03-Mar-2020 12:00 AM
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दिलवालों की दिल्ली में पिछले दिनों दहशत का जो खेल खेला गया, वह सुनियोजित षड्यंत्र था। वरना जिस शहर में हमेशा 50 हजार से अधिक पुलिस बल सक्रिय रहता है, वहां हिंसा और आगजनी की वारदात इतना भयानक रूप कैसे ले सकती थी? आरोप तो यह लग रहे हैं कि घाव के नासूर बनने का इंतजार किया जा रहा था। लेकिन यह नासूर 42 जिंदगियां लील जाएगा, इसका किसी को अनुमान ही नहीं था।
जिस दिल्ली को देश की सबसे सुरक्षित जगह माना जाता है, जहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, तीनों सेनाध्यक्ष, खुफिया एजेंसियों के मुखिया रहते हों, वहां सुनियोजित तरीके से एक ऐसा षड्यंत्र बुना गया, जिसने देश के दिल को तबाह कर दिया, लेकिन किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी। आखिर इसके लिए दोषी कौन है? दिल्ली में जनसंख्या के अनुपात में पुलिसबलों की संख्या काफी कम है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महज 1484 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले दिल्ली शहर में 84,000 से ज्यादा पुलिसबल है, जिसमें करीब 50,000 पुलिसबल हमेशा सक्रिय और सेवा में रहता है। क्या इतने बड़े पुलिसबल को भी 5 से 6 कालोनियों में भड़की दंगों को काबू में करना मुश्किल था? वह भी तब जब उत्तर पूर्व दिल्ली की इन चार-पांच कालोनियों को छोड़कर पूरी दिल्ली में शांतिपूर्ण माहौल था। देश के दिल में हुआ यह षड्यंत्र सरकार के लिए एक बड़ा सबक है।
राजधानी दिल्ली में हुई हिंसा और आगजनी डरावनी और चिंताजनक है। सुनियोजित साजिश के बिना इतने व्यापक पैमाने पर हिंसा नहीं हो सकती। दिल्ली में स्थिति बिगाडऩे के संकेत तभी मिलने आरंभ हो गए थे जब जाफराबाद में सड़क को घेरकर धरना आरंभ किया गया। इससे साफ हो गया था कि जगह-जगह शाहीन बाग पैदा करने की तैयारी हो रही है। जब एक समूह ने इसके विरोध में मौजपुर में धरना दिया तो उस पर पथराव किया गया और वहीं से स्थिति बिगडऩे लगी। शाहीन बाग की तरह ही यहां भी पुलिस की विफलता स्पष्ट है। पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करेंगे तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि धरना के समानांतर हिंसा, आगजनी और दंगों की भी तैयारी की गई थी। आखिर इतनी संख्या मेंं लोग पत्थरबाजी कैसे करने लगे?
आखिर इस कदर हिंसा हुई कैसे?
