21-Mar-2020 12:00 AM
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अपने जल-जीवन-हरियाली अभियान के तहत पर्यावरण संरक्षण पर हालिया समीक्षा बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तालाबों, नहरों और नदियों के आसपास रहने वाले भूमिहीन लोगों के लिए एक घोषणा की। उन्होंने कहा कि उन्हें या तो रहने के लिए जमीन मुहैया कराई जाएगी या जमीन खरीदने के लिए धन मुहैया कराया जाएगा ताकि वे अपने लिए घर बना सकें। उन्होंने अधिकारियों को राज्य भर में ऐसे लोगों की पहचान करने में तेजी लाने के आदेश जारी किए। पिछले महीने, राज्य सरकार ने इस योजना को प्रचारित और लोकप्रिय बनाने के लिए ‘मानव श्रृंखला’ बनाई थी। 2018 में, सीएम ने मुख्यमंत्री ग्राम आवास योजना के तहत बेघर लोगों की सहायता के लिए 60,000 रुपए की राशि की घोषणा की थी। भूमिहीन आबादी के लिए यह नवीनतम घोषणा भूमि सुधार के मामले में नीतीश कुमार की खोखली बातों की याद दिलाती है।
आजादी के बाद बिहार देश का पहला ऐसा राज्य था जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म किया था, लेकिन जमींदारों से उनकी अतिरिक्त भूमि नहीं छीनी गई क्योंकि सत्तारूढ़ दल उच्च जाति के जमींदारों से भरा था, जिन्होंने कृषि सुधारों का एक उदारवादी, जमींदार-उन्मुख मार्ग चुना था। प्रभावी ढंग यह भूमि सुधार का एक खोखला प्रयास था। 1962 में, भूमि सीमा अधिनियम पारित हुआ था, लेकिन उसमें मौजूद खामियों का उपयोग करते हुए, जमींदारों ने अपने बटाइंदारों को बड़े पैमाने पर बेदखल कर दिया था। अंडर-रैयतों और बटाइंदारों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए 1970 में बिहार टेनेंसी एक्ट 1885 में संशोधन किया गया था। इसके अतिरिक्त मजदूरों और किसानों के हितों की रक्षा के लिए बिहार विशेषाधिकार प्राप्त होमस्टेड टेनेंसी एक्ट और बिहार मनी लेंडर एक्ट लागू किया गया। बिहार मुख्य रूप से ग्रामीण और कृषि प्रधान प्रदेश है, जहां राज्य की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है और बड़े पैमाने पर कृषि में लगी हुई है। चूंकि राज्य में एक मजबूत पहचान-आधारित समाज है, यह सामाजिक संरचना है जो संसाधनों तक पहुंच निर्धारित करती है। सभी संसाधनों के बीच, भूमि पर कब्जा उसका एक ऐसा पैरामीटर है जो किसी व्यक्ति या परिवारों को समाज में उनकी हैसियत से जोड़ता है। नीतीश कुमार के समय में भूमि सुधार एक बार राजनीतिक हलकों में एक बहुचर्चित मुद्दा बन गया था, जब बिहार भूमि सुधार आयोग (2006-08) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट, जिसकी अध्यक्षता देबब्रत बंदोपाध्याय ने की थी, और रपट को अप्रैल 2008 में प्रस्तुत किया गया था। मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट के प्रति अपनी अस्वीकृति की घोषणा अक्टूबर 2009 में की थी। बंदोपाध्याय को पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के तहत भूमि सुधार के वास्तुकार के रूप में श्रेय दिया जाता है।
