भाजपाइयों की परफॉर्मेंस खराब
19-May-2020 12:00 AM 517

वैज्ञानिक पत्रकार और लेखिका लॉर स्पीन्नी ने 2017 में प्रकाशित अपनी किताब 'पेल राइडर : द स्पैनिश फ्लू ऑफ 1918 एंड हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’ में लिखा है— 'हम युद्धों को कुछ दिनों तक याद रखते हैं, फिर धीरे-धीरे उन्हें भूल जाते हैं; जबकि महामारियों को भूल जाते हैं और फिर धीरे-धीरे उन्हें याद रखने लगते हैं।’ वैसे, भाजपा के नेतागण जनता की याद्दाश्त को लेकर चिंतित नहीं हैं। उन्हें भरोसा है कि मोदी अपनी पसंद का समय चुनकर एक नया आख्यान गढ़ देंगे, और जनता भी उसी तरह माफ कर देगी और सब कुछ भूल जाएगी जैसे उसने नोटबंदी के बाद किया था। आखिर, लोकसभा चुनाव चार साल दूर है।

कोरोना की महामारी के बावजूद भाजपा के समर्थकों के लिए खुश होने के तीन-तीन कारण हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर है, गृहमंत्री अमित शाह नेपथ्य से पार्टी को चला रहे हैं, और विपक्ष हमेशा की तरह बिखरा हुआ है। फिर भी भाजपा के समर्थक खुश नहीं दिख रहे। पार्टी के लिए चिंता की वजह यह है कि उसके मुख्यमंत्री वक्त की मांग के मुताबिक काम न कर पाए और संकट का कामयाबी से सामना करके मोदी के दूत न बन पाए। जो मुख्यमंत्री सचमुच कोरोना-योद्धा बनकर उभरे उनमें अधिक संख्या गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों की ही है- केरल के पिनराई विजयन, ओडिशा के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे, राजस्थान के अशोक गहलोत, पंजाब के अमरिंदर सिंह, छतीसगढ़ के भूपेश बघेल, तमिलनाडु के एडाप्पड़ी पालनीस्वामी। भाजपा के केवल सर्वानंद सोनोवाल (असम), मनोहरलाल खट्टर (हरियाणा) ही बेहतर काम करके दिखा पाए।

वैसे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 'प्रदेश की 23 करोड़ जनता के प्रति कर्तव्यबोध के कारण’ अपने पिता की अन्त्येष्टि में न जाने का जो फैसला किया उसकी काफी प्रशंसा हुई। उप्र में कोविड-19 पॉजिटिव मामलों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम है। लेकिन उनके कामकाज पर सबकी नजर बनी हुई है क्योंकि उनके प्रदेश में टेस्टिंग अभी कुछ दिनों पहले ही शुरू की गई है। 25 अप्रैल के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर टेस्टिंग का औसत देश में सबसे नीचा था- (483 के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले मात्र 246)। 2 मई के आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में टेस्टिंग का औसत 425 था जबकि राष्ट्रीय औसत 758 था। कोविड-19 से लड़ने का बहुप्रचारित 'आगरा मॉडल’ फिसड्डी साबित हुआ है। अब आदित्यनाथ पर इस संकट का 'संप्रदायीकरण’ करने का आरोप लगाया जा रहा है क्योंकि लखनऊ में कोरोना के हॉटस्पॉट की नाम उन इलाकों की मस्जिदों के नाम पर रखे गए हैं। इसके मुख्यमंत्रियों का कामकाज भाजपा के लिए चिंता का कारण होना चाहिए, क्योंकि मतदाता लोकसभा और विधानसभाओं में अलग-अलग तरीके से मतदान करने लगे हैं, नेता नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी में फर्क करने लगे हैं। राज्यों में भाजपा ने कोविड-19 का जिस तरह मुकाबला किया है उससे उसके गौरव में कोई इजाफा नहीं हुआ है। मध्य प्रदेश में उसका सामना इस आरोप से है और यह सही भी है कि उसने जनता के स्वास्थ्य की कीमत पर, जिससे कई जानें जा सकती हैं, सत्ता की राजनीति को तरजीह दी।

