भाजपा का नीतीश प्रेम
23-Jun-2020 12:00 AM 3755

 

एक बार फिर भाजपा ने कहा है कि बिहार में गठबंधन नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगा। खासकर गृहमंत्री अमित शाह इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं। उनका इसे बार-बार कहना ही, अपने आप में मायने रखता है। अमित शाह को ये कहते रहना पड़ता है, क्योंकि बिहार की राजनीतिक वास्तविकता ऐसी है कि किसी को आश्चर्य नहीं होगा, अगर भाजपा नीतीश कुमार के बिना चुनाव लड़ने का फैसला कर ले और अंत में बिहार को एक भाजपा मुख्यमंत्री मिल जाएगा। लेकिन बिहार को एक भाजपा मुख्यमंत्री देने की अमित शाह की अनिच्छा, ताज्जुब में डालती है क्योंकि उन्हें एक आक्रामक खिलाड़ी माना जाता है, जो आगे निकलकर बैटिंग करता है। इसके लिए सामान्य रूप से दिए जा रहे स्पष्टीकरण समझ में नहीं आ रहे। नहीं, नीतीश कुमार का जेडी(यू), और लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), एक बार फिर वापस नहीं आ सकते। याद है कि दोनों कितनी बुरी तरह अलग हुए थे? न तो वो एक-दूसरे पर भरोसा करेंगे, और न ही जनता उन पर एकसाथ भरोसा करेगी।

इसके अलावा, प्रवर्तन निदेशालय की धमकी, आरजेडी और जेडी(यू) दोनों को, इस बार भाजपा को हराने की कोशिश नहीं करने देगी। आखिरकार, नीतीश कुमार को भी एक तथाकथित सृजन घोटाले की चिंता करनी है। नहीं, नीतीश कुमार बिहार में अजेय नहीं हैं। 2020 का साल, 2010 की तरह नहीं हैं। बतौर नेता उनका कद घट चुका है, और तीसरे कार्यकाल में हर साल, उनकी राजनीतिक पूंजी कम ही हुई है। नीतीश कुमार अभी तक खेल में बने हुए हैं तो सिर्फ इसलिए, कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। युवा तेजस्वी यादव अभी तक निष्क्रियता दिखाने में ही चैम्पियन साबित हुए हैं। टीना (कोई विकल्प नहीं) फैक्टर को छोड़ दें, तो बिहार के लोग बदलाव के लिए तरस रहे हैं। आप इसे पटना की गलियों में, गंगा के पुलों पर, सीमांचल के गांवों में, हर जगह सूंघ सकते हैं। हवा में बदलाव है, लेकिन कोई उसे पकड़ नहीं पा रहा।

भाजपा ही वो पार्टी है जो चुनौती देने वाले विपक्ष की जगह भर सकती है। भाजपा के लिए सही समय है कि नीतीश कुमार को छोड़ दे, और हवा का रुख भांपने वाले, लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के रामविलास पासवान जैसे छोटे सहयोगियों के साथ, अकेले दम पर बिहार चुनाव लड़े। अकेले खड़े होने में भाजपा को एक डर सता सकता है- गैर-यादव ओबीसी वोट। बिहार में भाजपा को अगड़ी जातियों की पार्टी के रूप में देखा जाता है, और बिहार की सियासत में नीतीश कुमार, गैर-यादव ओबीसी वोटों, खासकर ईबीसी (अति पिछड़े वर्ग) के वोटों के प्रतीक की हैसियत से अहमियत रखते हैं, जिस वर्ग को उन्होंने खुद पैदा किया है। इस पुराने हिसाब में इस सच्चाई को अनदेखा किया जाता है, कि भाजपा काफी लंबे समय से, ईबीसी वोट पर काम कर रही है और 2015 में विधानसभा चुनाव हारने के समय भी, उसने इस वर्ग से अच्छे खासे वोट लिए थे। सिर्फ एक ही मुद्दा है और वो है मुख्यमंत्री की कुर्सी। जिस तरह पंजाब में एक आम राय है, कि मुख्यमंत्री सिख होना चाहिए और वो भी जाट, उसी तरह बिहार सियासत में भी एक आम सहमति है, कि मुख्यमंत्री किसी ओबीसी समुदाय से होना चाहिए। भाजपा विरोधी ओबीसी मतदाताओं से कहते हैं कि भाजपा किसी ऊंची जाति वाले को मुख्यमंत्री की गद्दी पर बिठाकर, अगड़ी जातियों का दबदबा कायम करना चाहती है। आखिरकार, क्या उन्होंने उत्तर प्रदेश में यही नहीं किया?

