20-Oct-2020 12:00 AM
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चु नाव आयोग ने बहुप्रतीक्षित बिहार चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है। 28 अक्टूबर से 7 नवंबर तक तीन चरणों में मतदान होगा, जबकि 10 नवंबर को मतगणना होगी। खास बात है कि चुनाव दशहरा बाद और दीपावली से पहले होंगे। यानी त्यौहारों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इस बार नीतीश कुर्सी बरकरार रख लेते हैं, तो वह बतौर लोकप्रिय मुख्यमंत्री गुजरात के नरेंद्र मोदी, ओडिशा के नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल के ज्योति बसु के रिकॉर्ड की बराबरी कर लेंगे। फिलहाल एनडीए में सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है। अभी अंतिम रूप से तय नहीं है कि स्व. रामविलास पासवान की एलजेपी गठबंधन में है या बाहर। जीतनराम मांझी पहले ही महागठबंधन छोड़ चुके हैं और उन्हें उनके हिस्से की सीटें भी मिल गई हैं।
राज्य की सियासत में जातिगत समीकरण हमेशा से प्रभाव रखते रहे हैं। एनडीए और महागठबंधन एक-एक सीट पर जाति का गणित देखकर चुनावी जमावट बना रहे हैं। लालू यादव पिछड़े वर्गों, मुस्लिमों और यादवों के समर्थन से सत्ता में आए थे, जो राज्य की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा हैं। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व वाले जनता दल सरकार ने ओबीसी आरक्षण दिया, जिससे पार्टी ने बिहार में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। जातिगत समीकरण को संतुलित कर लालू 15 वर्षों तक सत्ता में बने रहे। उनके मुस्लिम-यादव संयोजन, जिसे एमवाई कहा जाता है, उनके लिए सत्ता की कुंजी साबित हुआ। हालांकि यादवों को अधिक महत्व देने से पिछड़ी जातियों का लालू से मोहभंग हो गया।
साल 2005 में नीतीश कुमार और सुशील मोदी ने जातिगत समीकरणों की नए सिरे से जमावट की और लालू सरकार को जंगल राज बताते हुए उसे खत्म कर दिया। नीतीश कुर्मी समुदाय से आते हैं, जो राज्य की आबादी का 4 प्रतिशत हैं। उन्होंने दो वोट बैंक बनाए, एक को महादलित और दूसरे को अति पिछड़ी जाति ठहराया। उन्होंने दोनों के लिए विशिष्ट योजनाएं तैयार कीं, जिससे सत्ता तो मिली ही, लोकप्रियता भी बढ़ी। इन दोनों श्रेणियों में राज्य की आबादी का 34 प्रतिशत हिस्सा है। हालांकि 15 प्रतिशत आबादी वाले सामान्य वर्ग को ये रास नहीं आया, जिसका असर 2010 के विस और 2019 के लोकसभा चुनावों में दिखाई देता है।
एनडीए में पासवान के अलावा दलित वोटों (6 प्रतिशत) को भी लाया गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 54.3 प्रतिशत वोट शेयर मिला, जो उसके आधार (लगभग 34 प्रतिशत+15 प्रतिशत+6 प्रतिशत) के बराबर था। इधर, लालू यादव की आरजेडी मुस्लिम और यादव का संयोजन बनकर रह गई है, जिसकी आबादी 31 प्रतिशत है। जब मुकाबले सीधे हो रहे हों, तो ये आंकड़े जीतने में मददगार नहीं हो सकते। ऐसे में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने 2019 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ 28.3 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया। 2005 और 2010 के विस चुनावों में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन का वोट शेयर क्रमश: 31 और 26 प्रतिशत था। 2014 के लोकसभा चुनाव में ये आंकड़ा 30 प्रतिशत था।
2015 के विस चुनाव इस मायने में खास थे कि आरजेडी के गठबंधन में जेडीयू भी थी। नीतीश एनडीए छोड़ चुके थे। नीतीश के आने से महागठबंधन ने 43 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किए थे। वैसे देखा जाए तो बिहार में कई पार्टियों ने अक्सर सहयोगी बदले हैं। जेडीयू 2010 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ थी, तो 2014 के लोकसभा में अकेले, 2015 में विस चुनाव में आरजेडी के साथ, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ हो गई। हालांकि, जातिगत समीकरणों का प्रभाव इतना गहरा है कि पार्टियों के बदलते रूख के बावजूद उनके समर्थक जाति वर्ग स्थिरता रखते हैं। यानी जो जाति, वर्ग, समुदाय जिसके साथ रहा है, उसके साथ ही रहेगा, हां थोड़ा बदलाव होता रहता है। जैसे सवर्ण भाजपा के साथ, तो कुर्मी-कोइरी जेडीयू के साथ, वहीं यादव हमेशा आरजेडी के समर्थन में दिखेंगे। महापिछड़ा वर्ग जेडीयू और भाजपा के साथ होते हैं। एलजेपी को दलित का साथ मिलता रहा है।
2014 में जब जेडीयू ने अकेले चुनाव लड़ा, तो उसका वोट शेयर घटकर 16 प्रतिशत रह गया था, जो महापिछड़ा, कुर्मियों और महादलित वोटों का लगभग आधा है। भाजपा और उसके साथी ने अन्य जाति को साथ बनाए रखा और उच्च जाति व दलितों के साथ उसने 39 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया। इस साल भी चुनाव में जातिगत समीकरणों का प्रभाव होना ही है। ऐसे में एनडीए और महागठबंधन की तरफ से एक-एक सीट पर समीकरणों को ध्यान में रखकर प्रत्याशी के नाम तय होंगे, जिनकी सूची जल्द ही हम सबके सामने होगी। शुरुआती जनमत सर्वेक्षणों में एनडीए को दो-तिहाई बहुमत के संकेत हैं। विपक्ष को करिश्माई लालू यादव की याद आ रही है, जो फिलहाल जेल में हैं। वहीं रामविलास पासवान के निधन के बाद जदयू के लिए रास्ता साफ हो गया है।
बिहार के चुनाव में दिखेगा कई विषयों का प्रभाव
बिहार के चुनाव में कई विषयों का प्रभाव देखने को मिलेगा। इसमें नेतृत्व रेटिंग भी एक विषय है। मतदाताओं के लिए लीडरशिप रेटिंग मायने रखती है। 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की शानदार जीत के बाद ऐसी प्रवृत्ति सामने आई है, जिसमें पूरा चुनाव एक चेहरे के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। बिहार में जाति का गणित भी देखने को मिलेगा। नीतीश ने सोशल री-इंजीनियरिंग के जरिए बिहार से लालू राज को उखाड़ फेंका था। उन्होंने लालू की पार्टी के एमवाय (मुस्लिम-यादव) वोटबैंक को कम करने उच्च जाति, गैर यादव ओबीसी और दलितों का व्यापक सामाजिक गठबंधन बनाया था। ये देखना होगा कि उनके बेटे इस एमवाय टैग से कैसे निकलकर नए जातिगत समीकरण तैयार कर पाते हैं। इसके लिए उन्हें अन्य जाति और समुदाय समूहों को ज्यादा मौके देने होंगे। एनडीए को ऐसे जाति समूहों का समर्थन है, जो राज्य की आबादी का 60 प्रतिशत हैं, जबकि महागठबंधन के पास 40 प्रतिशत है। इसे वोट शेयर में देखें तो 75 प्रतिशत में से एनडीए को 45 और महागठबंधन को 30 प्रतिशत वोट शेयर मिलता है।
- विनोद बक्सरी