भाजपा-शासित गुजरात ने सबसे ज्यादा मौतों का संदिग्ध रिकॉर्ड बनाया है। वहां सरकार के प्रयास बेहद नाकाफी हैं। जब राज्य सरकार का पूरा ध्यान कोविड-19 से लड़ने पर होना चाहिए था, वह 'नमस्ते ट्रम्प’ के आयोजन में व्यस्त थी और इसके बाद वह दलबदल करवाने में व्यस्त हो गई थी ताकि राज्यसभा की एक सीट कांग्रेस न झटक ले जाए। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कोविड-19 से कुछ बेहतर मुकाबला किया लेकिन गलत कारणों से सुर्खियों में रहे उनके एक मंत्री बी. श्रीरामुलु ने अपनी बेटी की शादी पर शानदार आयोजन किया। मुख्यमंत्री भाजपा के एक विधायक के बेटे की शादी में जा पहुंचे, राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी को अपने बेटे की शादी का समारोह करने की इजाजत दे दी, राज्य के मंत्रियों के बीच कलह हुई, केरल के साथ सीमा विवाद हुआ, आदि-आदि। एनडीए-शासित राज्यों में सबसे बुरा हाल बिहार का रहा। गत दिनों केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी के साथ एक वीडियो कान्फे्रंस में राज्य के भाजपा सांसदों ने कोविड-19 के मामले में राज्य सरकार के अनमने प्रयासों के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर अपना गुस्सा उतारा। इससे भी बुरा यह कि इन सांसदों ने शिकायत की कि लॉकडाउन के कारण दूसरे राज्यों में फंसे बिहारी मजदूरों और छात्रों को प्रदेश वापस न आने देकर मुख्यमंत्री ने आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एनडीए की साख को भारी धक्का पहुंचाया है। जोशी के इस वीडियो कान्फे्रंस में भाग लेने वाले एक वरिष्ठ भाजपा ने इस लेख के लेखक से कहा कि 'बिहारी लोग एक तरफ कुआं (जेडीयू) और दूसरी तरफ खाई (राजद) के बीच फंसे हैं। लेकिन आलाकमान ने फैसला कर दिया है (नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके), तो अब मोदी ही हमारे लिए उम्मीद की एकमात्र किरण हैं।’

जो हालात बने हैं उनके लिए मुख्यमंत्रियों को दोष देना बहुत आसान है लेकिन क्या वे सचमुच दोषी हैं? गुजरात को वहां के मुख्यमंत्री विजय रूपाणि के चीफ प्रिंसिपल सेक्रेटरी के. कैलाशनाथन (जो मोदी के करीबी हैं) के जरिए दिल्ली से चलाया जा रहा है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस सरकार का तख्ता पलटने में अगुवाई की, लेकिन कोविड-19 से लड़ाई में उनके हाथ बंधे नजर आते हैं। राज्य में कोविड-19 के कारण हालात बिगड़ते रहे लेकिन हफ्तों तक 'सुपर सीएम’ की भूमिका में आने का फैसला उनका अपना नहीं था। वे दिल्ली की सत्ता मंडली में शामिल नहीं थे इसलिए जब कमलनाथ को हटाने का मकसद सध गया तो उन्हें अपने भरोसे छोड़ दिया गया।

काफी शोर-शराबे के बाद चौहान को एक छोटा-सा मंत्रिमंडल दिया गया, लेकिन इससे उनका काम आसान नहीं हुआ है। उन्हें गृह और स्वास्थ्य मंत्रालय नरोत्तम मिश्र को देने पड़े, जो अमित शाह के करीबी माने जाते हैं। भोपाल में जब भाजपा विधायक दल के नेता का चुनाव हो रहा था तब मिश्रा के समर्थक नारे लगा रहे थे- 'हमारा मुख्यमंत्री कैसा हो, नरोत्तम मिश्रा जैसा हो’। कर्नाटक में येदियुरप्पा को गद्दी से अलग नहीं रखा जा सकता था क्योंकि उनकी वजह से ही कुमारस्वामी सरकार का पत्ता साफ हुआ, फिर भी वे मोदी-शाह का भरोसा नहीं जीत पाए हैं। इसके चलते उनकी सरकार में हर कोई अपनी मर्जी चला रहा है। बिहार में, अमित शाह ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था। राज्य के भाजपा नेता आज चाहे जितना गुस्सा जाहिर करें, उन्हें हालत को कबूल करना पड़ेगा और यह उम्मीद रखनी पड़ेगी कि लालू यादव के 'जंगल राज’ का डर नीतीश कुमार की अक्षमता और बढ़ती आलोकप्रियता की भरपाई करेगा।