इस समस्या का एक सीधा सा समाधान है। एक मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दीजिए, जो ओबीसी कम्युनिटी से हो। ये समझ में आता है कि शायद भाजपा उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को, मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना नहीं चाहेगी। वो भले ही काबिल हो सकते हैं, लेकिन उनके बारे में मजाक किया जाता है कि वो भाजपा के भीतर जेडी(यू) के नुमाइंदे हैं। अगर भाजपा कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करना चाहती है, तो उसके पास चेहरों की कमी नहीं रहेगी। पार्टी ने नित्यानंद राय को एक ओबीसी नेता के तौर पर तैयार किया और वो अब केंद्रीय गृह मंत्रालय में अमित शाह के कनिष्ठ सहकर्मी हैं। वो एक यादव हैं। भाजपा के पास काफी समय है एक ऐसा लीडर तैयार करने का, जो मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर स्वीकार्य हो और नीतीश कुमार के खिलाफ बढ़ रही सत्ता-विरोधी भावना को देखते हुए, एक नए चेहरे को जल्द ही स्वीकार कर लिया जाएगा।

आलाकमान कल्चर

समस्या ये नहीं है कि कोई ऐसा योग्य चेहरा नहीं है, जिसे पार्टी सामने ला सके। समस्या ये है कि भाजपा किसी को घोषित करना नहीं चाहती। अगर पार्टी मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर किसी को सामने करती है, तो काफी कुछ श्रेय उस चेहरे को चला जाएगा। और कांग्रेस के हाईकमान कल्चर की तरह, मोदी-शाह भी कोई इलाकाई क्षत्रप पैदा नहीं करना चाहते। वो चाहते हैं कि हर चुनाव की जीत मोदी के नाम हो और जनता के बीच उनकी प्रतिष्ठा बढ़े। नीतीश कुमार को छोड़कर मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना चुनाव लड़ना, भाजपा के लिए थोड़ा जोखिम भरा हो सकता है। और फिलहाल वो जोखिम उठाने के मूड में नहीं है। भाजपा ये कर सकती है कि चुनावों के बाद कोई सरप्राइज दे सकती है। बिहार को संबोधित एक 'वर्चुअल रैली’ में अमित शाह ने कहा है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को, दो-तिहाई बहुमत के साथ जीत हासिल होगी। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा और रामविलास पासवान की एलजेपी के पास मिलकर इतनी सीटें हो सकती हैं कि वो एक भाजपा मुख्यमंत्री बिठा सकते हैं। वो केवल ये कह रहे हैं कि चुनाव 'नीतीश कुमार की अगुवाई में’ लड़ा जाएगा। यही वजह है कि नीतीश कुमार के भाग्य का फैसला, सीटों के बटवारे में हो सकता है। भाजपा के लिए बहुत मुश्किल होगा कि वो नीतीश कुमार को अपने से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने दे। सौदेबाजी की अपनी बढ़त के साथ भाजपा सुनिश्चित करेगी कि वो ज्यादा से ज्यादा जिताऊ सीटों पर लड़े और मुश्किल सीटों पर जेडी(यू) को लड़ने दे। 

- विनोद बक्सरी

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