डराते राज्यपाल
20-Oct-2020 12:00 AM 1080

 

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में यह विसंगति दिन पर दिन बढ़ती जा रही है कि केंद्र सरकार के इशारे पर राज्यपाल राज्य सरकारों पर अंकुश लगाने का प्रयास करते रहते हैं। केंद्र में जिस पार्टी की सरकार रहती है, वह विपक्षी पार्टी वाली राज्य सरकारों पर राज्यपाल के माध्यम से दबाव बनाते रहती है। इस कारण देश में राजनीतिक द्वेष बढ़ रहा है। खासकर केंद्र में भाजपा के शासनकाल में यह परंपरा तेजी से बढ़ी है। इससे कई राज्यों से टकराव की स्थिति निर्मित हो चुकी है।

राज्यपाल को राज्य का संरक्षक माना जाता है। लेकिन पिछले एक दशक में यह देखने को मिल रहा है कि राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रहे हैं। इस साल महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल अपनी कार्यप्रणाली के कारण विवादों में रहे हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ एक बार फिर सुर्खियों में हैं। वजह वही पुरानी है। यानी ममता बनर्जी सरकार से उनकी नाराजगी। जगदीप धनखड़ का कहना है, 'अगर संविधान की रक्षा नहीं हुई तो मुझे कार्रवाई करनी पड़ेगी। राज्यपाल के पद की लंबे समय से अनदेखी की जा रही है। मुझे संविधान के अनुच्छेद-154 पर विचार करने को बाध्य होना पड़ेगा।Ó यह अनुच्छेद कहता है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।

उधर, तृणमूल कांग्रेस ने राज्यपाल पर अपने पद की छवि बिगाड़ने का आरोप लगाया है। पार्टी का कहना है कि जगदीप धनखड़ को इस पद के बजाय प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष पद संभालना चाहिए। इससे पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 26 सितंबर को राज्यपाल को पत्र लिखकर उनसे आग्रह किया था कि वे उसी दायरे में रहते हुए काम करें जो संविधान ने उनके लिए तय किया है।

राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच इस तरह के आरोप-प्रत्यारोपों की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले राजस्थान में चली सियासी उथल-पुथल के दौरान वहां सत्ताधारी कांग्रेस ने राज्यपाल कलराज मिश्र पर कई बार पक्षपात के आरोप लगाए थे। उस समय पार्टी का कहना था कि राज्यपाल का आचरण देखकर लगता है कि जैसे वे एक पार्टी विशेष के हितों की पूर्ति कर रहे हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने उस समय सीधे-सीधे यह आरोप लगाया था कि कलराज मिश्र केंद्र के इशारे पर काम कर रहे हैं।

राज्यपालों पर इस तरह के आरोप अब इतने आम हो चुके हैं कि इनसे कोई चौंकता नहीं है। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस पद की एक ऐसी संस्था के रूप में कल्पना की थी जो निष्पक्ष होगी और संवैधानिक संरक्षक की अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए देश के संघीय ढांचे को मजबूत करेगी। लेकिन आज स्थिति इससे मीलों दूर दिखती है। आज राज्यपाल अपने आचरण में केंद्रीय सत्ता के ऐसे एजेंट के तौर पर दिखते हैं जिनके लिए इस सत्ता को थामे पार्टी के हित ही सबसे ऊपर होते हैं।

इस वक्त जो एक चलन बेहद मजबूत होता जा रहा है वह यह कि केंद्र में दूसरी पार्टी की सरकार आते ही राज्यपालों के भी बदले जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह चलन कितना व्यापक है यह इस बात से ही समझा जा सकता है कि वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने आते ही सभी राज्यपालों को इस्तीफा देने के लिए कह दिया था। इससे पहले आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई की सरकार ने भी कई राज्यपालों को उनके पद से हटा दिया था। पिछली यूपीए सरकार ने भी 2004 में सत्ता में आते ही चार राज्यपालों को हटा दिया था। वर्तमान मोदी सरकार ने भी इससे कुछ अलग नहीं किया। दरअसल राज्यपालों की नियुक्ति भले राष्ट्रपति करते हैं लेकिन, उनका कार्यकाल प्रधानमंत्री कार्यालय की दया का मोहताज दिखता है।

