राजग ने राज्यसभा में 100 सीटों को पार कर लिया और अपने 40वें वर्ष में भाजपा भारत के प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में और मजबूत हो गई। राज्यसभा में उसकी सदस्य संख्या 86 पहुंच गई है। अपने गठन से लेकर अब तक भाजपा लगातार मजबूत होती जा रही है। भाजपा का गठन अप्रैल 1980 में किया गया था, जब उसके सदस्यों को जनता पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था, उस संयुक्त विपक्षी दल से, जिसका निर्माण 3 साल पहले इंदिरा गांधी का मुकाबला करने के लिए किया गया था। जनता पार्टी के घटकों में से एक भारतीय जनसंघ भी था, जिसे 1951 में बनाया गया था। भारत के शुरूआती चुनावों में जनसंघ को केवल कुछ ही सीटें मिलीं और यह स्थिति 1970 के दशक तक बनी रही जब वाजपेयी के नेतृत्व में बाकी विपक्ष के साथ इसका जनता पार्टी में विलय हो गया।
जब 1980 में संघ के सदस्यों को निष्कासित कर दिया गया और उन्हें एक नई पार्टी बनानी पड़ी, तो वाजपेयी ने दोबारा इसका नाम भारतीय जनसंघ रखने के आव्हान को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि बड़े समूह का हिस्सा बनकर मिले अनुभव से उन्हें काफी सीख मिली है। इससे आए दो बदलावों में से पहला था, भारतीय जनता पार्टी (जैसा कि इसका नाम वाजपेयी ने रखा था) ने अपने कैडर का विस्तार किया और पार्टी में गैर-आरएसएस व्यक्तियों को लिया। दूसरा, भाजपा का संविधान जनसंघ से अलग हो गया और यह भारत की धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के प्रति निष्ठा का वादा करता है। भाजपा के संविधान और शपथ दोनों में अभी भी यह अनूठी विशेषता है कि यह अपने सभी सदस्यों को हस्ताक्षरित करने को कहता है।
इस पार्टी ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और 1984 के उन चुनावों में उसे केवल 2 सीटें मिलीं जिसमें राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने विपक्ष को ध्वस्त कर दिया। पार्टी की किस्मत में बदलाव तब आया जब विश्व हिंदू परिषद द्वारा बाबरी मस्जिद में पूजा करने की इजाजत मांगते हुए आंदोलन शुरू किया गया, जहां दिसंबर 1949 में राम और सीता की दो मूर्तियां रखी गई थीं। नए अध्यक्ष आडवाणी के तहत धर्मनिरपेक्षता की शपथ को नजरअंदाज किया गया और पार्टी ने विहिप की मांग को अपनाया, हालांकि अयोध्या योजना न तो मस्जिद के अंदर मूर्तियों को रखे जाने के कुछ महीने बाद ही बनाई गई जनसंघ के घोषणापत्र पर थी और न ही उस समय तक भाजपा के।
अयोध्या योजना को आगे बढ़ाने के अपने निर्णय से आडवाणी ने भारतीय समाज में जो ध्रुवीकरण पैदा किया, उसने आखिरकार आरएसएस को वह सफलता दिलाई जिसकी उन्हें तलाश थी और भाजपा ने 1989 में 85 सीटें जीत लीं। वह जनता दल नामक एक अन्य गठबंधन का हिस्सा बनी लेकिन इस बार बाहर से ही इसका समर्थन किया।
जब सरकार गिरी तो आडवाणी बाबरी मुद्दे पर लौट आए और आखिरकार दिसंबर 1992 में उस भीड़ का नेतृत्व किया, जिसने इसे ध्वस्त किया और इसके बाद हुए दंगों में 2000 भारतीय मारे गए। विध्वंस और हिंसा के बाद पार्टी ने अपनी लोकप्रियता में और वृद्धि की और वापस प्रभारी बन चुके वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 के चुनाव में इसने अपनी संख्या दोगुनी करते हुए 182 कर ली। 1999 में हुए अगले चुनावों में 180 सीटें जीतकर इसने अपनी यही स्थिति कायम रखी और फिर 2004 में 138 पर फिसल गई।
सत्ता में रहते हुए भाजपा अपने अयोध्या और मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण से दूर चली गई। बदलाव 2002 के गुजरात दंगों में आया जिसके बाद वाजपेयी ने मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की असफल कोशिश की। वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा धीरे-धीरे मजबूत होती गई और केंद्र के साथ कई राज्यों में सत्तारूढ़ भी हुई। उसके बाद 2014 में ऐसा मोड़ आया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई और उसके बाद से देशभर में भाजपा की लहर इस कदर छाई कि भारत का पूरा नक्शा भगवा नजर आने लगा। हालांकि इस दौरान कई राज्यों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। लेकिन राज्यसभा चुनाव में बड़ी जीत दर्ज कर भाजपा ने अपनी मजबूती और मजबूत कर ली है।
86 पर पहुंची भाजपा
भाजपा ने पिछले साल लोकसभा चुनाव में बंपर जीत दर्ज करने के बाद अब राज्यसभा में भी बड़ी बढ़त हासिल की है। राज्यसभा के द्विवर्षीय चुनाव के नतीजों के बाद अब भाजपा के पास इस सदन में 86 सीटें हैं। यह कांग्रेस की 41 सीटों के मुकाबले दोगुनी से ज्यादा हैं। इतना ही नहीं भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के पास अब 245 सीटों वाले इस सदन में करीब 100 सीटें हो गई हैं। अगर इसमें भाजपा का साथ देने वाली पार्टी एआईडीएमके (9 सीट), बीजद (9 सीट), वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (6 सीट) और अन्य सहयोगी पार्टी और नामित सदस्यों की संख्या को जोड़ लिया जाए, तो मोदी सरकार के पास राज्यसभा में नंबर्स को लेकर कोई खास चुनौती नहीं है। गौरतलब है कि भाजपा ने इस राज्यसभा चुनाव के लिए अलग-अलग राज्यों में अपने बहुमत पर भरोसा दिखाया। इसके अलावा दूसरी पार्टी से बगावत करने वाले विधायकों का फायदा भी भाजपा को ही मिला है। खासकर कांग्रेस के बागी एमएलए का। ऐसे में 2014 से 2019 के बीच जिन कानूनों और नियमों को पास कराने में भाजपा को संख्याबल की कमी से जूझना पड़ता था, अब उन्हें पूरा करने के लिए पार्टी के पास पर्याप्त नंबर हैं। गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने 61 सीटों पर द्विवर्षीय चुनाव का ऐलान किया था। इनमें 55 वो सीटें शामिल थीं, जिनपर मार्च में ही चुनाव हो जाने थे, हालांकि कोरोनावायरस महामारी के चलते इनमें देरी हुई।
- राजेश बोरकर