03-Apr-2020 12:00 AM
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बिहार की सियासत में जाति एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन पूरी तरह नहीं। जातीय जनगणना के लिए विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजने वाले बिहार की राजनीति में जातियों के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। बिहार में सवा दो सौ से ज्यादा जातियां हैं, लेकिन इनमें मुख्य तौर पर 10-12 ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेती हैं। टिकट के लिए मारामारी भी इन्हीं के बीच होती है। अन्य जातियों का स्थान दर्शक दीर्घा में होता है। एक सच यह भी है कि आजादी से अब तक राज्य की 20 जातियों के प्रतिनिधि ही संसद तक पहुंच सके हैं। बाकी को सांसद बनने का मौका तक नहीं मिला है। हां, विधानसभा में यह फलक थोड़ा ही बड़ा है।
जातीय जनगणना के सहारे अपने वोट बैंक में इजाफे की उम्मीद लगाने वाले दलों को यह आंकड़ा सबक देगा कि पिछले लोकसभा चुनाव में भी बड़े दलों ने सिर्फ 21 जातियों को ही टिकट के लायक समझा। यह बिहार में जातियों की कुल संख्या का महज 10 फीसदी है। यानि 90 फीसदी को टिकट का हकदार नहीं माना गया। करीब 200 जातियां हैं, जिनका प्रतिनिधित्व अभी तक किसी सदन में नहीं हो सका है। राजनीतिक विश्लेषक अजय कुमार कहते हैं कि बिहार को जातीय चश्मे से देखने वाले अपने फलक को बड़ा कर लें। अगर ऐसा होता तो जॉर्ज फर्नांडीज, मीनू मसानी, जेबी कृपलानी और मधु लिमये जैसे बाहरी नेताओं को बिहार से संसद जाने का मौका नहीं मिल पाता। बिहार के वोटरों ने उनकी जाति नहीं, संभावनाएं देखकर अपना प्रतिनिधि चुना। श्रीकांत की पुस्तक बिहार में चुनाव, जाति और बूथ लूट के आंकड़े बताते हैं कि 1952 से अब तक यादव, ब्राह्मïण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार, कुर्मी, कोइरी, बनिया, कहार, नाई, धानुक, नोनिया, मल्लाह, विश्वकर्मा, पासवान, मांझी, पासी, रविदास, मुस्लिम और ईसाई समुदाय से ही सांसद चुने गए हैं। बाकी को इंतजार है।
बिहार की राजनीति हमेशा से अलग रही है। यहां की राजनीति में जाति का गणित काफी अहम है और एक कड़वी सच्चाई है कि चुनाव के अंतिम दिन विकास पर जाति का समीकरण भारी पड़ता है। इसलिए राजनीतिक दल इसी जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवार उतारते हैं। बिहार की राजनीति का विश्लेषण करने वालों के मुताबिक हर दशक में अलग-अलग जातियां चुनावी दिशा को तय करती हैं। 1977 तक बिहार की सियासत में सवर्णों का बोलबाला रहा लेकिन बाद के वर्षों में सवर्णों की जगह दलित और पिछड़ी जातियों ने ले ली और अब राजनीति भी दलित और पिछड़ों के इर्द-गिर्द तक सिमट कर रह गई है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कभी राजनीति के शीर्ष में अहम भूमिका निभाने वाला सवर्ण समुदाय अब राजनीति में सिर्फ रस्म अदायगी भर की होकर गई है। श्रीकृष्ण सिंह, दीप नारायण सिंह, बिनोदानंद झा, केदार पांडेय, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्र वो नाम हैं जिन्होंने बिहार में मुख्यमंत्री पद के तौर पर राज किया और ये सभी सवर्ण समुदाय से हैं।
अप्रैल 1946 से 1977 तक बिहार में (कुछ समयों को छोड़कर) सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री रहे। इसी से समझा जा सकता है कि बिहार की राजनीति में सवर्ण तबका कितना प्रभावशाली था और कैसे सत्ता का चक्र इनके इशारों पर चलता रहा। 1977 के बाद बिहार की राजनीति से सवर्ण समुदाय का वर्चस्व खत्म होने लगा और मंडल कमीशन के बाद सवर्ण समुदाय की भूमिका काफी सीमित हो गई। जगन्नाथ मिश्रा बिहार के सवर्ण जाति से अंतिम मुख्यमंत्री थे।
1990 में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने और तब से लेकर अब तक बिहार में पिछड़ी या ओबीसी समुदाय से ही मुख्यमंत्री हैं। जहां लालू प्रसाद यादव की पहचान सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर होती है वहीं नीतीश कुमार की पहचान बिहार को विकास की नई पहचान देने वाले सीएम के तौर पर होती है। राष्ट्रीय जनता दल में सवर्ण चेहरा माने जाने वाले शिवानंद तिवारी का कहना है कि ऐसा नहीं है कि बिहार में सवर्ण कोई फैक्टर नहीं हैं और उदारीकरण के दौर में जातियों का बंधन टूटा। सवर्ण जातियों को छोड़कर दूसरी जातियों में ये बात घर करने लगी है कि जिसकी जितने भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। शिवानंद तिवारी के मुताबिक, मध्यम वर्ग में अधिकतम संख्या सवर्ण समुदाय की होती है और जैसे-जैसे उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का प्रभुत्व बढ़ता गया सवर्ण समुदाय ने खुद को ड्राइंग रूम की राजनीति में समेट लिया। बिहार में फिलहाल जनता दल यूनाइटेड, एलजेपी और भारतीय जनता पार्टी की संयुक्त सरकार है।
जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन के मुताबिक, बिहार में जातिगत राजनीति जितना लालू यादव ने किया है उतना किसी ने नहीं किया। उन्होंने कहा कि, नीतीश कुमार सामाजिक न्याय के साथ विकास की बात करते हैं। दूसरी ओर आंकड़ें बताते हैं कि सवर्ण समुदाय का परंपरागत रूझान कांग्रेस से शिफ्ट होकर भाजपा की तरफ हो गया है और ये आज की तारीख में भाजपा का बड़ा राजनीतिक आधार है। हालांकि भाजपा प्रवक्ता अजीत चौधरी के मुताबिक, पार्टी जातिगत राजनीति में भरोसा नहीं करती है।
बिहार को लेकर नजरिया बदलने की जरूरत
चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था एडीआर के बिहार प्रमुख राजीव कुमार जाति के आधार पर वोट की तलाश करने वाले दलों को आगाह करते हैं। वे कहते हैं कि बिहार को लेकर नजरिया बदलने की जरूरत है। जाति सबसे ऊपर होती तो कर्पूरी ठाकुर, श्रीबाबू और नीतीश कुमार को इतनी प्रतिष्ठा नहीं मिलती, क्योंकि उक्त तीनों नेता जिस-जिस जाति का प्रतिनिधित्व करते आए हैं, उनकी संख्या बहुत कम है। लालू प्रसाद को कुछ हद तक इसलिए कामयाबी मिल गई कि उन्होंने जातियों का समीकरण बनाया था। लेकिन वोटरों की मानसिकता बदली तो उन्हें भी हाशिये पर जाते देर नहीं लगी। जाहिर है, सबको सड़क, बिजली, पानी और बुनियादी सुविधाएं चाहिए। सुशासन चाहिए ताकि बेटियां घर से पढ़ने निकलें तो समय से सकुशल लौटें।
- विनोद बक्सरी