बीती 23 फरवरी से राजधानी दिल्ली में शुरू हुई हिंसा में इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक 42 लोगों की मौत हो चुकी थी और 300 से अधिक घायल लोग अस्पतालों में भर्ती हैं। पुलिस ने 167 एफआईआर दर्ज की है और 885 लोगों को गिरफ्तार किया है। हालात काबू में करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल को दे दी गई है। मगर मूल सवाल यह है कि दिल्ली में किसी भी संकट से निपटने के लिए मौजूद तमाम संसाधनों के बावजूद आखिर इस कदर हिंसा हुई कैसे? क्या इसके लिए सिर्फ कपिल मिश्रा, ताहिर हुसैन जैसे छुटभैय्ये नेता और उनके उकसाऊ भाषण जिम्मेदार हैं या इसके लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की घोर लापरवाही जिम्मेदार है? या फिर हिंसक उग्रता को जांचने-परखने के लिए दिल्ली को एक मॉडल की तरह इस्तेमाल किए जाने की यह देन है? उत्तर प्रदेश के पूर्व डीआईजी पुलिस तथा चर्चित विचारक विभूति नारायण राय ने बहुत साल पहले एक बात कही थी कि अगर सरकार और पुलिस न चाहे तो दंगे भड़क तो सकते हैं, लेकिन वो फैल नहीं सकते।
दिल्ली में पिछले करीब 3 महीनों से जिस तरह की स्थितियां धीरे-धीरे करके गढ़ी गई हैं, उससे तो लगता है कि यहां सांप्रदायिक तनाव विस्तारित नहीं हुआ बल्कि एक तरह से उसे पूरी मेहनत, मशक्कत के साथ जमीन में बोया गया है, जिसकी अब जहरीली फसल तैयार हो चुकी है। दिल्ली में पिछले तीन दिनों में देखते ही देखते जिस तरह स्थितियां काबू से बाहर हुईं, वह दंगों के फैलने और बढऩे का एक क्लासिक उदाहरण है। शायद देश के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब थोड़े से इलाके में सांप्रदायिक तनाव के चलते दो समुदायों के बीच रह-रहकर एक हजार राउंड से भी ज्यादा गोलियां चलाई गई हैं। याद रखिए यह आंकड़ा बहुत खतरनाक इसलिए भी है क्योंकि इतनी गोलियां महज 48 घंटे के अंदर चलीं। ऐसा अब के पहले कभी नहीं हुआ, मुंबई जैसे भयानक दंगों के समय भी नहीं।
सुनियोजित साजिश या लापरवाही
लगता है दिल्ली की इस अराजक हिंसा के बाद अब दंगाइयों का गोली चलाना आम हो जाएगा। आखिर ये स्थितियां क्यों और कैसे बनीं ? इसके पीछे किसकी सुनियोजित साजिश या लापरवाही थी? क्या यह हिंसा और बेकाबू में हुई स्थितियां राजनीतिक फायदा उठाने के लिए एक तयशुदा योजना के साथ घटित हुईं? जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दिल्ली में पुलिस और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्रीय गृहमंत्री की है। गृह मंत्रालय के अधीन देश के अंदर और देश के बाहर सक्रिय रहने वाली खुफिया एजेंसियां हैं तथा और भी जबरदस्त नेटवर्क हैं। इसके बाद भी यह किसकी चूक थी कि एक मामूली सा तनाव देखते ही देखते इतना उग्र हो गया। अगर सारी स्थिति को क्रमिकता के नजरिए से देखें तो साफ पता चलता है कि दिल्ली में जो खौफनाक स्थितियां पैदा हुईं, वह स्वत: स्फूर्त नहीं थीं, उन्हें कोशिशन पैदा किया गया था और इसमें हर राजनीतिक पार्टी की अपने-अपने स्तर की भूमिका थी। केंद्रीय गृह मंत्रालय जिसके अंतर्गत दिल्ली की पुलिस तथा कानून व्यवस्था आती है, वह केंद्र सरकार अगर पहले से इस भयावह स्थिति का सही आंकलन कर पाती तो इस तरह की स्थितियां नहीं बनतीं। लेकिन सिर्फ केंद्रीय गृह मंत्रालय और अमित शाह को ही इस पूरी घटना का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
केजरीवाल कहां थे?
