मौजूदा दलबदल कानून राजनीतिक और दलगत सुचिता की हिफाजत करने में नाकाम साबित हो रहा है। मौकापरस्ती और येन-केन-प्रकारेण सत्ता की मलाई खाने वाली राजनीति भारतीय समाज पर सिर चढ़कर बोल रही है। यह मतदाताओं के साथ छल है। ऐसी ठगी को रोकना संसद और सरकार की जिम्मेदारी है।
नरेंद्र मोदी क्या इंदिरा गांधी की तरह विपक्ष को नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं? इंदिरा गांधी के बाद मोदी दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने पूर्ण बहुमत से दोबारा सत्ता पाई है। रोजगार, आर्थिक विकास जैसे मुद्दों पर पिछड़ने के बाद भी नरेंद्र मोदी एक शक्तिशाली नेता के रूप में स्थापित हुए हैं। उन्होंने विपक्ष को इतना शक्तिहीन बना दिया है कि वह चुनौती देने के काबिल भी नहीं। बिखरे हुए विपक्ष को धराशायी करना मोदी के लिए और आसान हो गया है। संसद के मौजूदा बजट सत्र में नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के सारे सवालों का आत्मविश्वास से जवाब देकर एक बार फिर अपनी क्षमता साबित की है। वे विपक्ष की परवाह किए बिना उसी तरह सख्त फैसले ले रहे हैं जैसे कि इंदिरा गांधी लेती थीं।
नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कुशलता के सामने राहुल गांधी टिक नहीं पाए। उनकी इस नाकामी से विपक्षी मोर्चाबंदी और कमजोर हो गई। प्रसिद्ध इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक रामचंद्र गुहा नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचक हैं। लेकिन उन्हें भी कहने पर मजबूर होना पड़ा कि राहुल गांधी में मोदी को टक्कर देने की काबिलियत नहीं है। उन्होंने राहुल गांधी को यूरोप में छुट्टियां मनाने वाला नेता बताया तो मोदी को बेहद मेहनती इंसान कहा। गुहा ने कहा था, मोदी के फैसलों को गलत ठहराया जा सकता है लेकिन उन्होंने शासन के लिए जो मेहनत और अनुशासन दिखाया है वह काबिले तारीफ है। अगर राहुल गांधी जैसे नेता को मोदी का विकल्प बताया जाएगा तो यह एक तरह से भाजपा को मजबूत करना होगा। राहुल गांधी वैसे सलाहकारों पर निर्भर हैं जिन्हें व्यवहारिक राजनीति का कोई अनुभव नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी पर व्यक्तिगत हमले की रणनीति बुरी तरह नाकाम रही। 'चौकीदार चोर है’ और राफेल के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे राहुल गांधी औंधे मुंह गिर पड़े। संसद के मौजूदा बजट सत्र में भी राहुल गांधी अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। जब नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब दिया तो कांग्रेस के राहुल गांधी और अधीर रंजन चौधरी जैसे नेता निरुत्तर हो गए।
बढ़ती लोकप्रियता और सत्ता की ताकत शासक को निरंकुश बना देती है। इंदिरा गांधी भी 1971 में प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनी थीं। उन्होंने अपने तमाम विरोधियों के कस-बल ढीले कर दिए थे। नतीजा ये हुआ कि देश की जनता को आपातकाल में जुल्म सहने पड़े। नरेंद्र मोदी एक के बाद एक सख्त फैसले ले रहे हैं। उनको भी चुनौती देने वाला कोई नहीं। क्या सत्ता की परम शक्ति से एक दिन नरेंद्र मोदी भी डिक्टेटर बन जाएंगे? एक मजबूत विपक्ष ही किसी सरकार को निरंकुश होने से रोक सकता है। लेकिन मौजूदा राजनीति में विपक्ष की वही स्थिति है जो नेहरू काल में थी। आजादी के बाद कांग्रेस लोगों के दिलो-दिमाग में रची-बसी थी। इसकी वजह विपक्षी दलों को बहुत कम सीटें मिलती थीं। चार चुनावों तक हालत ये थी कि कोई नेता प्रतिपक्ष भी नहीं बन पाया। आजादी के 22 साल बाद भारत में किसी लीडर को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिला था। बिहार के सांसद रामसुभग सिंह 1969 में पहली बार नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर बैठे थे। 