनकी कुछ अनौपचारिक बैठकें भी हुईं।
2019 की शुरुआत में ठाकरे ने एक संभावित गठबंधन पर पिछले दरवाजे से बातचीत के सिलसिले में एनसीपी नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार के साथ बैठक भी की थी। हालांकि, एनसीपी नेता मनसे को साथ लेने को तैयार थे लेकिन कांग्रेस नेताओं ने यह कहते हुए मुखर रूप से इसका विरोध किया कि ऐसी पार्टी को शामिल करने का सवाल ही नहीं उठता जो मुंबई की उत्तर भारतीय आबादी, जो कांग्रेस का प्रमुख वोट बैंक है, के खिलाफ उग्र रवैया दर्शाती रही है। पार्टी ने अंतत: 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा लेकिन तथ्यों और शोध के आधार पर पत्रकारिता वाली राह अपनाते हुए भाजपा के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाकर अपनी छाप छोड़ी। मनसे ने उस साल विधानसभा चुनाव लड़ा और जनता के सामने खुद को एक मजबूत विश्वसनीय विपक्ष के रूप में पेश किया लेकिन उसे केवल एक सीट से ही संतोष करना पड़ा।
मनसे का गिरता ग्राफ
2006 में अपने पुत्र उद्धव को उत्तराधिकारी बनाने के बाल ठाकरे के फैसले के बाद राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़कर मनसे का गठन किया था। इसने शुरू में 'मराठी मानुषÓ और 'मराठी गौरवÓ की विचारधारा को शिवसेना की तुलना में ज्यादा आक्रामक ढंग से अपनाकर तात्कालिक सफलता हासिल की और एक समय तो दादर और माहिम के जैसे गढ़ उससे छीनने में सफल रही। 2009 के लोकसभा चुनावों में इसने 11 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें से कोई भी जीता तो नहीं लेकिन पार्टी कई सीटों पर शिवसेना का समीकरण बिगाड़ने वाले दल के रूप में सामने आई। उसी साल विधानसभा चुनाव में मनसे ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ा और अपने इस पहले प्रयास में उसके 13 विधायक महाराष्ट्र विधानसभा पहुंचे। हालांकि, इसके तुरंत बाद पार्टी की किस्मत की बाजी पूरी तरह उलट गई। 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 10 उम्मीदवार मैदान में उतारे, सभी की जमानत तक जब्त हो गई। उसी साल विधानसभा चुनावों में पार्टी ने बड़ी अपेक्षाओं के साथ 288 में से 219 सीटों पर किस्मत आजमाई जिसमें से सिर्फ एक प्रत्याशी जीता और 209 सीटों पर जमानत जब्त हो गई। 2019 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में हाथ न आजमाने का फैसला किया, उसने 101 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ा और एक बार फिर सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल कर पाई।
- बिन्दु माथुर