गठबंधन ऐसे ही चलता है!
20-Oct-2020 12:00 AM 1103

 

भारतीय लोकतंत्र के भीड़ भरे बाज़ार में बेशुमार पार्टियां हैं। लेकिन भाजपा अकेली राष्ट्रीय पार्टी है जिसे विचारधारा और पॉलिटिक्स के आधार पर अलग से पहचाना जा सकता है। उसके पास कुछ ऐसा है जो बाकी पार्टियों के पास नहीं है। मार्केटिंग की भाषा में भाजपा के पास यूएसपी यानी यूनिक सेलिंग प्वायंट या प्वायंट्स हैं। इस यूएसपी के सहारे भाजपा ने भारतीय राजनीति में वो जगह बना ली है जिसकी वजह से ये कहा जा सकता है कि हम भाजपा सिस्टम यानी भाजपा के वर्चस्व वाली राजनीति के दौर में प्रवेश कर चुके हैं या करने वाले हैं। ये दौर लंबा चल सकता है।

अकाली दल को शिकायत है कि भाजपा अब पहले वाली भाजपा नहीं रह गई है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के समय सहयोगी पार्टियों को जैसा सम्मान मिलता था, वैसा सम्मान अब नहीं मिलता है। अकाली दल ने जैसे ही यह शिकायत की, शिवसेना ने आगे बढ़कर उसका समर्थन किया। पर क्या सचमुच भाजपा का मौजूदा नेतृत्व यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहयोगी पार्टियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं और उनके बर्ताव की वजह से शिवसेना और अकाली दल एनडीए से बाहर हुए हैं? यह पूरी तरह से सच नहीं है। असल में गठबंधन की राजनीति पार्टियों की हैसियत और उनकी जरूरत से चलती है, जिस पर विचारधारा का झीना सा परदा डाला जाता है। गठबंधन में जब नेतृत्व करने वाली पार्टी बहुत मजबूत हो जाती है तो वह सहयोगियों को महत्व देना कम कर देती है। सहयोगियों की पूछ घटने की दूसरी स्थिति यह होती है कि सहयोगी पार्टी कमजोर हो जाए या उसकी जरूरत समाप्त हो जाए। एक तीसरी स्थिति होती है, जब सहयोगी पार्टियों की महत्वाकांक्षा बहुत बढ़ जाए या उसके सामने मजबूरी आ जाए तब गठबंधन टूटता है।

असल में गठबंधन की राजनीति पार्टियों की आपसी जरूरत और उनकी राजनीतिक ताकत पर टिकी होती है। सभी पार्टियों को इस हकीकत को जानना और समझना चाहिए। उन्हें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अमुक नेता बहुत भले थे तो उन्होंने बड़ा सम्मान दिया या अमुक नेता निजी तौर पर बहुत अहंकारी हैं इसलिए उन्होंने सहयोगियों का सम्मान नहीं किया। राजनीति में नेता के निज व्यवहार का कोई खास मतलब नहीं होता है। इसे सिर्फ एक मिसाल से समझा जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए अगर निज व्यवहार में कोई नेता सबसे करीबी हो सकता है तो वे लालू प्रसाद हैं, जिन्होंने सोनिया को देश की बहू बताकर विदेशी मूल के मुद्दे पर हमेशा उनका बचाव किया। पर 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 206 सीट जीत गई और लालू प्रसाद की पार्टी को सिर्फ पांच सीटें मिलीं तो कांग्रेस और सोनिया गांधी ने लालू प्रसाद को घास तक नहीं डाली।

यह सही है कि चुनाव से पहले लालू प्रसाद ने अपनी महत्वाकांक्षा में एकतरफा तरीके से कांग्रेस से तालमेल खत्म कर लिया था। पर उसके बाद तो लालू दिल्ली में सोनिया से लेकर हर कांग्रेसी के दरबार में भटकते रहे थे और निराश होकर कहा था कि 'अब समझ में आया कि दिल्ली में सिर्फ ताकत की पूजा होती है।Ó जब उनके पास 25 सांसद थे तब उनके हिसाब से यूपीए सरकार चलती थी, जब उनके पांच रह गए तो किसी ने नहीं पूछा। तब लालू प्रसाद खुद चुनाव जीतकर आए थे और जिन रघुवंश प्रसाद को मनरेगा मैन कहा जा रहा है और जिनके निधन पर कांग्रेस के नेता आठ-आठ आंसू रोए वे भी जीतकर आए थे पर कांग्रेस ने राजद को यूपीए में लेकर लालू या रघुवंश प्रसाद को मंत्री बनाने की जरूरत नहीं समझी। लालू प्रसाद की पार्टी राजद अब भी यूपीए का हिस्सा है पर 2009 से 2014 तक जब कांग्रेस मजबूत रही और सत्ता में रही तब उसने लालू की पार्टी को यूपीए में नहीं रखा। सो, गठबंधन की राजनीति नेताओं के निज व्यवहार से नहीं, बल्कि पार्टियों की ताकत और जरूरत के हिसाब से चलती है।

ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहयोगी पार्टियों और उनके नेताओं के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। उनका अच्छा बर्ताव इस बात से तय होता है कि सहयोगी पार्टी की उनको कितनी जरूरत है और सहयोगी पार्टी कितनी मजबूत हैं। याद करें कैसे पिछले लोकसभा चुनाव में दो सांसदों वाली पार्टी जनता दल यू को भाजपा ने अपने बराबर सीटें दी थीं। नीतीश कुमार 2014 में अकेले चुनाव लड़कर दो सीट की हैसियत में आए थे। पर 2019 के चुनाव में बिहार की 40 सीटों के बंटवारे में भाजपा और जदयू 17-17 सीटों पर लड़े। तब से लेकर अभी तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोहराते रहते हैं कि नीतीश ही बिहार में एनडीए के नेता हैं और इस बार भी विधानसभा का चुनाव भाजपा उनके चेहरे पर ही लड़ रही है। सोचें, नीतीश कुमार का निज व्यवहार नरेंद्र मोदी के प्रति कैसा रहा था। नीतीश ने उनके नाम पर एनडीए छोड़ा था और मोदी ने उनके डीएनए में खोट बताया था पर आज दोनों एक-दूसरे का 'सम्मानÓ कर रहे हैं। असल में यह कोई सम्मान नहीं होता है, एक-दूसरे की जरूरत होती है, जो कभी भी खत्म हो सकती है।

शिवसेना और अकाली दल दोनों इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि अटल-आडवाणी की भाजपा अलग थी। वह अलग इसलिए थी क्योंकि भाजपा उस समय 183 सीटों की पार्टी थी और वाजपेयी की सरकार दो दर्जन सहयोगी पार्टियों पर निर्भर थी। आज वह 303 सीट की पार्टी है और किसी पर निर्भर नहीं है। सो, अगर उसके नेताओं की सोच और सहयोगियों के प्रति उनका बर्ताव बदला है तो वह नेता के निजी चारित्रिक गुणों के कारण नहीं हुआ है, बल्कि इस आंकड़े के कारण हुआ है कि भाजपा आज किसी पर निर्भर नहीं है। इसके बावजूद आज भी जहां जरूरत पड़ती है वहां पार्टी के 56 इंची छाती वाले नेता भी समझौता करते हैं, सहयोगियों की शर्तें मानते हैं और उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी भी देते हैं। और जो लोग अटल-आडवाणी की भाजपा को बेहतर बता रहे हैं क्या उनको याद नहीं है कि उस समय भी सहयोगी पार्टियां भाजपा को छोड़कर गई थीं!

आज शिवसेना और अकाली दल को शिकायत है पर असलियत यह है कि शिवसेना ने अपना मुख्यमंत्री बनाने की जिद में गठबंधन तोड़ा और अकाली दल ने किसान वोट की मजबूरी में एनडीए छोड़ा है। परंतु एक फैशन बन गया है कि सबका ठीकरा मोदी-शाह के निज व्यवहार पर फोड़ना है। जैसे मोदी-शाह के कारण ही एनडीए बिखर रहा है! अगर ऐसा है तो अटल-आडवाणी के समय क्यों एनडीए बिखरा था? डीएमके से लेकर तृणमूल कांग्रेस और टीडीपी से लेकर नेशनल कॉन्फे्रंस तक अनगिनत पार्टियां क्यों भाजपा से अलग हो गई थीं? ऐसे ही 145 सीट वाली कांग्रेस ने 2004 में यूपीए बनाया तो डेढ़ दर्जन सहयोगी पार्टियां साथ थीं पर 2009 में जब उसे 206 सीटें आईं तो उसने सहयोगियों के साथ क्या किया? उसने तो अपने सहयोगियों को ही पकड़कर जेल में डाल दिया और 2014 आते आते दो-चार को छोड़कर बाकी सारे सहयोगी यूपीए छोड़ गए।