2014 और 2019 में भी विपक्ष खस्ताहाल है। कांग्रेस इतनी भी सीटें नहीं जीत पाई कि वह नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी हासिल कर सके। कमजोर विपक्ष लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के कद्दावर नेता शिवराज सिंह चौहान ने एक बार कहा था कि वो कमलनाथ सरकार को कभी भी गिरा सकते हैं। इसका जवाब में कमलनाथ ने चुनौती देते हुए कहा था कि भाजपा में हिम्मत है तो मेरी सरकार गिराकर दिखाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाते ही कमलनाथ सरकार पर खतरे के बादल मंडराने लगे और देखते ही देखते कुछ ही दिनों में कांग्रेस की सरकार गिर ही गई। इसके पूर्व एक तरफ भाजपा ने मध्यप्रदेश के अपने विधायकों को हरियाणा में ठहरा रखा था तो कांग्रेस ने अपने विधायक राजस्थान में। पिछले पखवाड़े से कमलनाथ सरकार के गिरने के कयासों वाली खबरों से पहले ही राष्ट्रीय अखबार भरे पड़े थे।
इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भाजपा नेताओं पर आरोप लगाते रहे कि वो कांग्रेस के विधायकों और नेताओं की खरीद-फरोख्त में संलिप्त हैं। लेकिन देश के राजनीतिक गलियारों में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। आया राम-गया राम से शुरू हुई होर्स ट्रेडिंग का ये राजनैतिक पैंतरा बड़े स्तर पर हो रहा है। ऐसी कई राजनीतिक घटनाएं हैं जब भाजपा ने राज्यों में सरकारें गिराईं और बड़े स्तर पर दूसरी पार्टी के विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल किया।
साल 2016 में भाजपा अरुणाचल प्रदेश में कमल खिलाने में कामयाब रही, वो भी तब जब 60 सदस्यीय विधानसभा में उसके पास केवल 11 विधायक थे। दरअसल भाजपा ने मुख्यमंत्री पेमा खांडू के नेतृत्व वाली पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) के 43 में से 33 विधायक तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिए। 44 विधायकों के बहुमत के साथ भाजपा ने प्रदेश में अपनी सरकार बना ली। लेकिन इसके पीछे भी कई राजनीतिक घटनाक्रम हुए थे। पीपीए अध्यक्ष काहफा बेंगिया ने पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाते हुए पेमा खांडू समेत अन्य पांच विधायकों को पार्टी की सदस्यता रद्द कर दी थी। जिसके बाद भाजपा ने खांडू और बाकी विधायकों को अपने पाले में ले लिया। नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार में सहयोगी पीपीए ने पहले टकाम पेरियो को मुख्यमंत्री के पद के लिए चुना लेकिन अगले ही दिन राजनीतिक समीकरण बदल गए। विधायकों ने टकाम की जगह खांडू को मुख्यमंत्री का चेहरा चुन लिया।
साल 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 16 सीटें जीतकर गोवा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। भाजपा को इस चुनाव में केवल 14 सीटें हासिल हुईं लेकिन इसके बावजूद भाजपा निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाने में कामयाब रही। इस बात की चौतरफा आलोचना हुई कि कायदे से बहुमत मिलने वाली पार्टी को सरकार बनाने का दावा पेश करने दिया जाना था। लेकिन वरिष्ठ भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने पार्टी के कदम को सही ठहराते हुए कहा था, 'सरकारिया कमीशन के मुताबिक कांग्रेस को पहले क्लेम करना चाहिए था। लेकिन गोवा में कांग्रेस रातभर सोई रही। 'गोवा की राजनीति में उथल-पुथल यहीं नहीं थमी। इसके ठीक दो साल बाद कांग्रेस के दो तिहाई विधायक (15 में से 10) भाजपा ने तोड़ लिए। इसके साथ ही भाजपा के विधायकों की संख्या 27 पहुंच गई। भाजपा का ये राजनीतिक पैंतरा सिर्फ गोवा तक ही सीमित नहीं रहा है।
2017 के मणिपुर विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ था। मणिपुर की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 28 सीटें हासिल हुई थीं और भाजपा को 21 सीटें। बहुमत के लिए किसी भी पार्टी को 31 सीटों की जरूरत थी। मगर इसी बीच भाजपा ने 32 विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। लेकिन इस पर भी भाजपा नेता रविशंकर ने टिप्पणी करते हुए कहा था, 'कांग्रेस ने आज तक मणिपुर में सरकार बनाने का दावा नहीं किया है।’ मणिपुर में एन बीरेन सिंह को मणिपुर के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई। गौरतलब है कि वो एक साल पहले ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। मणिपुर, गोवा और अरुणाचल के अलावा सबसे ज्यादा चर्चित अखबारों द्वारा छापी गई 'कर्नाटक में नाटक’ थी जिसे देश के उदारवादी तबके ने लोकतंत्र का मजाक उड़ाना भी कहा।