ऐसा नहीं है कि इस संस्था का स्वरूप बेहतर करने की कोशिशें नहीं की गईं। सरकारिया आयोग से लेकर प्रशानिक सुधार आयोग और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि राज्यपाल का कार्यकाल सुनिश्चित होना चाहिए। इन्हें हटाने के लिए एक अलग प्रक्रिया (अभी केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति कभी भी राज्यपाल को हटा सकता है) की भी बात हुई। सुप्रीम कोर्ट ने तो यह तक कहा कि केंद्र में सरकार बदलते ही राज्यपालों को नहीं हटाया जा सकता। लेकिन इसके बाद भी मामला वहीं का वहीं है। और जब भी राज्यपालों में से कोई खबर में आता है तो सबसे पहले यही बात सामने आती है कि संबंधित राज्य में केंद्र में सत्ताधारी दल से अलग पार्टी की सरकार है। महाराष्ट्र से लेकर राजस्थान और पश्चिम बंगाल तक तमाम राज्यों में यह देखा जा सकता है।

राज्यपालों के बयान भी जब खबर बनते हैं तो कई बार इसकी वजह यही होती है कि वे विवादित और अपने पद की गरिमा गिराने वाले होते हैं। मसलन भाजपा के नेता रहे और अब मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय ने पिछले साल कहा कि देश के लोगों को कश्मीरियों और उनके द्वारा बेचे जाने वाले सामान का बहिष्कार करना चाहिए। दिलचस्प बात है कि बीते दिनों अपने पद पर रहते हुए ही उन्होंने वापस सक्रिय राजनीति में लौटने की इच्छा जताई है। उनका कहना है, 'राज्यपाल के तौर पर मेरा कार्यकाल खत्म होने के बाद, मैं सक्रिय राजनीति में लौटना और पश्चिम बंगाल की सेवा करना चाहूंगा। मैं अपने राज्य लौटने के बाद पार्टी से इस बारे में बात करूंगा। इसे स्वीकारना या खारिज करना उस पर है।Ó

वैसे राज्यपालों का फिर से सक्रिय राजनीति में आना कोई नई बात नहीं है। इससे पहले कांग्रेस के नेता सुशील कुमार शिंदे और शीला दीक्षित ऐसा कर चुके हैं। शिंदे आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनने के बाद केंद्र में ऊर्जा मंत्री बन गए और दीक्षित केरल की राज्यपाल रहने के बाद उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार थीं। भाजपा के मदनलाल खुराना भी ऐसा ही एक उदाहरण हैं जो राजस्थान का राज्यपाल बनने के बाद फिर से सक्रिय राजनीति में आ गए थे। इससे साफ होता है कि राज्यपाल बनने वाले ऐसे ज्यादातर लोगों की राजनीतिक लालसाएं और पार्टीगत निष्ठाएं जिंदा रहती हैं। सवाल है कि क्या इससे अराजनीतिक और निष्पक्ष होने की वह अवधारणा ही ध्वस्त होती नहीं दिखती जिसके आधार पर संविधान निर्माताओं ने इस संस्था को जारी रखा था। ऐसे भी उदाहरण हैं जब राज्यपालों की सिफारिश पर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के फैसले को अदालतों ने पलट दिया। और आगे जाएं तो एनडी तिवारी और वी षण्मुगनाथन जैसे भी मामले हैं जिन्होंने इस पद की गरिमा को और भी पाताल में पहुंचाने का काम किया।

