बाजीगर कौन?
21-Mar-2020 12:00 AM 1191

हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं! शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का ये डायलॉग यूं ही मशहूर नहीं हो गया। इस डायलॉग में जीवन का सार छुपा है। जब हम हार से हारते नहीं, लगातार जीतने की कोशिश करते रहते हैं, तो हमारी जीत निश्चित होती है। हम तब तक नहीं हारते, जब तक हम हार नहीं मान लेते। कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों मप्र की राजनीति में भी देखने को मिल रही है। यहां असली बाजीगर कौन है, यह जल्द ही सामने आ जाएगा।

वक्त है बदलाव का... के नारे के साथ सत्ता में आई कमलनाथ सरकार का वक्त इतना जल्दी खराब हो जाएगा, यह किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। दरअसल, अल्पमत वाली यह सरकार शुरू से ही बैसाखी के सहारे चल रही है। उस पर कांग्रेस भी तीन धड़ों में बंटी रही। इसी का परिणाम है कि कमलनाथ सरकार 14 महीने में ही भीषण संकट में पड़ गई है और इसका बचना मुश्किल लगता है। हालांकि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अभी हार नहीं मानी है, लेकिन लगभग 22 विधायकों के समर्थन वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल हो जाने के बाद अब कांग्रेस को किसी चमत्कार का ही सहारा रह गया है। बहरहाल, कमलनाथ सरकार रहे या जाए, पर कांग्रेस नेतृत्व को उन सवालों का सामना करना चाहिए, जो इस संदर्भ में लगातार उठते रहे हैं। अभी उसका कहना है कि भाजपा विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद से ही इस सरकार को गिराने में जुटी थी। कुछ प्रेक्षकों ने इस आरोप से सहमति भी जताई है। उनका कहना है कि सत्तारूढ़ दल के विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर सरकार को अल्पमत में ला देने और फिर उपचुनावों के जरिये उनको दोबारा निर्वाचित करा लेने का जो फॉर्मूला कर्नाटक में कामयाब रहा, उसे अब मध्यप्रदेश में भी दोहराया जा रहा है। इस व्याख्या में सच्चाई के अंश हो सकते हैं, लेकिन पूरे घटनाक्रम पर नजर डालें तो लगता यही है कि मध्यप्रदेश में जो कुछ हो रहा है, उसका सीधा संबंध कांग्रेस के शीर्ष पर दिख रहे शून्य से है। देश की सबसे पुरानी पार्टी पिछले लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद से ही एक ऐसे संकट से गुजर रही है जिसकी बराबरी देश के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में शायद ही खोजी जा सके।

सत्ता संग्राम रोचक मोड़ पर

मप्र में सत्ता का संग्राम अब रोचक मोड़ पर पहुंच गया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और 22 विधायकों की बगावत के बाद भाजपा और कांग्रेस में सत्ता के लिए आर-पार की तैयारी शुरू कर दी है। फिलहाल मुकाबला बराबरी का है और दोनों पार्टियां फ्लोर टेस्ट की तैयारी कर रही हैं। संभावना जताई जा रही है कि 16 मार्च से शुरू हो रहे बजट सत्र के पहले या दूसरे फ्लोर टेस्ट कराया जा सकता है। इस टेस्ट में पास होने के लिए दोनों पार्टियों में रणनीतिक तैयारी चरम पर है। इस बीच मध्यप्रदेश में सियासी उथल-पुथल के बीच मुख्यमंत्री कमलनाथ की चिट्ठी के बाद राज्यपाल लालजी टंडन ने बेंगलुरु से इस्तीफा भेजने वाले 6 मंत्रियों इमरती देवी, तुलसी सिलावट, गोविंद सिंह राजपूत, महेंद्र सिंह सिसोदिया, प्रद्युम्न सिंह तोमर, डॉ. प्रभुराम चौधरी को कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया है। उधर, विधानसभा अध्यक्ष एनपी प्रजापति ने दो दिन बाद इनकी सदस्यता निरस्त कर दी।