आखिर दिल्ली के अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय और जनता के लिए उनके हितैशी के रूप में मशहूर केजरीवाल ने इन दंगों को इस स्थिति तक न पहुंचने देने के लिए क्या किया? माना कि उनके पास पुलिस की बागडोर नहीं है, लेकिन पुलिस से ज्यादा कारगर दंगों के समय राजनेताओं का जमीन में उतरना होता है। क्या मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने विधायकों, मंत्रियों के साथ तनाव वाली सड़कों में उतर नहीं सकते थे? अगर वह वाकई ऐसा करते क्या तब भी स्थितियां ऐसी होतीं? अगर कांग्रेस तथा दूसरी विपक्षी पार्टियों के लोग भी इस तनावपूर्ण स्थिति की संवेदना को समझते हुए लोगों के बीच पहुंचते तो क्या दंगाई मनमानी कर पाते? हकीकत तो यह है कि जिन इलाकों में पुलिस को स्थिति काबू में करनी थी, वहां कई जगहों पर पुलिस अपनी घिनौनी हरकतों से खुद सांप्रदायिक उन्माद का हिस्सा बनी हुई थी। दरअसल, दिल्ली में जो हिंसक वारदात हुई उसके पीछे राजनीतिक कमजोरी के साथ ही पुलिस की निष्क्रियता भी कारण रही है।
केंद्र इतना उतावला क्यों?
दिल्ली दंगे की मूल वजह क्या है, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन इसके पीछे केंद्र सरकार का उतावलापन भी एक वजह माना जा रहा है। दरअसल, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने और राम मंदिर का मसला सुलझाने के बाद केंद्र सरकार इतनी उत्साहित हो गई थी कि उसने सीएए, एनआरसी और एनपीआर को भी लागू करने की जल्दबाजी दिखा दी। दरअसल, सीएए में सरकार ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को छोड़कर अन्य जातियों के लोगों को नागरिकता देने का जो प्रस्ताव रखा है, उसको जनता के बीच इस तरह तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है जिससे मुसलमान भ्रमित हो रहे हैं। कुछ बातें तो पहले से ही सामने हैं। एक समूह देशभर में नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर और एनआरसी के नाम पर झूठ और गलतफहमी के द्वारा मुसलमानों के अंदर भय पैदा करने तथा उनके एक बड़े तबके को उकसाने में सफल हो चुका है। यह तथ्य बार-बार स्पष्ट किया जा चुका है कि नागरिकता कानून से भारत के नागरिकों का कोई संबंध नहीं है। इसी तरह एनपीआर 2010 में हुआ, 2015 में अद्यतन किया गया और यह सामाजिक-आर्थिक जनगणना है जो अब मूल जनगणना का भाग है। एनआरसी पर अभी सरकार के अंदर औपचारिक फैसला नहीं हुआ है। अगर कल फैसला हुआ और उसमें कोई आपत्तिजनक या अस्वीकार्य पहलू होगा तो उसका विरोध किया जाएगा। जो अभी है ही नहीं उसका विरोध करने का कारण क्या हो सकता है? यह प्रश्न और ये तथ्य उनके लिए मायने रखते हैं जिनका उद्देश्य सच समझना हो। जिनका उद्देश्य सरकार के विरुद्ध पूरे समुदाय को भड़काकर स्थिति बिगाडऩी हो उनके लिए इनका कोई अर्थ नहीं है। ये समाज विरोधी, सांप्रदायिक और उपद्रवी शक्तियां हैं जिनके इरादे खतरनाक हैं।
ट्रम्प को दिखाने के लिए
दिसंबर की जामिया हिंसा को लेकर दिल्ली पुलिस के आरोप पत्र में ही इस तरह की साजिश का विवरण है। जो लोग किसी तरह कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर सरकार को बदनाम करने की फिराक में थे उनके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा भी बड़ा अवसर था। इसमें दोनों तरह की शक्तियां थीं। एक वे जो धरना-प्रदर्शन से ही स्थिति को बिगाड़ देना चाहते थे तथा दूसरे वे जो हिंसा द्वारा ऐसा करने की तैयारी में थे। वे चाहते थे कि किसी तरह दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक स्थिति इतनी बिगाड़ दी जाए जिससे ट्रम्प की नजर तो जाए ही, उनको कवर कर रही अंतरराष्ट्रीय मीडिया के फोकस में भी विरोध आ जाए। अलीगढ़ में अशांति पैदा करने की कोशिशें पुलिस और प्रशासन की सक्रियता से विफल कर दी गईं, किंतु दिल्ली में ऐसा नहीं हो सका।
शाहीन बाग के पीछे का चेहरा
समझने की आवश्यकता है कि शाहीन बाग का जो धरना सामने दिख रहा है उसके पीछे कई प्रकार के शरारती दिमाग और खतरनाक विचार हैं। पूरे देश ने वह वीडियो देखा जिसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा वार्ताकार नियुक्त किए जाने के साथ तीस्ता सीतलवाड़ अपने साथियों के साथ वहां महिलाओं को प्रशिक्षण दे रही थीं कि आपको किस सवाल का क्या जवाब देना है और अपनी ओर से क्या सवाल करना है या शर्तें रखनी हैं। उस वीडियो ने शाहीन बाग के पीछे छिपे चेहरे को उजागर कर दिया था। यह सीधे-सीधे वार्ताकारों को विफल करने की साजिश थी।
फैसला आने का इंतजार क्यों नहीं?