जुलाई 2019 में कर्नाटक की राजनीति में चले इस हाई वोल्टेज ड्रामे के साक्षी पूरे देश की जनता बनी। होर्स ट्रेडिंग ने नए आयाम भी छुए। गौरतलब है कि 2018 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस को 80 सीटें मिली थीं और जेडीएस को 37 सीटें। दूसरे राज्यों में जनमत और बहुमत का उदाहरण देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस बार भाजपा से पहले ही सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। कांग्रेस ने ये जेडीएस के समर्थन से किया।
हालांकि गवर्नर ने भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण भेजा था। लेकिन भाजपा बहुमत नहीं साबित कर पाई। इस बीच कांग्रेस और जेडीएस सरकार बनाने में कामयाब रही। गठबंधन ने कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन कुछ दिन के बाद ही विधानसभा के 11 विधायकों (8 कांग्रेस और 3 जेडीएस) ने इस्तीफा दे दिया। कुमारस्वामी इस दौरान लगातार भाजपा पर विधायक खरीदने के आरोप लगाते रहे। आखिरकार कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिराकर भाजपा इस राज्य में भी सरकार बनाने में कामयाब रही।
साल 2019 में सिक्किम में पिछले 25 सालों से शासन चला रही सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) के 10 विधायक रातों-रात भाजपा में शामिल करा लिए गए। वो भी तब जब 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा यहां से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। लेकिन यहां भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी। हालांकि विधायकों के इस दल बदलू कदम की बड़े स्तर पर आलोचना हुई क्योंकि जनता ने भाजपा को केवल 1.62 प्रतिशत वोट देकर नकार दिया था।
दलबदल से भाजपा भी महफूज नहीं
दलबदलू जमात से भाजपा भी महफूज नहीं है और यदि वो आज खुद को सुरक्षित महसूस कर रही है, तो उसे नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र में कैसे 25 साल पुराने मित्र-दल शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा और चुनाव के बाद पाला बदल लिया। भाजपा के अलावा कांग्रेस और आरजेडी को भी नहीं भूलना चाहिए कि कैसे नीतीश कुमार ने जनादेश की अनदेखी कर उनको गच्चा दिया था। ये बात अलग है कि हाल के वर्षों में भाजपा को दलबदल रूपी ठगी का सबसे ज्यादा फायदा मिला है। अब मध्य प्रदेश में भी कमलनाथ सरकार को गिराकर भाजपा ने कर्नाटक, गोवा, गोवा, मणिपुर और अरूणाचल की तरह अपनी सरकार बना ली, लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता है कि जैसे दिन आज कांग्रेस को देखने पड़ रहे हैं, वैसी ही नौबत कल को भाजपा को नहीं झेलनी पड़ेगी।
क्षेत्रिय क्षत्रप भी कमजोर
नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी और मायावती जैसी मजबूत क्षेत्रीय नेताओं के पांवों तले जमीन खिसका दी है। पश्चिम बंगाल में भाजपा अब दूसरी सबसे बड़ी शक्ति बन गई है। नरेंद्र मोदी से आर-पार की लड़ाई लड़ने वाली ममता के कमजोर होने से भाजपा के विस्तार की संभावना बढ़ गई है। पूर्वोत्तर में असम और त्रिपुरा में वह पहले से ही सत्ता में आ चुकी है। अगर पश्चिम बंगाल में भी भाजपा को सत्ता मिल गई तो मोदी की ताकत और बढ़ जाएगी। उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश मिलकर भी मोदी को जवाब नहीं दे पाए। अब ये अलग-अलग लड़कर कौन-सा करिश्मा कर लेंगे? पूर्वी भारत में नवीन पटनायक ही कुछ हद तक भाजपा को रोक पाए हैं लेकिन वे मोदी के प्रति मध्यमार्ग अपनाते रहे हैं। कांग्रेस के साथ दिक्कत ये है कि जिन राज्यों में उसकी सरकारें हैं वहां भी वे मोदी को रोक नहीं पा रहे हैं। लोकसभा चुनावों में सिर्फ दक्षिण के राज्य ही मोदी के लिए अवरोध हैं।
- दिल्ली से रेणु आगाल