लोगों को अच्छी तरह समझ में आ गया है कि किसी आपदा को झेलने के लिए देश की माली हालत ठीक होना कितना जरूरी होती है। अर्थव्यवस्थाएं रातोंरात मजबूत नहीं बन सकतीं। यानी कोरोना के संकट के बीच दूर भविष्य की बात करना फिजूल है। कोरोना से भले न निपट पा रहे हों लेकिन कोरोना से उपजी तात्कालिक समस्याओं से निपटना भी उतना ही जरूरी है। ऐसी ही एक सबसे बड़ी समस्या भड़की है बेरोजगारी की। हाल ही में सीएमआईई की रिपोर्ट में बताया गया है कि आपदा से बचाव के लिए लगे लॉकडाउन से 11 करोड़ 40 लाख मजदूर और कामगार बेरोजगार हो गए। यह संख्या रोजगार पर लगे 40 करोड़ कामगारों की एक चौथाई है। यह भी याद रहना चाहिए कि कोरोना के पहले से ही बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी। यानी कोरोना ने बेरोजगारी की आग में तेल डाल दिया।
यह मान्यता नई नहीं है। जब कभी भी देश में जीडीपी के आंकड़े अच्छे आया करते थे तो उस समय की सरकार के आलोचक कहा करते थे कि यह जॉब लैस ग्रोथ है। यानी बेरोजगारी के साथ आर्थिक वृद्धि किस काम की। उधर सरकार की तरफ से जवाब दिया जाता था कि आर्थिक वृद्धि ही रोजगार पैदा करेगी। अर्थशास्त्री बताते हैं कि होता भी यही है। सरकार के पास पैसे हों तो वह रोजगार पैदा करने वाली योजनाएं चलवा देती है। लेकिन मौजूदा हालात इसलिए विकट हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हम पहले से ही मुश्किल में चल रहे थे। पिछले दो साल से लगभग हर तिमाही में जीडीपी का आंकड़ा नीचे ही आता जा रहा था। ऐसे में बेरोजगारी के अभूतपूर्व संकट की गंभीरता को, जितनी जल्दी हो, समझ जाना चाहिए। सीएमआईई की यह रिपोर्ट बस एक सर्वेक्षण भर है। यानी यह एक मोटा अंदाजाभर है। तथ्यों के अभाव में अभी बिल्कुल भी पता नहीं है कि पहले से बेरोजगारी का आकार या वजन क्या था। लेकिन लॉकडाउन से घबराए प्रवासी मजदूरों की जितनी बड़ी भीड़ शहरों से अपने घरगांव की तरफ भागती दिख रही है उससे बेरोजगारी की भयावहता का अंदाजा मुश्किल नहीं है। ये प्रवासी मजदूर अपने गांवों में बेरोजगारी के पुराने हालात पर क्या असर डालेंगे इसका अनुमान भी कठिन नहीं है। मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले से छद्म बेरोजगारी से पीड़ित गांवों में बेरोजगारी अब दोगुनी-तिगुनी बढ़ने का अंदेशा सर पर आ खड़ा हुआ है। छद्म बेरोजगारी उसे कहते हैं जहां एक ही काम पर जरूरत से ज्यादा लोग लगे हों। अर्थव्यवस्था की पुख्ता नींव ने अब तक हालात भले ही संभाले रखे हों लेकिन इस समय अगर बेरोजगारी से नहीं निपटा गया तो अपनी 200 लाख करोड़ रुपए की अर्थव्यवस्था धरी रह जाएगी। बेशक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उस देश में उत्पादित माल के सहारे चलती है। नियम है कि माल उत्पादित तभी होता है जब उसकी मांग हो। जबकि यह भारी मंदी का संकट काल है। संकट पहले से भी चला आ रहा था। कई तिमाहियों से अधिकांश उपभोक्ताओं की आमदनी घटने से माल की मांग घट रही थी। देश से माल का निर्यात का आंकड़ा बढ़ नहीं रहा था। हालांकि अपनी बड़ी भारी आबादी के कारण हम खुद में एक बड़ा और विश्वप्रसिद्ध बाजार हैं। लिहाजा पहले भी जरूरत थी और आज तो और ज्यादा जरूरी है कि हम घरेलू उपभोक्ता को मजबूत बनाएं और घरेलू बाजार में माल की मांग पैदा करने का मौका बनाएं।
यह बात तो शौकिया अर्थशास्त्री भी जानते हैं कि मांग तब बढ़ती है जब अधिकांश उपभोक्ताओं की जेब में पर्याप्त पैसा हो। अक्सर सरकारी अर्थशास्त्री अपनी इच्छापूर्ण सोच के चलते यह समझा देते हैं कि उत्पादन कम इसलिए हो रहा है क्योंकि उत्पादकों को पैसे की दिक्कत आ रही है और इसलिए वे माल नहीं बना पा रहे हैं। कोरोना के बहुत पहले से सरकारी अर्थशास्त्रियों ने उद्योग व्यापार जगत को तरह-तरह के राहत पैकेज और भारी भरकम कर्ज बंटवाने का इंतजाम करवा दिया था। बात चार-छह महीने पुरानी ही हुई है सो इस तरह की सोच के नतीजे अभी सामने आए नहीं हैं। लेकिन इतना तय है कि भारतीय उद्योग व्यापार अब इंतजार करेगा कि कोरोना के बाद बाजार से मांग आए तभी वह उत्पादन करने के बारे में सोचे। मांग पहले या उत्पादन पहले, इस फच्चर को अभी से समझ लेना ही समझदारी है।
उद्योग जगत ने हाथ खड़े कर दिए
अर्थजगत की दीवार पर इबारत साफ लिखी है। उद्योग जगत ने प्रवासी मजदूरों को घर जाने से रोकने की कोई पहल नहीं की। कहते हैं कि बहुत से मजदूरों को पिछला बकाया भी नहीं मिला। फिर भी बेरोजगारी से घबराए मजदूर अपने गांव लौट पड़े। इससे उद्योग जगत के हालात और उसकी मंशा का अंदाजा लगता है। यानी दो-चार महीने उद्योग जगत का चक्का चल पड़ने के आसार नजर नहीं आते। उतने अर्से बाद उत्पादक इकाइयां अगर उत्पादन शुरू करने में लगेंगी तो सबसे पहले यही देखेंगी कि उनके बनाए माल के खपने की गुंजाइश बन गई है या नहीं। घरेलू उपभोक्ताओं की जेब में पैसा डालें या किसी तरह दूसरे देशों में माल के निर्यात के लिए ताबड़तोड़ ऑर्डर का जुगाड़ करें। सरकार के लिए पहला विकल्प खर्चीला है। इतने भारी भरकम सरकारी खर्च और उससे उपजी महंगाई का जाखिम उठाने का माद्दा चाहिए पड़ेगा। रही बात रातोंरात निर्यात बढ़ाने की तो यह कोई भी बता देगा कि कोरोना काल में या कोरोना बाद के काल में दूसरे देशों की हालत भी उतनी ही पतली होगी। वे तो खुद ही अपनी अर्थव्यवस्था संभालने के लिए गरीब और कमजोर देशों पर अपना माल खरीदने की दबिश बना रहे होंगे। चीन की तरह निर्यात का तंत्र विकसित करने में सालों साल लग जाते हैं। सो अपने पास एक ही विकल्प नजर आता है कि अपने घरेलू उपभोक्ताओं को ही अर्थव्यवस्था का संकट मोचक मान लें।
- राजेश बोरकर