पिछले 60 महीनों से देश की राजनीति दो नेताओं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इर्द-गिर्द घूम रही है। अमित शाह इस समय राजनीति में एक ब्रांड बन गए हैं। जिस तरह उन्होंने देश में भाजपा के विस्तार की राजनीति की है, आज उसका अनुसरण कई नेता करना चाह रहे हैं। लेकिन वे उसके पास भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। दरअसल शाह जो कुछ भी करते हैं उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
भारतीय राजनीति का यह दौर युवा नेताओं का है। लगभग हर पार्टी में युवा नेतृत्व आगे बढ़ रहा है। केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी है जिसमें फिलहाल कोई युवा अन्य पार्टी के युवाओं की तरह नेतृत्व नहीं संभाले हुए है। लेकिन भाजपाई इस बात को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि अमित शाह भी तो अभी युवा ही हैं। दरअसल, इसके पीछे वजह यह है कि देश में वर्तमान समय में जो युवा नेता अपनी पार्टी में चर्चित हैं उनकी उम्र 40 से 50 के आसपास है। वहीं अमित शाह इनसे 5 साल बड़े यानी 55 साल के हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि भारतीय राजनीति में सियासी परिवारों की विरासत देखकर लगता है कि यहां इन परिवारों से संबंध रखने वाले नेता ही युवा कहला सकते हैं, फिर वो चाहे 40 साल के हों या फिर 50 के।
जैसे ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोडक़र भाजपा ज्वॉइन की, लोगों ने कांग्रेस पार्टी की अपने युवा नेताओं को जोडक़र न रख पाने के लिए आलोचना करनी शुरू कर दी। पुराने लोग पार्टी में नए लोगों के लिए जगह नहीं छोड़ रहे हैं, कइयों ने कहा। लोगों ने
सचिन पायलट के ट्वीट के बाद कयास लगाने शुरू कर दिए कि एक और युवा नेता भी कांग्रेस का साथ छोड़ेगा। उधर हरियाणा के युवा नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा के मिजाज भी राज्यसभा सीट को लेकर अलग नजर आ रहे थे।
चारों ओर युवा नेताओं का डंका बज रहा है लेकिन भारत देश में युवा नेता होने का मतलब क्या होता है? और क्या हम देश के गृहमंत्री अमित शाह को युवा नेता कह सकते हैं? क्योंकि वो सिंधिया और राहुल गांधी से महज छह साल ही तो बड़े हैं। भारतीय राजनीतिक डिस्कोर्स में सियासी परिवारों की विरासत देखकर लगता है कि यहां इन परिवारों से संबंध रखने वाले नेता ही युवा कहला सकते हैं, फिर वो चाहे 40 साल के हों या फिर 50 के। जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सचिन पायलट, अखिलेश यादव और उमर अब्दुल्ला। या फिर हो सकता है जिनके चेहरे जवां दिखते हों, शरीर से फिट लगते हों, इंग्लिश बोलने की अद्भुत क्षमता रखते हों, खाने-पीने के मामले में विशेषज्ञ हों और आज के जमाने में ‘वोक पर्सनैलिटी’ हो तो वही युवा नेता की कैटेगिरी में आ सकता है। लेकिन अमित शाह इस पॉप्युलर छवि के ढांचे में फिट नहीं बैठते हैं। चाहे उनके वजन की बात हो या उनके सिर से उड़ गए बालों की लेकिन फिर वो 55 की उम्र में भी देश के सबसे युवा और सबसे सक्सेसफुल लीडर कहे जा रहे हैं।
भाजपा के कार्यकर्ता शाह की बातें सम्मानपूर्वक सुनते हैं। शाह को इलेक्शन मशीन के तौर पर जाना जाता है। कहा जा रहा है कि अमित शाह की बॉयोग्राफी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ द बीजेपी’ कार्यकर्ताओं और नेताओं द्वारा जमकर खरीदी गई है। कई नेताओं ने किताब का हिंदी संस्करण अपनी बीवियों के लिए भी खरीदा है। भाजपा के कई लोगों से बात करने पर पता चलता है कि वो शाह की इस किताब को भारतीय राजनीति की बाइबिल के तौर पर देखते हैं। शाह किसी भी दूसरे ‘युवा’ नेता की तरह अहंकारी हैं, अति आत्मविश्वासी (वोटिंग होने से पहले ही जीत की घोषणा कर देना) हैं और ज्यादातर चीजों को नकारते नजर आते हैं। गत दिनों संसद में दिल्ली के दंगों पर दिए गए उनके जवाब। अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य से आर्टिकल-370 खत्म करने के दिन संसद में उन्होंने सीना चौड़ा करते हुए कहा था, ‘कश्मीर के लिए हम जान दे देंगे, क्या बात करते हैं।’ 370 पर विपक्ष संसद में दलीलें भी पेश नहीं कर पाया। विपक्ष को अब जान जाना चाहिए को वो एक युवा नेता का ही सामना कर रहा है।