जो लोग अभी भी नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर हो रहे विरोध को संविधान बचाने से लेकर लोकतांत्रिक बता रहे हैं उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अब क्या होगा जिसके बाद आपका भ्रम टूटेगा? उच्चतम न्यायालय की एक पीठ नागरिकता संशोधन कानून पर 160 से ज्यादा याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। अगर संविधान बचाने का विचार हो तो कायदे से इसके संवैधानिक-गैर संवैधानिक होने का फैसला न्यायालय पर छोड़ा जाना चाहिए था, लेकिन जब उद्देश्य खतरनाक हो तो वे क्यों ऐसा करेंगे? उनको केवल आग लगाना और उसका विस्तार करना है ताकि केंद्र सरकार के लिए विकट स्थिति पैदा हो जाए। इस आग को रोकना है तो तथाकथित मानवाधिकारवादियों तथा मीडिया के एक वर्ग की निंदा का जोखिम उठाते हुए भी र्कारवाई करनी होगी। दिल्ली पुलिस को शाहीन बाग खाली करने के लिए किसी न्यायालय के आदेश की आवश्यकता नहीं। सड़क घेरना गैर कानूनी यानी आपराधिक कदम है और पुलिस को इसके खिलाफ कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है। अगर दिल्ली को संभालना है तथा देश में इन खतरनाक साजिशों की पुनरावृत्ति नहीं होने देना है तो फिर पुलिस प्रशासन को अपनी भूमिका कठोरता से निभानी होगी, किंतु हमें यह भी समझना होगा कि यह एक वैचारिक संघर्ष में भी परिणत हो चुका है।
आपने कई भाषण सुने होंगे जिनमें कहा जा रहा है कि तीन तलाक के खिलाफ कानून बना और हम चुप रहे। 370 हट गया फिर भी हमने कुछ नहीं किया। अयोध्या का फैसला आ गया और हम खामोश बैठे रहे। अब नागरिकता कानून बन गया। आगे एनआरसी होगा। फिर कुछ होगा। इस तरह मुसलमानों को यह समझाया जा रहा है कि वर्तमान सरकार उनकी विरोधी है और अपना वजूद बचाना है तो उठो और लड़ो। इस तरह का खतरनाक झूठ फैला दिया जाए तो अलग-अलग तरह के तत्व अपने-अपने तरीके से विरोध करने लगते हैं। इसका सामना करने के लिए समाज को आगे आना होगा।
दंगों का दर्द कब तक?
