घाटी में कश्मीरी पंडितों सहित आम नागरिकों की हत्याओं ने देशभर में कोहराम मचा दिया है। कई कश्मीरी पंडित जो प्रधानमंत्री पैकेज के तहत नौकरी करने के लिए कश्मीर लौटे थे, उन्होंने हाल की घटनाओं के बाद घाटी छोड़ दी है, जिससे केंद्र सरकार की उन्हें उनकी मातृभूमि में फिर से बसाने की योजना खटाई में पड़ गई है। हालांकि केवल कश्मीरी पंडितों पर ही हमला नहीं किया गया है। आतंकवादियों ने कश्मीरी मुस्लिम नागरिकों, जम्मू और कश्मीर पुलिसकर्मियों, प्रवासी मजदूरों और जम्मू और भारत के अन्य हिस्सों के हिंदुओं को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाया है। वहीं सुरक्षा बल अब तक हत्यायों को रोकने में नाकाम रहे हैं। समझा भी जा सकता है कि उनके लिए घाटी में अल्पसंख्यक समुदाय के एक-एक सदस्य को सुरक्षित रखना आसान नहीं होगा।
जम्मू-कश्मीर सरकार के लिए चीजों को और कठिन बनाने वाली बात यह है कि एक विशेष पैकेज के तहत 4,000 पंडित कर्मचारियों की भर्ती की गई है, लेकिन हाल की घटनाओं के बाद ये सभी नए सिरे से पलायन के कगार पर हैं। इसी तरह जम्मू संभाग के विभिन्न जिलों के करीब 8,000 कर्मचारी एक अंतर-जिला स्थानांतरण नीति के तहत कश्मीर में काम कर रहे हैं और उनमें से अधिकांश गैर-मुस्लिम हैं। भले सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है, लेकिन उन्हें इस पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं मिल रहा है। पंडित कर्मचारी अब चाहते हैं कि सरकार उस बांड को रद्द कर दे, जो उन्हें अपने रोजगार के दौरान घाटी में स्थायी रूप से रहने के लिए बाध्य करता है। वे चाहते हैं कि पद (पोस्ट) को हस्तांतरणीय बनाया जाए। उत्तरी कश्मीर के बारामूला में एक हिंदू कश्मीरी पंडित कॉलोनी के अध्यक्ष अवतार कृष्ण भट्ट ने बताया कि सुरक्षा की भावना के अभाव में पंडितों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने कहा- 'कॉलोनी में रहने वाले 300 परिवारों में से लगभग आधे ने हाल ही में हुई हत्या की होड़ के बाद घाटी छोड़ दी थी।Ó कश्मीरी पंडितों ने भी जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा और कश्मीर के बाहर पोस्टिंग की मांग को लेकर दिल्ली तक विरोध प्रदर्शन किए हैं।
साल 2008 के आसपास तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने के एवज में नौकरी और वित्तीय सहायता की पेशकश की थी। पंडितों को प्रति परिवार 7.5 लाख रुपए की प्रारंभिक वित्तीय सहायता दी गई थी, जिसे बाद में घाटी में बसने वालों के लिए तीन किस्तों में बढ़ाकर 20 से 25 लाख रुपए कर दिया गया था। सरकार ने घाटी के विभिन्न हिस्सों में लौटने वाले कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए सुरक्षित, अलग-अलग एन्क्लेव बनाए। योजना सफल साबित हुई। जो पंडित कार्यरत थे और उनके परिवारों ने इन परिक्षेत्रों में निवास किया, वे मुसलमानों के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने धार्मिक/सामाजिक आयोजनों में भी शामिल हुए, लेकिन किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं।