अमित शाह खुद को यूथ आइकन के तौर पर स्थापित करने में कामयाब रहे हैं जो पुराने खयालात और मॉडर्निटी एक साथ लेकर चल रहे हैं। संक्षेप में कहें तो एक आदर्श बालक की तरह। कपड़ों और अपने शब्दों के चयन और अपनी पसंद द्वारा वो खुद को किसी वैदिक छात्र की तरह पेश करते हैं। जो भारत के सुनहरे अतीत (हिंदू अतीत) को बार-बार दोहराता रहता है। अपने परिवार के जरिए, वो किसी आधुनिक फैमिली मैन की छवि बनाने में भी नहीं चूकते। पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपनी किताब ‘2019: हाऊ मोदी वन इंडिया’ में बताते हैं कि अमित शाह ने उन्हें बताया कि वो परिवार के साथ बिताया वक्त मिस करते हैं। राजनीति में व्यस्तता के चलते वो परिवार के साथ छुट्टियां मनाने नहीं जा पाते। भारत में राजनेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वो राजनीति के अलावा कोई अलग जीवन न बिताएं।
सांस्कृतिक तौर पर भी वो भारत के रूढि़वादी युवाओं को किसी खतरे की तरह नजर नहीं आते, बल्कि वो लिबरल और वोक जनरेशन के लोगों के लिए एक थ्रेट की तरह दिखाई देते हैं। लेकिन जैसा कि कोई फिल्मी अंदाज में कह सकता है- आप अमित शाह को पसंद करें या नापसंद, आप उन्हें इग्नोर नहीं कर सकते। वो हर जगह हैं- सोशल मीडिया से लेकर देश की पार्लियामेंट तक। साफतौर पर वो देश के युवाओं के एक वर्ग का नेतृत्व कर रहे हैं।
आज राजनीति के चाणक्य बन चुके अमित शाह का किसी जमाने में राजनीति से दूर-दूर तक का नाता नहीं था। उनका जन्म प्रसिद्ध व्यापारी अनिलचंद्र शाह के घर हुआ था। हालांकि, वह बचपन में ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़ गए थे। स्कूली दिनों में वो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के नेता बन गए। जबकि ग्रेजुएशन के समय शाह संघ के आधिकारिक कार्यकर्ता थे। उन्हें पहला बड़ा राजनीतिक मौका 1991 में मिला, जब लालकृष्ण आडवाणी को गांधीनगर संसदीय क्षेत्र से चुनाव लडऩा था। उनके चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी अमित शाह पर थी। इसके बाद 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के चुनाव प्रचार का जिम्मा भी उन्होंने ही संभाला था। मोटा भाई ने सबसे पहले 1997 में गुजरात की सरखेज विधानसभा सीट से उप चुनाव जीता। इस तरह उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। करीब छह साल बाद वो गुजरात सरकार में गृहमंत्री बन गए और नरेंद्र मोदी के राज्य की राजनीति से केंद्र की राजनीति में कदम रखने के बाद वह भाजपा के सर्वेसर्वा बन गए हैं।
सियासी गलियारे में भले ही शाह को चाणक्य कहा जाता है लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है जब उनका प्लान फेल रहा। ताजा उदाहरण दिल्ली, महाराष्ट्र और झारखंड का है। महाराष्ट्र में तो उन्होंने मुख्यमंत्री भी बनवा दिया, लेकिन दांव काम नहीं आया। महाराष्ट्र में जो कुछ भी हुआ वह करीब डेढ़ साल पहले यानी मई, 2018 में कर्नाटक में भी हो चुका था। दरअसल 222 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिली थीं जो बहुमत के लिए जरूरी 112 के आंकड़े से 8 कम थीं। भाजपा इस उम्मीद में थी कि कांग्रेस और जद (एस) के कुछ विधायकों को अपने पाले में लाकर उनसे इस्तीफा दिलवाकर वह सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया। 