जुलाई 2010 में भूमि सुधारों पर बंदोपाध्याय ने भूमि की हदबंदी में सुधारों को लागू करने और भूमि रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण के अलावा बटाईंदारों की रक्षा के लिए नया अधिनियम लाने के लिए कुछ सुझाव दिए थे। आयोग की रिपोर्ट के तुरंत बाद, एक शक्तिशाली लॉबी जिसमें ज्यादातर उच्च जाति और कुछ पिछड़ी जाति के लोग शामिल थे, ने ऐसे कदम का विरोध किया जो बटाईंदारों को कानूनी अधिकार देता हो। अपनी पार्टी और सत्तारूढ़ गठबंधन यानि जद(यू)-भाजपा गठबंधन के भीतर इसे लेकर उठापठक ने नीतीश को आसानी से भूमि सुधारों के अपने-अपने चुनावी वादे से पीछे हटने को मजबूर कर दिया। उन्होंने जनता को भरोसा दिलाया कि बटाईंदारों की सुरक्षा के लिए कोई नया कानून नहीं आएगा।
गौरतलब है कि भूमि सुधार आयोग की तीन प्रमुख सिफारिशें थीं। पहली यह कि हर प्रकार की भूमि को 15 एकड़ से भिन्न हद वाली छह श्रेणियों में भूमि के वर्गीकरण की वर्तमान प्रणाली को खत्म करना। दूसरी 16.68 लाख घरों में से प्रत्येक को न्यूनतम कृषि योग्य श्रमिकों को 0.66 एकड़ और 1 एकड़ सीलिंग की अतिरिक्त भूमि आवंटित करना और 5.48 लाख गैर-कृषि ग्रामीण श्रमिकों में से प्रत्येक को कम से कम 10 डेसीमल भूमि (एक एकड़ का दशमलव=100 वां भाग) आवंटित करना। तीसरी बटाईंदार को उपज का 60 प्रतिशत हिस्सा मिले (यदि भू-स्वामी उत्पादन की लागत वहन करता है) नहीं तो उसे 70 से 75 प्रतिशत मिले (अगर बटाईंदार उत्पादन का खर्च वहन करता है), इसके लिए बटाईंदार एक्ट लागू किया जाए। आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि भूमि के स्वामित्व के बहुत ही विचित्र पैटर्न के कारण बिहार की कृषि में एक संरचनात्मक अड़चन थी और इसका कारण समझना मुश्किल नहीं था। आयोग के अनुसार, भूमि सुधारों के अभाव में न केवल बिहार के भीतर निरंतर सामंती वर्चस्व कायम है, बल्कि राज्य में सस्ते श्रम की निरंतर आपूर्ति भी आसानी से उपलब्ध है।
एक अवास्तविक सामाजिक न्याय
2009 में भूमि सुधार के विचार को खारिज करने के बाद नीतीश कुमार ने 2013 में राज्य के महादलित परिवारों को तीन डेसीमल भूमि वितरित करने का एक कार्यक्रम शुरू किया। सरकार ने इस योजना के तहत 2.52 लाख लाभार्थियों की पहचान करने का दावा किया है। अगले वर्ष, उनके उत्तराधिकारी जीतनराम मांझी (मुसहर समुदाय से आने वाले पहले मुख्यमंत्री) ने इसे 5 दशमलव तक बढ़ा दिया था और दक्खन देहानी कार्यक्रम को भी लागू किया, जो दलितों और महादलितों को घर बनाने के लिए भूमि प्रदान करता था और उनका स्वामित्व भी देता था। हालांकि, यह केवल एक टोकन चाल थी। बेतिया में स्थित भूमि-अधिकार कार्यकर्ता पंकज से बात की, जो ऑपरेशन दक्खनी के सदस्य भी थे, (भूमिहीनों की मदद करने के लिए राज्य सरकार की पहल) ने कहा कि बिहार के राजस्व विभाग के अनुसार, राज्य में 1,65,400 परचाधारी या ‘जिन लोगों को अधिनियम के तहत भूमि आवंटित की गई थी’ है। वह कहते हैं कि पश्चिमी चंपारण से सरकार का डेटा भी गलत है। विभाग का दावा है कि पश्चिमी चंपारण में केवल 12,000 लोगों को ही कब्जा मिलना बाकी है, लेकिन यह संख्या 50,000 है।
- विनोद बक्सरी