केंद्र से अलग पार्टी की सत्ता वाले राज्यों के मुखिया राज्यपाल पर भरोसा करते नहीं दिखते और ऐसा भी नहीं लगता कि केंद्र भी राज्यपाल पर पूरी तरह से भरोसा करता है। संविधान के अनुच्छेद-356 में राष्ट्रपति शासन लगाने की शक्ति केंद्र ने अपने पास रखी है तो इसमें यह भी व्यवस्था है कि ऐसा करने के लिए वह सिर्फ राज्यपाल की रिपोर्ट पर निर्भर नहीं है। केंद्र-राज्य संबंधों के इतर देखें तो राज्यपालों की गतिविधियां सार्वजनिक आयोजनों में भाग लेने और नियमित दिल्ली दौरों तक सिमटी दिखती हैं। या फिर वे जनप्रतिनिधियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाने जैसे चुनिंदा मौकों पर ही याद किए जाते हैं। कई लोग मानते हैं कि ऐसे कुछ मौकों के लिए बिना झंझट के एक वैकल्पिक व्यवस्था हो सकती है और इसलिए राज्यपाल जैसे अनावश्यक और खर्चीले पद को ढोने का कोई तुक नहीं है। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? कोई भी पार्टी या सरकार राज्यपाल व्यवस्था को खत्म करने की गलती नहीं करेगी।

राज्यपाल जैसे पद की अवधारणा सदियों से

राज्यपालों के मामले में वही परंपरा चल रही है जो सदियों पहले शुरू हुई थी। असल में जब राज्यपाल जैसे पद की अवधारणा अस्तित्व में आई थी तो इसका मूल उद्देश्य यही था कि राज्यों पर केंद्रीय सत्ता की पकड़ मजबूत रहे। इतिहास पर नजर डालें तो जब भी कोई राजा किसी नए राज्य को जीतकर अपने राज्य में मिलाता था तो प्रशासन के सुभीते के लिए उसकी कमान अपने विश्वासपात्र किसी सगे-संबंधी या अन्य शख्स को थमा देता था। भारत में पहली बार राजनीतिक एकता स्थापित करने वाले मौर्य वंश के राजा बिंदुसार ने उज्जयिनी का राज्यपाल अपने पुत्र अशोक को बनाया था जो बाद में सम्राट बना। इस तरह की व्यवस्था मौर्य वंश के बाद आए शुंग वंश से लेकर गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट और मुगल वंश तक रही। अकबर के समय कुल प्रांतों की संख्या 15 थी जिनमें से एक गुजरात भी था और एक समय वहां के सूबेदार यानी राज्यपाल टोडरमल भी थे। मुगलिया सल्तनत गई और ब्रिटिश राज आया, लेकिन राज्यपालों की भूमिका वही रही।

शुरू से राज्यपाल का उपयोग सत्ता के लिए होता रहा

गौरतलब है कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद-155 में कहा गया कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा। राष्ट्रपति केंद्र में संवैधानिक प्रमुख था तो राज्य में राज्यपाल को यह जिम्मेदारी दी गई। वह राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि हो गया। लेकिन 1952 में पहले आम चुनाव के बाद से ही इस संस्था के भविष्य के संकेत दिखने लगे। मद्रास में आम चुनाव के साथ हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को झटका लगा था। वह 375 में से 152 सीटें ही जीत सकी। यानी सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी वह बहुमत से दूर थी। उधर, कम्युनिस्टों सहित सभी विपक्षी पार्टियों ने गठबंधन कर संयुक्त मोर्चा बना लिया और बहुमत का दावा किया। कांग्रेस में खलबली मच गई। राज्य के धाकड़ नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तब तक सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे। आनन-फानन में उन्हें खूब मनाकर वापस लाया गया। कांग्रेस को उम्मीद थी कि अब राजगोपालाचारी का कद और कौशल ही कम्युनिस्टों को सत्ता में आने से रोक सकता है। इसके बाद राज्यपाल ने कांग्रेस को सरकार बनाने का न्यौता दिया। शपथ ग्रहण के बाद विपक्षी खेमे में सेंध लगाने के प्रयास शुरू हुए। आखिरकार सरकार बनाने का न्यौता मिलने के तीन महीने बाद तीन जुलाई 1952 को राजगोपालाचारी ने 200 विधायकों के समर्थन के साथ विधानसभा में बहुमत साबित कर दिया।

- इन्द्र कुमार

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