03-Sep-2020 12:00 AM
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कोरोना संक्रमण के कारण मप्र सहित देशभर में बेरोजगारी बढ़ी है। सरकारी नौकरियों का टोटा तो पहले से ही था, अब प्राइवेट सेक्टर भी दगा दे रहे हैं। ऐसे में मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की है कि अब प्रदेश के सरकारी विभागों में निकलने वाली नौकरी केवल प्रदेशवासियों को ही मिलेगी। लेकिन क्या यह घोषणा हकीकत में बदल पाएगी? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि इस व्यवस्था को लागू करने में सरकार के सामने कई बाधाएं आएंगी। गौरतलब है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी घोषणा की थी कि प्रदेश के निजी क्षेत्रों में 70 फीसदी प्रदेश के युवाओं को नौकरी दी जाएगी, लेकिन इसका पालन नहीं हो सका।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब प्रदेश की सभी सरकारी नौकरियों को केवल वहां के मूलनिवासियों के लिए आरक्षित करने की बात कही, तो स्वाभाविक तौर पर इस घोषणा पर तीखी प्रतिक्रिया आई और बहस शुरू हो गई। आरक्षण पर भारत में लंबी कानूनी बहस और कई अदालती फैसले आ चुके हैं। लेकिन 'सकारात्मक कार्रवाई और मूलनिवासी आरक्षणÓ की समानताओं और उनमें भेद पर सवाल खड़े होते रहते हैं। इसकी वजह संवैधानिक व्यवस्था है। दरअसल, संविधान का अनुच्छेद 16(1) भारत के सभी नागरिकों के लिए नियुक्तियों और रोजगार में अवसरों की समानता की बात करता है। अनुच्छेद 16(2) यह भी तय करता है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग, जाति, धर्म, भाषा, जन्मस्थल आदि के आधार पर किसी रोजगार या पद पर नियुक्ति में भेदभाव नहीं हो सकता, इन आधारों पर उसे अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन अनुच्छेद 16(3) इन नियमों के संबंध में अपवाद की बात करता है। इसके मुताबिक, संसद कोई ऐसा कानून बना सकती है, जिसमें किसी सार्वजनिक पद या रोजगार में नियुक्ति के लिए किसी खास इलाके में निवास स्थान होना जरूरी हो सकता है।
यह ऐसी ताकत है, जो स्पष्ट तौर पर संसद में निहित है, ना कि राज्य विधानसभा में। इसका मतलब हुआ कि सार्वजनिक रोजगारों में जन्मस्थल के आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण को दिए जाने का अधिकार सिर्फ भारत की संसद को है, ना कि कोई राज्य ऐसा करने में सक्षम है। इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि अनुच्छेद 19(1) के तहत, भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में रहने और वहां बसने का अधिकार है। साथ में भारत के नागरिक के तौर पर, किसी भी राज्य के किसी भी सार्वजनिक दफ्तर में उनके जन्मस्थल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। आखिर संविधान किस तरह के सकारात्मक कदम का प्रबंधन करता है और कैसे यह समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के जरिए सकारात्मक कार्रवाईयों का प्रावधान किया जाता है। इनसे राज्य को उच्च शिक्षण संस्थानों और नियुक्तियों में सामाजिक, शैक्षिक पिछड़े वर्गों या फिर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से आने वालों के लिए विशेष प्रावधानों के जरिए आरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार मिलता है। यह वह समुदाय होते हैं, जिनका राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में जरूरी प्रतिनिधित्व नहीं होता। इस व्यवस्था के पीछे समान लोगों के लिए समान मौके और कुछ कमजोर तबकों के लिए आरक्षित मौकों की व्यवस्था किए जाने का विचार है।
सामान्य तौर पर सुप्रीम कोर्ट इस तरह के आरक्षण के खिलाफ रहा है। प्रदीप जैन बनाम् भारत संघ के मामले में कोर्ट ने पाया कि मूलनिवासियों के लिए आरक्षण दिया जाना संविधान का उल्लंघन है। लेकिन कोर्ट ने इसके खिलाफ कोई तय फैसला नहीं दिया, क्योंकि यहां मामला समता के अधिकार से जुड़ा था। कोर्ट ने अपने परीक्षण में कहा कि ऐसा करना प्राथमिक तौर पर संविधान के हिसाब से सही नहीं लगता, हालांकि कोर्ट ने इस पर कोई तय नजरिया व्यक्त करने से इनकार कर दिया। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनंदा रेड्डी बनाम् आंध्रप्रदेश राज्य मामले में भी प्रदीप जैन केस के फैसले को ही बरकरार रखा गया और तेलुगू माध्यम में परीक्षा देने वाले बच्चों के लिए 5 फीसदी ज्यादा नंबर वाले प्रावधान को रद्द कर दिया।
हाल में हरियाणा कैबिनेट ने एक अध्यादेश पारित किया है, जिसके कानून बन जाने के बाद प्राइवेट नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 75 फीसदी आरक्षण हो जाएगा। 2008 में महाराष्ट्र ने राज्य सरकार से मदद लेने वाले उद्योगों में 80 फीसदी आरक्षण स्थानीय लोगों के लिए करने का प्रस्ताव रखा था, हालांकि इसे लागू नहीं किया गया। इसी तरह गुजरात में भी 1995 में स्थानीय लोगों के लिए 85 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया था। हालांकि ना तो निजी क्षेत्र और ना ही सार्वजनिक क्षेत्र में इस नीति को लागू किया गया। ऐसे में मप्र सरकार की घोषणा पर भी संदेह जताया जा रहा है।
स्थानीय लोगों की भर्तियों पर आरक्षण की नीतियां
महाराष्ट्र में, जो भी कोई राज्य में 15 या उससे ज्यादा सालों तक रह चुका हो, उसे सरकारी नौकरियों में आवेदन करने की छूट है। बशर्तें वह मराठी में धाराप्रवाह हो। तमिलनाडु में भी इसी तरह का एक भाषायी टेस्ट होता है। इन आरक्षणों का कानूनी आधार सार्वजनिक दफ्तरों की आधिकारिक भाषा है, जो सरकारी नौकरियों के क्रियान्वयन के लिए बेहद जरूरी है। पश्चिम बंगाल में भी कुछ पदों के लिए भाषा परीक्षा ली जाती है, हालांकि सामान्य तौर पर वहां सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। उत्तराखंड में तीसरे और चौथे दर्जे की सरकारी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित हैं। मेघालय में खासी, जयंतिया और गारो जनजातियों के लिए समग्र तौर पर 80 फीसदी स्थानीय नौकरियों में आरक्षण है, जबकि अरुणाचल प्रदेश में 80 फीसदी नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण है।
- रजनीकांत पारे