चीन की फितरत
03-Mar-2020 12:00 AM 1223

नोवेल कोरोना वायरस के प्रकोप से घिरे चीन ने एक बार फिर भारत के साथ एक शत्रुतापूर्ण मोर्चा खोल दिया है। बीजिंग ने अरुणाचल प्रदेश के स्थापना दिवस के अवसर पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की यात्रा का दृढ़ता से विरोध किया है। चीन ने भारत को सीमा मुद्दे को पेचीदा करने के खिलाफ चेतावनी दी है। अरुणाचल प्रदेश 34 साल पहले 20 फरवरी को एक केंद्रशासित प्रदेश से पूर्ण राज्य बना था। यह क्षेत्र 1913-14 में ब्रिटिश भारत का हिस्सा था और औपचारिक रूप से तब शामिल किया गया था, जब 1938 में भारत और तिब्बत के बीच सीमा के तौर पर मैकमोहन रेखा स्थापित हुई थी। अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत की संप्रभुता को लेकर चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने बीजिंग में मीडिया को बताया, चीनी सरकार ने तथाकथित अरुणाचल प्रदेश को कभी मान्यता नहीं दी है और शाह की यात्रा का दृढ़ता से विरोध करते हैं।

दरअसल चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत क्षेत्र का एक हिस्सा मानता है। इसलिए वह प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों के अरुणाचल प्रदेश के दौरे को लेकर अपनी आपत्ति जताता रहा है। गृहमंत्री अमित शाह के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर चीन ने जो ऐतराज जताया है, उसका कोई औचित्य नहीं है। चीन की यह पुरानी प्रवृत्ति है कि वह इस तरह की आपत्तियां दर्ज कराकर सिर्फ विवाद की दिशा में ही कदम बढ़ाता रहा है। गृहमंत्री अरुणाचल प्रदेश के 34वें स्थापना दिवस पर दो दिन के राज्य के दौरे पर गए थे और भारत-चीन सीमा पर आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत की थी। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है जब चीन ने किसी भारतीय नेता के दौरे पर इस तरह की आपत्ति जाहिर की है। जब कभी कोई भारतीय नेता अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर जाता है तो चीन की ओर से इस तरह की आपत्ति आ जाती है।

भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा के दौरे पर चीन ने ऐसे ही आंखें दिखाई थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अरुणाचल दौरे पर भी उसने ऐसा ही विरोध जताया था। भारत एक नहीं कई मौकों पर साफ कह चुका है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है, और इसमें कहीं कोई किसी तरह का संशय नहीं होना चाहिए। ऐसे में चीन के इस विरोध का क्या कोई मतलब रह जाता है?

हमेशा की तरह इस बार भी भारत ने चीन को दो टूक जवाब देते हुए साफ कर दिया है कि अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसे कोई गफलत नहीं रखनी चाहिए, अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है और गृहमंत्री का वहां का दौरा सामान्य बात है। भारत के सभी नेता, केंद्रीय मंत्री, अधिकारी अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर ठीक उसी तरह जाते हैं जैसे देश के दूसरे हिस्सों में। इसलिए किसी भी भारतीय की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर आपत्ति दर्ज कराने का उसे कोई अधिकार नहीं है।

भारत चीन सीमा साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी है और चीन इसे लेकर दशकों से विवाद कर रहा है। वह तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जताता रहा है। लेकिन यह देखने वाली बात है कि अरुणाचल प्रदेश पर वाकई उसका हक होता तो क्या वह अब तक चुप बैठता? पूरी दुनिया देख रही है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न राज्य है, वहां निर्वाचित सरकार है, देश के सारे कायदे-कानून, संविधान के प्रावधान वहां लागू होते हैं, भारत के निर्वाचन आयोग की देखरेख में विधानसभा होते हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी अगर चीन अरुणाचल पर दावा करता है तो यह हास्यास्पद ही है। इससे उसकी विवादों को जन्म देने की नीयत ही सामने आती है।

सवाल यह है कि चीन भारत के खिलाफ आखिर कब तक इस तरह का रुख प्रदर्शित करता रहेगा। चीन का सीमा विवाद सिर्फ भारत से ही नहीं है, जितने देशों से उसकी सीमाएं लगती हैं, सभी जगह कोई न कोई विवाद बना हुआ है। इससे यह तो साफ है कि सीमा विवादों की आड़ में चीन पड़ोसी देशों के इलाकों में कब्जा करने की नीयत रखता है। लद्दाख के आसपास के इलाकों में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आती ही रहती हैं। डोकलाम में चीनी सैनिक जिस तरह से भारतीय सीमा में आकर कब्जे की कोशिशें करते रहे हैं, वह किसी से छिपा नहीं है। पिछले साल चीन ने अपने यहां छपे तीस हजार से ज्यादा उन नक्शों को नष्ट करवा दिया था जिसमें अरुणाचल प्रदेश और ताइवान को उसका हिस्सा नहीं बताया गया था।

भारतीय नेताओं की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा को लेकर चीन का विरोध उकसावे की हरकत से ज्यादा कुछ नहीं है। वह अरुणाचल प्रदेश को भारत के अभिन्न हिस्से के तौर पर मान्यता देता है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। बेहतर यही है कि चीन भारत के साथ रिश्ते बिगाडऩे के बजाय यह सोचे कि सीमा विवाद को कितनी शांति और तर्कसंगत तरीके से सुलझाया जा सकता है।

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में चीन के खिलाफ प्रस्ताव पास

तिब्बत के धार्मिक गुरु दलाई लामा के उत्तराधिकारी के मुद्दे को लेकर चीन और अमेरिका के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं। दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम  को सर्वसम्मति से पारित किया है। इसमें कहा गया है कि तिब्बत के धार्मिक नेता के चयन का अधिकार चीन सरकार के बजाय तिब्बतियों का है। इसका मकसद तिब्बत के समर्थन वाली नीति को मजबूत करना और हिमालय में बौद्ध क्षेत्र के प्रतिनिधियों को प्रोत्साहित और सशक्त बनाना है, जो कई दशकों से चीन के नियंत्रण में रहा है। इस पूरे विषय पर चीन की तरफ से कहा गया था कि अमेरिका धार्मिक आजादी के नाम पर चीन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप कर रहा है। बता दें कि इससे पहले अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने तिब्बत में मानवाधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के लिए वाशिंगटन के समर्थन को मजबूत करने वाले विधेयक को मंजूरी दी थी।

-  बिन्दु माथुर

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