दंगों का दर्द कब तक रुलाएगा, कोई नहीं जानता। लोग अपनों की तलाश में इधर से उधर भटक रहे हैं। अस्पतालों से लेकर थानों तक के चक्कर लगा रहे हैं, आसपास के नालों में खोजबीन करवा रहे हैं। पर दंगों से जो सवाल फिर से निकले हैं, वे वही के वही हैं, जैसे दंगाई कौन थे, किसके इशारे पर दंगे हुए, शुरुआत में पुलिस मूकदर्शक-सी क्यों बनी रही? हमेशा की तरह इन सवालों के जवाब भी शायद ही मिलें। दंगों के बाद की दिल्ली की जो तस्वीर दिख रही है उसमें डर और नफरत अब भी बाकी है। दरअसल इस तरह की नफरती हिंसा देखने के बाद आपको देश में पुलिस प्रशासन, नेताओं और दूसरे जिम्मेदार लोगों की याद आती है। लेकिन देश के तमाम दूसरे दंगों की तरह यहां पर भी यह कहानी दोहराई गई है कि पुलिस, प्रशासन और राजनेता सभी इस दौरान लापता रहे। जबकि तकनीक ने इस दंगे की बर्बरता को और बढ़ा दिया। ये सिर्फ सिलेक्टिव घरों या दुकानों की कहानी नहीं है। करावल नगर पुश्ते पर दंगाई परिवहन विभाग के ऐप का इस्तेमाल करके गाड़ी के मालिक की पहचान कर रहे थे और तब गाडिय़ों में आग लगा रहे थे। इसी तरह तमाम अफवाहें सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप और दूसरे माध्यम) के जरिए तेजी से वायरल हो रही थीं। दंगाग्रस्त इलाकों में घूमते समय ज्यादातर लोगों ने इस बात को दोहराया कि सोशल मीडिया ने निगेटिव रोल अदा किया। लोगों के बीच भय और नफरत के बीज वहीं से बोए गए। फिलहाल हमें इन तमाम खतरों के बीच ही अमन कायम करना है और इंसानियत की रक्षा करनी है।
दिल्ली पुलिस गफलत में
खौफनाक हिंसा से उभर रही दिल्ली के दामन पर जो दाग लगा उसे मिटाने के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि हत्या और आगजनी के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान कर उन्हें सख्त सजा देना सुनिश्चित किया जाए। चूंकि बड़े पैमाने पर हुई हिंसा यह बता रही है कि उसके पीछे सुनियोजित साजिश और पूरी तैयारी थी इसलिए हर घटना की तह तक भी जाने की जरूरत है। दिल्ली की भीषण हिंसा यह बता रही है कि किसी न किसी स्तर पर दिल्ली पुलिस और साथ ही सरकार से गफलत हुई। वास्तव में इसी कारण वह निंदा और आलोचना के निशाने पर है। दिल्ली पुलिस और साथ ही मोदी सरकार को इस आलोचना का सामना करना ही होगा। आखिर दिल्ली की सुरक्षा सुनिश्चित करना उसकी ही जिम्मेदारी थी। जिस मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में देश में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ उसकी नाक के नीचे यानी राजधानी दिल्ली में इतने भीषण दंगे हुए कि 42 लोगों की जान चली गई।
यह घाव नहीं भरेगा
यूं तो वक्त के साथ सारे दुख-दर्द भुलाए जा सकते हैं, लेकिन दिल्ली के दंगों ने जो जख्म दिए हैं, उन्हें शायद ही भुलाया जा सकेगा। जिस तरह से 1984 के सिख दंगों और 2002 के गुजरात दंगों के घाव आज भी हरे हैं और पीडि़तों की आंखों में आज भी आंसू हैं, उसी तरह इस हफ्ते के शुरू में उत्तर-पूर्वी दिल्ली की बस्तियों में हुए दंगों ने भी लोगों के मन में हमेशा के लिए टीस पैदा कर दी है। इससे भी ज्यादा दुख इस बात का है कि तीन दिन तक चले हिंसा के इस तांडव को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया, जबकि हिंसा फैलाने वालों के बारे में अब तक यही कहा जा रहा है कि यह शरारती तत्वों का काम था और किसी के इशारे पर इसे अंजाम दिया गया है। इस बात के भी संकेत मिले हैं कि यह कुछ पेशेवर आपराधिक समूहों का काम था। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर कोई पेशेवर आपराधिक समूह इतने बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाता है तो इसके पीछे निश्चित रूप से कोई हाथ होगा, साजिश होगी। अब दंगों की जांच पुलिस के दो विशेष जांच दलों को सौंपी जा चुकी है, ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सच सामने आएगा।
दिल्ली के दंगा पीडि़त खासतौर से जिन लोगों ने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया है, वे सिर्फ एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर हमने किसी का क्या बिगाड़ा था, जिसकी वजह से आज ये दिन देखना पड़ा है। लेकिन दंगों का इतिहास बताता है कि ऐसे सवालों का किसी के पास कोई जवाब नहीं होता और ये सवाल वक्त के साथ गुम हो जाते हैं। दंगों में किसी ने अपने जवान बेटों को खोया, तो किसी ने अपनी बूढ़ी मां को। दंगाइयों ने ये भी नहीं देखा कि 85 साल की बूढ़ी महिला को जिंदा जलाने से उन्हें क्या हासिल होने जा रहा है, क्योंकि नफरत के उन्माद में उन्हें तो बस मारकाट मचाकर अपना मकसद पूरा करना था।
जो लोग तेजाबी हमले में झुलस गए या तलवार और गोलियों के हमले में जख्मी हो गए, वे शायद ही कभी इन खौफनाक क्षणों को भूल पाएं। तीन दिन के दंगों में जिस तरह से दुकानें लूटी गईं, तोडफ़ोड़ कर उन्हें आग के हवाले कर दिया गया, उससे अब लोगों के सामने रोजी-रोटी का बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। कैसे लोग फिर से अपना काम-धंधा शुरू करेंगे, यह बड़ा सवाल है। ज्यादातर दंगा पीडि़त रोज कमाने-खाने वाले हैं, मजदूरी करने वाले हैं, जिनके पास अब न रहने को ठिकाना बचा है, न अगले दिन के लिए काम।
अवैध हथियारों के जखीरे पर दिल्ली
दिल्ली में भड़की हिंसा के दौरान जमकर अवैध हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। पुलिस सूत्रों के मुताबिक 500 राउंड से ज्यादा गोलियां चली हैं। उपद्रव में इतनी बड़ी संख्या में अवैध असलहों के इस्तेमाल से पुलिस भी परेशान है। आला पुलिस अधिकारी अवैध हथियारों की आपूर्ति करने वाले और इलाके के आपराधिक छवि वाले बदमाशों की तलाश में जुट गए हैं। पुलिस के अनुसार, दिल्ली हिंसा में पिस्टल और देशी तमंचों का जमकर इस्तेमाल किया गया। जगह-जगह पुलिस को कारतूस के खोखे मिल रहे हैं जिन्हें जांच के लिए जुटाया जा रहा है।
जांच के दौरान 0.32 मिलीमीटर, 0.9 मिलीमीटर पिस्टल ०.12 मिलीमीटर और 0.315 मिलीमीटर कैलिबर के कारतूस के खोखे बरामद हुए। आला पुलिस अफसरों का कहना है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में बड़े पैमाने पर अवैध हथियारों की खेप होने की आशंका है। देश की राजधानी में इतनी बड़ी संख्या में गोलीबारी की
यह पहली घटना है। इससे पहले 1984 के सिख दंगे और 1992 में हुए दंगों में गोलीबारी की घटनाएं कम थीं।
डर के साये में जिंदगी
