दोराहे पर खड़ी बसपा
21-Mar-2020 12:00 AM 960

 

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। मध्य जनवरी की गुनगुनी धूप और सर्द हवाओं की ठिठुरन के बावजूद समाजवादी पार्टी के लखनऊ मुख्यालय में जबरदस्त सियासी गरमी दिख रही थी। किसी रैली जैसे माहौल में उत्साही कार्यकर्ताओं की भीड़ के बीच मंच से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री रामप्रसाद चौधरी के साथ कई पूर्व विधायकों और विधायकी का चुनाव लड़ चुके नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने का ऐलान किया। इनमें से कुछ नाम निश्चित रूप से उल्लेखनीय हैं, जैसे पूर्व विधायक दूधनाथ, जितेंद्र कुमार, उमेश पांडे, अनिल कुमार और बसपा के प्रत्याशी रहे कबीर चौधरी। आमतौर पर ऐसे ‘पालाबदल’ कार्यक्रम चुनावों से पहले ही होते हैं। बसपा के पूर्व विधायकों से लेकर पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुखों के आने से गदगद सपा कार्यकर्ताओं का जोश उफान पर दिखा।

बसपा में इस सेंध को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की एक रणनीतिक जीत और महागठबंधन से एकतरफा नाता तोडऩे के मायावती के फैसले के खिलाफ एक संदेश के तौर पर देखा गया। लेकिन बसपा में रहे नेताओं और कार्यकर्ताओं की बेचैनी को समझने के लिहाज से यह सियासी नतीजा निकालना बड़ी भूल होगी। दरअसल, इससे एक दिन पहले ही बसपा के कुछ नेताओं ने कांग्रेस की तरफ भी रुख किया था। बलिया जिले के बसपा मंडल प्रभारी मनोज कुमार की अगुवाई में सैकड़ों लोगों ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। मनोज बसपा के मध्य प्रदेश प्रभारी भी रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का कहना है कि बसपा में दलित कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।

दोराहे पर खड़ी आज की बसपा के इस भटकाव को समझने के लिए अतीत में झांकने की जरूरत है। राजनीतिक विश्लेषक तथा वरिष्ठ पत्रकार डॉ. उत्कर्ष सिन्हा कहते हैं, ‘उप्र की राजनीति करवट ले रही है। बसपा काडर आधारित पार्टी मानी जाती है लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि क्या नेतृत्व अब काडर की आवाज सुन रहा है। फैसलों से पहले पार्टी के भीतर

‘कोई समूह’ आंतरिक विमर्श को तवज्जो देता है। पार्टी में कितना लोकतंत्र है और उसके फैसले में कार्यकर्ताओं की कितनी सहमति है, इसका जवाब पार्टी से बाहर नहीं मिलता है।’

डॉ. उत्कर्ष कहते हैं, ‘मायावती ने उत्तर प्रदेश की सियासत में नए सामाजिक समीकरण गढक़र अपनी ताकत बढ़ाई लेकिन बदलते समाज और अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज पर उनका हाथ नहीं टिक पाया। उन्होंने दलित पहचान को स्थापित किया। उस समाज के ‘आइकन’ को नई पहचान दी। दलित समाज के अज्ञात रहे महापुरुषों के नाम पर पार्क और स्मारक बनाकर उस समाज के साथ अपना खास तरह का रिश्ता कायम किया। उनके दिलों में जगह बनाई। लेकिन उसी समाज की नई पीढ़ी की महात्वाकांक्षा को पहचानने में वह चूक गईं।’ मायावती की इस कमी को पूरा करने की ओर बढ़ रहे हैं चंद्रशेखर आजाद। वह दलित समाज की नई पीढ़ी के लिए शिक्षा और सम्मान की आवाज उठाने के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में दलित समाज के उत्पीडऩ पर प्रतिक्रिया देते हैं। मायावती ने दलित समाज के राजनैतिक सशक्तिकरण की बात तो की लेकिन वह आमतौर पर दलित उत्पीडऩ की घटनाओं पर उस तरह से प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं समझतीं।

इसके अलावा उन्होंने दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम कॉम्बिनेशन बनाते हुए इन समाजों की सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर सही सामंजस्य नहीं बिठाया। कांशीराम के समय से बसपा के साथ रहे आरके चौधरी, सोनेलाल पटेल और दद्दू प्रसाद जैसे जमीनी नेताओं ने इसीलिए मायावती से किनारा कर लिया। कांशीराम का नारा हुआ करता था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ मायावती ने कांशीराम का यह मंत्र छोड़ दिया। वे नए सामाजिक समीकरण की ओर बढ़ गईं और पार्टी में धन और बल को ज्यादा ही अहमियत मिलने लगी। इन्हीं सब वजहों से वह दलित समाज से दूर होती जा रही हैं।

दरअसल, देश और प्रदेश की सियासत और सियासी धारा बदल रही है। लोगों के मुद्दे बदल रहे हैं। सियासत के प्रतिमान से लेकर उसके तौर-तरीकों में भी बदलाव आ रहा है। लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि मायावती इस बदलती सियासत को समझने में लगातार चूक कर रही हैं या सियासी मजबूरियों से घिर गई हैं? 2019 से पहले अपने पुराने जख्मों को भूलकर सपा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना उनकी सियासी मजबूरी थी या समझदारी, यह बात राजनैतिक पंडितों को समझ में आती, इससे पहले ही उन्होंने चुनाव के तत्काल बाद एक और फैसला ले लिया। बिना किसी ठोस वजह के सपा से नाता तोड़ लिया। अपने हर फैसले के पीछे तर्क गढऩे वाली मायावती ने सपा के साथ नाता तोड़ते हुए जो वजह बताई, वह उनके कार्यकर्ताओं को भी नहीं पच रही। उनका कहना था कि सपा प्रत्याशियों को तो बसपा के वोट ट्रांसफर हुए लेकिन सपा अपने वोट बसपा प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करा पाई। इधर, उप्र में विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन सपा और कांग्रेस जिस आक्रामक राजनीति में कूदती दिख रही हैं, बसपा वहां नदारद है। यह गंभीर सवाल है।

पुराने समीकरण पर नहीं कायम

सामाजिक समीकरण को साधकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चार बार पहुंचीं मायावती सियासत में सोशल इंजीनियरिंग की मास्टर माइंड मानी जाती रहीं। उनसे पहले चौधरी चरण सिंह ने अहीर-जाट-गूजर-राजपूत (अजगर) वोटों का गठजोड़ बनाकर अपनी सियासत को नई धार दी थी। लेकिन मायावती ने कांशीराम के बहुजन समाज की धारा को बदल दिया। पुराने बसपाई और कांशीराम की सियासी धारा के समर्थक पूर्व मंत्री दद्दू प्रसाद कहते हैं, च्च्मायावती ने कांशीराम के नारे को उलट दिया। उन्होंने नारा दिया, च्च्जिसकी जितनी तैयारी.. उसकी उतनी हिस्सेदारी।ज्ज् इसका सियासी मतलब यह लगाया गया, जिसकी जितनी थैली भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।ज्ज् दद्दू कहते हैं, च्च्मुझे इस बात का मलाल है कि मैं इस बदली हुई बसपा में भी देर तक... बहुत देर तक इंतजार करता रहा कि कांशीराम ने जिस मकसद के साथ पार्टी खड़ी की है, उसकी ओर हम सब बढ़ेंगे। शोषण के खिलाफ शोषितों की आवाज बनेंगे।ज्ज् लेकिन डेमोक्रेसी अब पूरी तरह नोटक्रेसी में बदल चुकी है।

- लखनऊ से मधु आलोक निगम

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