17 मई, 2018 को येदियुरप्पा ने सीएम पद की शपथ ली। इसके खिलाफ कांग्रेस और अन्य दल सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। कोर्ट ने येदियुरप्पा को उसी दिन बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। सबकी नजरें विधानसभा पर थीं लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले ही येदियुरप्पा ने विधानसभा में अपने भाषण के दौरान इस्तीफे का ऐलान कर दिया। यही नहीं गुजरात में भी उनकी रणनीति फेल हुई थी। राज्यसभा चुनाव 2017 में गुजरात की 3 सीटों में से 2 पर भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी जीते लेकिन तीसरी सीट पर कांग्रेस के अहमद पटेल विजयी हुए। भाजपा कुछ कांग्रेस विधायकों को अपने पाले में खींचने में कामयाब हो गई और आखिर तक सस्पेंस बना रहा कि अहमद पटेल और भाजपा के बलवंत राजपूत में से कौन जीतेगा। भाजपा अपने प्लान में तकरीबन कामयाब हो चुकी थी लेकिन एक तकनीकी पेंच ने उसका बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया। दरअसल कांग्रेस के 2 बागी विधायकों के वोट को लेकर विवाद खड़ा हो गया। दोनों ने अपना वोट डालने के बाद भाजपा के एक नेता को बैलेट दिखा दिया था कि उन्होंने किसको वोट दिया। इस पर कांग्रेस ने हंगामा कर दिया। कांग्रेस ने कहा कि दोनों ने वोट की गोपनीयता का उल्लंघन किया है। कांग्रेस चुनाव आयोग पहुंच गई। वोटों की गिनती रुक गई। आधी रात दोनों दलों के नेता चुनाव आयोग पहुंच गए। आखिर में चुनाव आयोग ने दोनों विधायकों के वोट को खारिज कर दिया और अहमद पटेल चुनाव जीत गए।
उत्तराखंड में भी 2016 में भाजपा को मात खानी पड़ी थी। दरअसल राज्य में हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस के कुल 35 विधायकों में से 9 विधायकों ने रावत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। इसी बीच राज्यपाल ने केंद्र को रिपोर्ट भेज दी कि राज्य में संवैधानिक तंत्र नाकाम हो गया है, लिहाजा राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। इसके बाद नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी सिफारिश तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास भेज दी। राष्ट्रपति मुखर्जी ने सिफारिश मान ली और वहां राष्ट्रपति शासन लग गया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने हरीश रावत सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश दिया जो रावत सरकार ने साबित कर दिया। इस तरह उत्तराखंड में रावत सरकार बहाल हो गई और राष्ट्रपति शासन हट गया।
राजनीति का सबसे ताकतवर चेहरा
इस बात से भी नहीं नकारा जा सकता है कि ब्रांड अमित शाह हमारे समाज में छा गए हैं। कोई भी थोड़े प्रपंच करके या चालाकी से कुछ हासिल कर लेता है तो वह खुद को अमित शाह समझने लगता है। अमित शाह पूरी सरकार, एनडीए और भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ताकतवर और अहम चेहरा हैं। यह बात तब और पुख्ता हुई, जब उन्हें पहली बार मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के तौर पर शामिल किया गया। ऐसे में वह सरकार के साथ ही देश में भी पीएम के बाद सबसे शक्तिशाली सियासी नाम माने जा रहे हैं।
क्या बिस्वा भाजपा के अगले शाह साबित हो पाएंगे
भाजपा को जल्द ही एक ऐसा नेता खोजना पड़ेगा जो अमित शाह की जगह ले सके, जो कि कुशल चुनावी रणनीतिकार हो और पूरे देश में चुनाव के लिए रणनीति का प्रबंधन कर सके। यह स्पष्ट हो रहा है कि जेपी नड्डा वो नाम नहीं है जो ये कर सके। वो सिर्फ अमित शाह की जगह लेने वाले हो सकते हैं। अगर भाजपा की मातृत्व विचारधारा वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और खुद पार्टी अगर चाहे तो असम के हिमंत बिस्वा सरमा ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं। हिमंत बिस्वा सरमा बिल्कुल अमित शाह की तरह ही हैं- राजनीति में जोड़-तोड़ करने वाले, कठोर, चतुर, मेहनती और सत्ता पाने के लिए ललक वाले। सरमा कुछ मोदी की तरह भी हैं- जो अपने क्षेत्र में लोकप्रिय भी हैं।
- इन्द्र कुमार