सरदार सरोवर परियोजना से विस्थापित और प्रभावित हजारों लोगों को जो मिला है, वह निश्चित ही दुनिया की किसी अन्य परियोजनाओं में इतने बड़े पैमाने पर नहीं मिला होगा, लेकिन इसके लिए बहुत लंबा संघर्ष किया गया। शासन करने वालों से लेकर समाज के विभिन्न तबकों, बुद्धिजीवियों, श्रमजीवियों से लगातार संवाद के बाद यह संभव हो पाया। हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक के समक्ष सवाल उठाने पड़े, तब परियोजना पर पुनर्मूल्यांकन के लिए निष्पक्ष आयोग गठित किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह परियोजना केवल गलत मार्ग अपनाकर ही पूरी की जा सकती है अन्यथा नहीं। हमें सर्वोच्च अदालत में पहली बार छह सालों तक और फिर बार-बार खड़ा होना पड़ा। न्यायालय में हर प्रकार के अनुभव हमने सही तरीके से जांचे और धरातल से जुड़े रहे जनशक्ति के साथ और युवा व महिलाओं के योगदान लगातार सच्चाई को उजागर करते रहे।
मप्र, महाराष्ट्र और गुजरात में हमारी ताकत थे वहां के स्थानीय नागरिक, संगठन और आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर, मछुआरे, केवट, व्यापारी आदि। विस्थापितों की हिम्मत और जीवटता के साथ कार्यकर्ता डटे हैं पिछले 35 सालों से। लेकिन वे आज भी न चुप बैठ पा रहे हैं, ना महोत्सव से अपने अनुभवों और सफलताओं को प्रचारित करना चाह रहे हैं। इसीलिए उनकी आंखों के सामने आज भी वे चेहरे, गांव और लोग संघर्ष करते दिख पड़ रहे हैं, जिनका अब तक पुनर्वास बाकी है। क्या वे ऐसी कोई चीज या लाभ मांग रहे है, जो कि कानूनी या नीतिगत दायरे से बाहर हो? क्या वे कोई जोर जबरदस्ती से छीन लेना चाहते हैं, किसी लालच में आकर? क्या उन्होंने कभी हिंसा या अवैधता को अपनाया? गांधी जी के चौरीचौरा जैसे आंदोलन की तरह भी कभी माफी नहीं मांगनी पड़ी जबकि वे उन्हीं के अहिंसा के मूल्य को गले लगाके रहे। यह उनके संघर्ष का ही नतीजा था कि वह अब तक एक और 'जालियांवाला बागÓ की पुनरावृत्ति नहीं कर पाई। हर हालात में उनके लोग शांति का रास्ता पकड़कर चलते रहे। गलत तो नहीं किया। इससे भी कार्यकर्ता संतुष्ट नहीं हैं। हिंसा के विविध रूपों में से एक होता है विस्थापन। आज महाराष्ट्र, मप्र और गुजरात के 214 किलोमीटर तक फैले 40,000 हेक्टेयर के जलाशय के क्षेत्र में उसके किनारे आज भी डटे हजारों परिवारों का संघर्ष जारी है।
पिछौडी, आवल्या, कडमाल, एकलवारा जैसे निमाड़ (मप्र) के मैदानी गांवों से उखाड़कर टिन शेड्स में फेंके गए परिवारों का संघर्ष आज भी जारी है। महाराष्ट्र के चिमलखेड़ी गांव में घरों में भी पानी घुस आया है। मणिबेली की जीवनशाला भी डूबने की कगार पर है। आज न केवल बांध के ऊपरी, बल्कि निचले हिस्से में भी किसान और मछुआरे परेशान हैं। इनका कभी डूबग्रस्तों या विस्थापितों की सूची में नाम ही नहीं है।
पर्यावरणीय सुरक्षा कानून, 1986 के तहत दी गई मंजूरी से यह स्पष्ट था कि कई प्रभावों पर न अध्ययन हुए थे और ना ही नुकसान के बारे में बात। बांधों के कारण नर्मदा नदी का पानी निर्मल न रहने की बात पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे को भी मंजूर न थी साथ ही वह यह जातने थे कि बांधों के निर्माण से नदी का अंत निश्चित है। सरदार सरोवर बांध पर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की तमाम रिपोर्ट खोखली साबित हुई हैं अब तक। बांध की उपयोगिता और उसके लाभ पर देश की सर्वोच्च अदालत में बहस पूरे छह साल (1994 से 2000) तक चली। अंत में न्यायाधीश भरूचा ने अक्टूबर, 2000 के बहुचर्चित फैसले में स्वतंत्र राय देते हुए कहा है, इस परियोजना का नियोजन ही पूरा नहीं हुआ है, तो जरूरी है कि इसे तब तक आगे न बढ़ने दिया जाए जब तक कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की समिति से पूरी जांच न करवाई जाए। उसी जांच के बाद इस योजना के लाभ-हानि का पता चलेगा। लेकिन अदालत में बहुमत (2 विरुद्ध 1) का फैसला इसे अनदेखा कर चुका है।
नर्मदा घाटी परियोजना में 30 बड़े, 135 मझौले और 300 छोटे बांधों के निर्माण का सिलसिला आज भी नहीं थमा है। बर्गी, इंदिरासागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर के विस्थापितों का दर्द नहीं मिट पाया है, ऊपर से अब नए चुटका परमाणु योजना ने बांधों से पहले से ही विस्थापितों के सिर पर एक बार फिर से विस्थापन की तलवार लटक रही है।
बांध के लाभ के जाल में फंसे तीन राज्य
नर्मदा नदी पर बने बांध के लाभों के जाल में आज भी फंसे हैं तीन राज्य (राजस्थान, गुजरात और मप्र)। सरदार सरोवर से लाभ दिलाने का दावा झूठ साबित हुआ है। बांध पूरा होते ही 18 लाख हैक्टेयर्स की सिंचाई का दावा अपने आसपास भी नहीं है। इसके अलावा गुजरात को 91 और राजस्थान को 9 प्रतिशत पानी का हिस्सा आज तक नहीं मिल पाया है। यही नहीं 20,000 किमी लंबाई की छोटी-बड़र नहरों का निर्माण बाकी रहते ही बांध को 138.68 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचा दिया गया। सरदार सरोवर निगम के अध्यक्ष का वक्तव्य बताता है कि अभी इस बांध के लिए 50 प्रतिशत नहरों का निर्माण बाकी है। सरदार सरोवर जलाशय से एक बूंद पानी न मप्र को, न ही महाराष्ट्र को मिला है। महाराष्ट्र की पिछली सरकार ने तो 2015 में अपने हक का आधा पानी (5 टीएमसी) गुजरात को देने का अनुबंध भी किया, जो कि नर्मदा ट्रिब्युनल के फैसले के भी खिलाफ है। जहां तक गुजरात की बात है अब तक कच्छ की नहरें भी पूरी नहीं बन पाई हैं। यही हाल सौराष्ट्र का भी है।
- जितेंद्र तिवारी