बाहरी लोगों और अल्पसंख्यकों की हत्याएं नई दिल्ली के अनुच्छेद-370 को रद्द करने के बाद शुरू हुईं, जिसने जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर एक अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया। 5 अगस्त, 2019 को विशेष संवैधानिक पद वापस लेने के दो महीने के भीतर आतंकवादियों ने सेब व्यापार से जुड़े तीन गैर-स्थानीय लोगों को मार डाला। इसने अस्थायी रूप से घाटी के फल उद्योग को संकट में डाल दिया, जिसका सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपए है, जिसे घाटी की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। हत्याओं ने बाहर से यहां आकर काम कर रहे ट्रक ड्राइवरों और सेब व्यापारियों को पलायन के लिए मजबूर कर दिया और स्थिति को फिर सामान्य होने में समय लगा। तब ऐसी खबरें आई थीं कि उग्रवादियों ने स्थानीय फल उत्पादकों को बाहरी लोगों को काम पर नहीं रखने के लिए कहा था। हालांकि बाद में हत्याएं कम हो गईं, लेकिन आतंकी जल्द ही बिहार और भारत के अन्य हिस्सों के मजदूरों की हत्याओं के साथ फिर सक्रिय हो गए। स्थिति तब चिंताजनक हो गई, जब 31 दिसंबर, 2020 को आतंकवादियों ने एक हिंदू सुनार की हत्या कर दी। पिछले साल भी उन्होंने प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित केमिस्ट माखन लाल बिंदू की गोली मारकर हत्या कर दी। कुल मिलाकर कश्मीरी मुसलमान पिछले तीन साल में मारे गए लोगों में सबसे ज्यादा हैं। हालांकि इस तरह की हत्याओं को आमतौर पर मीडिया में अलग ही जगह मिलती है।
अल्पसंख्यकों की हत्याओं में वृद्धि ने केंद्र सरकार को घाटी में कश्मीरी पंडितों और हिंदू कर्मचारियों में भरोसा भरने के लिए कदम उठाने को मजबूर किया है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 17 मई को एक उच्च स्तरीय बैठक की, जिसमें उपराज्यपाल मनोज सिन्हा, केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला और खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के प्रमुखों ने मौजूदा स्थिति के लिए तैयारियों का जायजा लिया। घाटी और आगामी अमरनाथ यात्रा जो दो साल बाद 30 जून से शुरू होने वाली है, पर भी चर्चा हुई। साल 2020 और 2021 में कोरोना वायरस में हुई तालाबंदी के कारण तीर्थयात्रा रद्द कर दी गई थी। यात्रा में लगभग तीन लाख तीर्थ यात्रियों के भाग लेने की संभावना है, जो 11 अगस्त तक चलेगी। केंद्र सरकार अब यात्रा को सुरक्षित करने के लिए कम से कम 12,000 अर्धसैनिक बल के जवानों के साथ-साथ हजारों जम्मू-कश्मीर पुलिस जवानों को तैनात करने जा रही है।
कश्मीरी पंडित और प्रवासी मजदूर
90 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों के पलायन से पहले उनकी संख्या घाटी की आबादी का लगभग दो फीसदी थी। 90 के दशक के अंत में शोधकर्ता अलेक्जेंडर इवांस, जो बाद में भारत में ब्रिटिश उप उच्चायुक्त बन गए, के कश्मीर पर प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, '1 लाख 60-70 हजार समुदाय में से लगभग 95 फीसदी ने घाटी को छोड़ दिया, जिसे अक्सर जातीय मामले के रूप में वर्णित किया जाता है। लेकिन कश्मीर घाटी में रहने वाले छोटे अल्पसंख्यक यह निर्धारित करने में अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं कि कश्मीर किस तरह का समाज बनता है।Ó आज 3,000 से भी कम कश्मीरी पंडित घाटी में हैं। वे कभी पलायन नहीं करते थे। वे यहीं रुके थे और मुसलमानों के साथ रहते थे। हालांकि हाल के वर्षों में सरकार ने कई हजार कश्मीरी पंडितों को वापस लाया और उन्हें सरकार द्वारा निर्मित भवनों में रखा। इनमें से ज्यादातर विभिन्न विभागों में कार्यरत सरकारी कर्मचारी हैं। अगर हम केंद्र सरकार के आंकड़ों पर जाएं, तो पिछले 3 वर्षों में अधिक पंडितों ने घाटी में लौटना शुरू कर दिया था।
-जय सिंह