खुरेजी, चांदबाग, भजनपुरा, जाफराबाद समेत उत्तर-पूर्वी दिल्ली और आसपास के इलाकों में शांति है लेकिन खौफ और दहशत का माहौल अभी बना हुआ है। ज्यादातर दुकानें बंद हैं और उनके दरवाजों पर हिंसा के निशान साफ देखे जा सकते हैं। सांप्रदायिक हिंसा के बाद उत्तर-पूर्वी दिल्ली के अधिकांश इलाकों में शांति वापस लौट रही है। अब जहां एक ओर सड़कों पर पुलिस है और हिंसा के निशान हैं तो वहीं दूसरी ओर गलियों में हालात अब भी सामान्य नहीं हंै। लोगों में खौफ और दहशत का माहौल अभी बना हुआ है। गलियों में अब भी लोग इकट्ठा होकर माहौल भांपने की कोशिश कर रहे हैं। इन इलाकों में ज्यादातर दुकानें बंद हैं और उनके दरवाजों पर हिंसा के निशान साफ देखे जा सकते हैं। सड़कों पर पत्थर और ईंट के टुकड़े फैले हुए हैं। बीच-बीच में जली हुई दुकानें दिख रही हैं। फूंकी हुई गाडिय़ां और सामान दिख रहे हैं और हिंसा को रोकने के लिए पुलिस प्रभावित इलाकों में फ्लैग मार्च कर रही है। कई जगहों पर लोगों के घर जला दिए गए हैं। रोजमर्रा का हर सामान और रोजी-रोटी का जरिया भी राख में बदल गया है। नफरत और हिंसा की ये तस्वीरें आपको सड़कों पर हर तरफ दिख जाएंगी।
कारोबार पड़ा ठप, करोड़ों का नुकसान
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों से इन इलाकों में कारोबार ठप सा हो गया है। दूर गांवों से दिल्ली आए कारीगर अपने घरों को लौट गए हैं। बेपटरी कारोबार के कारण करोड़ों का नुकसान होने की आशंका जताई जा रही है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगे में कुटीर व लघु उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। शेरपुर, बिहारीपुर व तुकमीर पुर में बड़े पैमाने पर मशीनों द्वारा कढ़ाई व जरी का काम होता है। दंगों ने इस कारोबार को ठप कर दिया है। चारों ओर बंद दुकानें यहां के हालात बयां कर रही हैं। कढ़ाई का काम बंद होने से धागों की दुकानों का काम भी ठप हो गया है। शेरपुर चौक के पास धागे की दुकान पर बैठे कौशल किशोर उर्फ कालू भाई बताते हैं कि पांच दिन बाद दुकान खोली है सुबह से कोई ग्राहक नहीं है। अधिकांश कारीगर घर चले गए हैं। करावल नगर व्यापार एकता मंडल के उपाध्यक्ष प्रदीप कुमार अरोड़ा ने पांच दिन तक दुकान बंद रहने और हिंसा के दौरान दुकानों के जलने व लूट लिए जाने से 200 करोड़ रुपए के नुकसान होने का दावा किया है। 5 किमी के दायरे में मुस्तफाबाद और करावल नगर विधानसभा का इलाका फैला है। जिसमें परचून से लेकर कई रेडीमेड कपड़ों की दुकानें शामिल हैं। हिंसा के समय यह पूरा इलाका प्रभावित था। कई दुकानों को फूंका और लूट लिया गया, जिससे काफी नुकसान पहुंचा है।
जले हिन्दू-मुस्लिम के मकान और रिश्ते
देश की राजधानी दिल्ली में 23 फरवरी से शुरू हुई पूर्व-नियोजित भयानक मुस्लिम-विरोधी हिंसा ने, जिसमें अब तक 42 लोगों की जानें जा चुकी हैं, एक बात बहुत साफ तौर पर बता दी है, वह यह कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) भारत के लिए अत्यंत विभाजनकारी व विघटनकारी हैं। इन्हें फौरन वापस लिया जाना चाहिए या रद्द कर देना चाहिए, नहीं तो दिल्ली से भी ज्यादा खौफनाक हालात देश में पैदा हो सकते हैं। सीएए-एनपीआर-एनआरसी को लेकर खासकर मुस्लिम समुदाय के अंदर गहरी असुरक्षा, चिंता और