एनडीए के कुछ मुख्यमंत्री कोविड-19 से लड़ने में कमजोर साबित होते हैं तो क्या इससे फर्फ पड़ सकता है? ऊपर से लगता है कि नहीं पड़ेगा। कम से कम मोदी को तो नहीं पड़ेगा, क्योंकि कोरोना संकट में उनकी लोकप्रियता बढ़ी ही है। वे मजबूती से डटे हुए हैं, उनका कोई विश्वसनीय प्रतिद्वंद्वी नजर नहीं आता। लेकिन यह संकट भाजपा के तेज पतन का कारण बन सकता है, जो दिसंबर 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में उसकी हार से शुरू हुआ था। अगला विधानसभा चुनाव बिहार में इस साल अक्टूबर-नवंबर में होना है। इसके बाद असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में चुनाव होंगे। इनमें से अंतिम तीन राज्य भाजपा के लिए महत्व नहीं रखते क्योंकि उनमें उसका कोई दावा नहीं है। असम में उसकी स्थिति अच्छी है, जहां कोरोना अभी बड़े संकट के रूप में सामने नहीं आया है। लेकिन एनडीए-शासित बिहार और तृणमूल कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के चुनाव भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। बिहार में विपक्ष जिस तरह बिखरा हुआ है और जातीय समीकरण भाजपा के काफी अनुकूल है, इसलिए वहां के चुनाव नतीजे यह पहला संकेत देंगे कि कोरोना संकट से निपटने में मोदी सरकार के प्रयासों पर किस तरह की चुनावी मुहर लगने वाली है। पश्चिम बंगाल में केंद्र सरकार और राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने ममता बनर्जी सरकार की पोल अच्छी तरह खोली है कि वह कम टेस्टिंग, आंकड़ों में हेरफेर के जरिए कोरोना संकट किस तरह हल्के में ले रही थी। इसके बाद इस संकट के मामले में राज्य सरकार के प्रयासों में भारी बदलाव आया है।

जोखिमों का पुनर्वितरण

यदि मोदी लॉकडाउन की शेष अवधि और पाबंदियों में फेरबदल संबंधी निर्णय मुख्यमंत्रियों पर छोड़ देते हैं, तो वह एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे जिसने समय रहते फैसले किए, स्थिति को काबू में किया और फिर, सच्ची संघीय भावना से, आगे के फैसले बाकियों पर छोड़ दिए। लॉकडाउन संबंधी शुरुआती भाषण के बाद मोदी आगे की घोषणाओं में अधिक संघीय और सलाहकारी नजर आए। जोखिमों को आगे बांटना, संकट से बाहर निकलने की उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। निश्चित रूप से मोदी समर्थक इस बात को उछालेंगे कि उनके आलोचकों को दोनों ही स्थितियों से समस्या होती है, जब फैसले केंद्रीय स्तर पर लिए जाते हों और जब वह इसे राज्यों पर छोड़ते हों। लेकिन यहां बात टाइमिंग की है। भारत को फिर से खोलने का निर्णय राजनीतिक जोखिमों से भरा हुआ है और इसलिए यह साझा निर्णय बन जाता है।

राज्योंं के हाथ बंधे

कोरोना के इस संक्रमणकाल में केंद्र मॉनीटर की तरह कार्य कर रहा है। वहीं सभी राज्य केंद्र के दिशा-निर्देशों का बखूबी पालन कर रहे हैं। इसलिए इस संकट की स्थिति में कोई भी अपने हिसाब से कदम नहीं उठा रहा है। हालांकि केंद्र सरकार ने राज्यों को फ्री हैंड कर दिया है कि वे अपने हिसाब से स्थिति को भांपते हुए राज्य में गतिविधियों को संचालित कर सकते हैं। लेकिन क्या मुख्यमंत्रियों के लिए सभी प्रतिबंधों को हटाना संभव होगा या वे अतिरिक्त सतर्कता बरतेंगे? जिस अधीरता के साथ वे प्रवासी श्रमिकों को अपनी सीमाओं से बाहर करना चाहते हैं (अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, के. चंद्रशेखर राव) और आवागमन रोकने के लिए जिस तरह सड़कों पर गड्ढ़े बनाए जा रहे हैं (मनोहरलाल खट्टर), उससे यही संकेत मिलता है कि वे सावधानी बरतेंगे और लॉकडाउन हटाने की जल्दी नहीं करेंगे। खासकर जब लौट रहे प्रवासी पॉजिटिव पाए जा रहे रहे हों और कई राज्यों में ग्रीन जोन कम हो रहे हों। भारत में कोविड-19 हॉटस्पॉट जिलों की संख्या एक पखवाड़े पूर्व के 170 से घटकर 129 हो गई है, लेकिन इसी अवधि में संक्रमण मुक्त जिलों या ग्रीन जोनों की संख्या भी 325 से घटकर 307 रह गई है।’ मोदी सरकार ने भले ही लॉकडाउन को आसान बनाने के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हों। लेकिन उसका क्रियान्वयन राज्यों में रंगों वाले जोनों और मुख्यमंत्रियों के सतर्क फैसलों पर निर्भर करेगा। हालांकि राज्य इस संबंध में अपना हाथ बंधा हुआ पा सकते हैं। दरअसल, लॉकडाउन के कारण जो आर्थिक क्षति पहुंची है, राज्यों को उम्मीद है कि केंद्र सरकार उसकी भरपाई करेगा। इसलिए कोई भी केंद्र के दिशा-निर्देश का उल्लंघन नहीं कर रहा है।

- दिल्ली से रेणु आगाल

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