असल में राजनीति में सबकी अपनी जरूरतें होती हैं, अपनी उपयोगिता होती है और अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। राष्ट्रीय पार्टियों की अपनी जरूरतें होती हैं और क्षेत्रीय पार्टियों के अपने हित होते हैं। सबकी राजनीति अपनी जरूरतों और अपने हितों से परिभाषित होती हैं और उसी से गठबंधन तय होते हैं। उसके लिए किसी एक नेता को या किसी एक पार्टी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। दूसरे, गठबंधन की राजनीति कभी भी एकतरफा नहीं होती है। यह हमेशा दोतरफा प्रक्रिया है और जब तक दोनों के हित पूरे होते रहेंगे, तभी तक गठबंधन बना रह सकता है। अगर पार्टियां इस राजनीतिक वास्तविकता को समझने लगेंगी तो नेताओं को दोष देना बंद कर देंगी।

संभवत: इस गठबंधन के स्थायित्व में उनका जोखिम ज्यादा था। उनकी चिंता यह भी थी कि उनके अपने प्रभाव क्षेत्र को भाजपा की सेंध से कैसे बचाया जाए? 22 वर्षों के इस सफर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अनेक उतार-चढ़ाव तय किए हैं, लेकिन भाजपा के वर्तमान राजनीतिक वर्चस्व ने इस गठबंधन को अब क्षेत्रीय दलों की मजबूरी बना दिया है। यदि महाराष्ट्र के अपवाद को छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रीय दल ऐसे भी नजर आते हैं, जो भविष्य में इस गठबंधन से जुड़ने के लिए लालायित रहेंगे। देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में अन्य कोई राजनीतिक दल या गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को चुनौती देता नजर नहीं आ रहा। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह गठबंधन वाजपेयी की भाजपा को बहुत बड़ी देन है। 1999 से लेकर 2014 तक तीन सरकारों ने अपने पांच वर्षों के कार्यकाल को पूरा किया। इस दृष्टि से देश में राजनीतिक स्थिरता रही, लेकिन इन सभी गठबंधन सरकारों की राजनीतिक प्रकृति यह थी कि क्षेत्रीय दलों का बोलबाला बहुत अधिक बढ़ गया।

22 साल पहले बना था राजग

केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) 1998 में अस्तित्व में आया था। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में बने इस गठबंधन में भाजपा के साथ समता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना मुख्य तौर पर शामिल थे। हालांकि, तब अन्य दलों को जोड़कर इसमें 13 सदस्य थे। समता पार्टी के संस्थापक जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर अब कांग्रेस के पाले में जा चुके शरद यादव और तेलुगू देशम पार्टी प्रमुख चंद्र बाबू नायडू भी इसके संयोजक रह चुके हैं। देश में गैर कांग्रेसी सरकार के खिलाफ एक प्रयास था। इस गठबंधन ने 1998 से लेकर 2004 तक केंद्र में सरकार चलाई। दूसरी पाली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 से राजग की सरकार चल रही है। खास बात यह है कि एक समय ऐसा भी आया, जब राजग में 35 दल शामिल रहे। आज भी पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे दलों को मिलाकर डेढ़ दर्जन दल राजग में शामिल हैं। वाजपेयी के समय ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक व बीजू जनता दल भी राजग का हिस्सा रह चुके हैं। तेलुगू देशम पार्टी मोदी और शाह के समय भी राजग में रही है।

एनडीए का ही रुतबा रहेगा

वैसे राजनीतिक गठबंधन पहले भी बने थे, लेकिन चाहे 1967 के चुनाव के बाद के गठबंधन हों या फिर 1977 के चुनाव से पहले का प्रयोग, ये दोनों ही अल्पकालीन तथा राजनीतिक पैमानों पर असफल प्रयास रहे। वास्तव में वर्तमान भारतीय राजनीति में 1989 के उपरांत गठबंधनात्मक सरकारों का एक नया चरण प्रारंभ हुआ, लेकिन विगत तीन दशाब्दियों का यह चरण एक समान नहीं रहा है। इसमें अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। इसीलिए हम गठबंधन के इस दौर को दो भागों में विभाजित करके देख सकते हैं। पहला भाग 1989 से लेकर 1999 तक का रहा जबकि केवल दस वर्षों के अंतराल में देश को पांच आम चुनावों का सामना करना पड़ा और इस दौरान सात सरकारें बनीं और बिगड़ीं। विश्लेषण की सुविधा के उद्देश्य से हम इस समय को 'अस्थिर गठबंधन सरकारों का दौरÓ कह सकते हैं। लेकिन इन दस वर्षों के दौरान जो राजनीतिक मंथन हुआ, उसके परिणामस्वरूप देश की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में एक नया ध्रुवीकरण आया। यह ध्रुवीकरण 'मंडल, मंदिर और मार्केटÓ के परस्पर संघर्ष का परिणाम था, जिसने हमारी राजनीतिक व्यवस्था को एक नई दिशा प्रदान की।

- दिल्ली से रेणु आगाल

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