आशंका पैदा हो गई है, उसकी वाजिब वजहें हैं। इस चिंता और असुरक्षा को दूर करने की कोई कोशिश केंद्र की भाजपा सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने नहीं की, उलटे अपने बयानों और हाव-भाव से उसे और बढ़ाया ही। दिल्ली की करावल नगर विधानसभा के खजूरी खास इलाके की दो गलियों में 70-80 मकान थे जो सारे जला दिए गए केवल 3 मकान बचे जो हिन्दुओं के थे। जो मकान बचे उनमें एक मकान दिल्ली पुलिस के सिपाही का, एक मकान सील था और एक मकान वकील साहब का था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता था कि दंगाई किस मकसद और मानसिकता से आए थे।
ऐसे पुलिस के हाथ से फिसलती चली गई बात
दिल्ली हिंसा के बाद यूं लग रहा है कि पर्याप्त पुलिस फोर्स ना होने की वजह से ही उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए हैं। ऐसा लग रहा है कि पुलिस की तरफ से तुरंत फैसला नहीं लेने की वजह से ही महज 36 घंटों में 42 लोगों की जान चली गई। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि 22 फरवरी की रात को इस हिंसा के बीज बोए गए। करीब 600 महिलाएं जाफराबाद की संकरी गलियों से होते हुए दिल्ली मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ रही थीं। हालांकि, पुलिस ने उस वक्त कोई दखलअंदाजी नहीं की। स्थानीय लोगों के अनुसार पुलिस मान रही थी कि वह महिलाएं वहां जा रही हैं, जहां पहले से ही प्रोटेस्ट हो रहा है, लेकिन वह मेट्रो स्टेशन पर ही प्रोटेस्ट करने लगीं, जो पहले वाली जगह से करीब 500 मीटर दूर था। उस वक्त बहुत ही कम महिला पुलिस बल मौजूद था, जो महिलाओं की भीड़ से निपट सके और पुलिस उन्हें तितर-बितर करने के लिए बल का प्रयोग भी नहीं कर सकती थी। उन्हें ऊपर से भी कोई आदेश नहीं मिला, क्योंकि ये नहीं पता था कि इस पर कोर्ट कैसा रुख अपनाएगा। देखते ही देखते महिलाओं के साथ करीब 400 पुरुष भी प्रोटेस्ट में शामिल हो गए। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार शुरुआत में प्रोटेस्ट करने वाले लोग स्थानीय नहीं थे। दूसरे दिन सुबह तक प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़कर 3000 हो गई। उन्होंने बताया कि उन्हें बल का प्रयोग कर के नहीं हटा सकते थे, ऐसे में उन्हें कोई भी टेंट लगाने या स्टेज लगाने से रोक दिया। पुलिस को लगा था कि ये प्रदर्शन भी शाहीन बाग की तरह शांतिपूर्ण रहेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा- हमने 24 फरवरी के लिए पर्याप्त इंतजाम किए थे, जब अमेरिकी राष्ट्रपति दिल्ली पहुंचे, हालांकि पूर्वी रेंज के अधिकारियों को छूट दी गई थी। फोर्स को लाने में कुछ समय लगा, लेकिन हमारे पास पर्याप्त पुलिस फोर्स थी। 24 फवरी को ही सुबह तक दंगे शुरू हो गए। जो पत्थरबाजी से शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे तोडफ़ोड़ और आगजनी में बदल गया। कुछ ही देर में दोनों समूहों के बीच देसी कट्टों से गोलीबारी शुरू हो गई। एक सूत्र के मुताबिक, 'गुस्साए समूह ना सिर्फ एक दूसरे पर हमले कर रहे थे, बल्कि पुलिस को भी निशाना बना रहे थे। कुछ जगहों पर तो भीड़ ने पुलिस को ही घेर लिया, तो कहीं पर तीनों तरफ से पुलिस पर हमले हुए।Ó
- राजेंद्र आगाल