इस दौरान भाजपा दिल्ली में तो कांग्रेस भोपाल में रणनीति बनाने में जुटी हुई है। 15 मार्च का दिन मप्र की राजनीति में सबसे व्यस्त दिनों में से एक रहा। दिल्ली में भाजपा के नेता कभी केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, तो कभी केंद्रीय गृहमंत्री

अमित शाह के बंगले पर मंथन करके रणनीति बनाते रहे। वहीं कांग्रेस के नेता भाजपा में सक्रिय रहे। भोपाल में सीएम हाउस राजनीति का केंद्र रहा। उधर, दोनों पार्टियों के नेता राज्यपाल से मुलाकात करके अपना-अपना पक्ष रखते रहे।

जो भी होगा फ्लोर टेस्ट में होगा

मौजूदा घटनाक्रम को देखते हुए सभी की निगाहें स्पीकर स्पीकर नर्मदाप्रसाद प्रजापति पर टिकी हुई हैं। भाजपा ने बजट सत्र के पहले दिन 16 मार्च को अविश्वास प्रस्ताव की मांग की है। स्पीकर ने कहा कि अब जो भी फैसला होगा। विधानसभा के नियमानुसार होगा। फ्लोर टेस्ट कराया जाएगा और जो बहुमत हासिल करेगा वह सत्ता में रहेगा। सूत्र बताते हैं कि बहुमत सिद्ध नहीं करने की स्थिति में मुख्यमंत्री कमलनाथ इस्तीफा देकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश भी कर सकते हैं। हालांकि स्पीकर नियमानुसार पहले फ्लोर टेस्ट कराएंगे। बहुमत हासिल नहीं करने पर भाजपा को मौका दिया जाएगा। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का कहना है कि आने वाले फ्लोर टेस्ट में हम सबको चौंका देंगे।

मप्र विधानसभा में वर्तमान में विधायकों की संख्या 222 है। इनमें कांग्रेस के 108, भाजपा के 107, निर्दलीय 4, बसपा 2 और सपा 1 विधायक हैं। भाजपा ने 106 विधायकों को दिल्ली शिफ्ट कर दिया है। कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद इनकी संख्या 92 रह गई है। चार निर्दलीय, एक बसपा (रामबाई) मिलाकर कांग्रेस के साथ 97 विधायक खुलकर हैं। भाजपा के 2 विधायक नारायण त्रिपाठी और शरद कौल लंबे समय से कमलनाथ के साथ दिखाई देते हैं। कांग्रेस को पूरा भरोसा है कि जिन 22 विधायकों के इस्तीफे हुए हैं उनमें से आधे से ज्यादा वापस लौटेंगे। यदि ऐसा होता है तो फ्लोर टेस्ट में कांग्रेस सरकार बचा भी सकती है। उधर महासचिव और प्रदेश प्रभारी, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी दीपक बाबरिया कहते हैं कि सरकार को कोई खतरा नहीं है।

नहीं आए बागी विधायक

मध्य प्रदेश के सिंधिया समर्थक 22 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है। अब गेंद विधानसभा अध्यक्ष एनपी प्रजापति के पाले में है जो कांग्रेस के नेता हैं। मप्र विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवानदेव इसरानी कहते हैं कि नियमों के मुताबिक अगर किसी सदस्य ने इस्तीफा दिया है तो उससे विधानसभा अध्यक्ष का संतुष्ट होना जरूरी है। यदि वह संतुष्ट हैं तो इस्तीफा स्वीकार कर सकते हैं। यदि स्पीकर को लगता है कि दबाव डालकर विधायकों से इस्तीफा दिलवाया गया है तो वह सदस्य से बात कर सकते हैं। साथ ही उस सदस्य को अपने समक्ष उपस्थित होने को कह सकते हैं। इसी नियम के तहत एनपी प्रजापति ने बागी 22 विधायकों को 13, 14 और 15 मार्च को विधानसभा में उनके सामने आकर स्थिति स्पष्ट करने को कहा था। लेकिन एक भी विधायक उनके समक्ष नहीं आ सके।

जानकारों का कहना है कि मध्यप्रदेश के वर्तमान हालात में राज्यपाल की कोई सीधी भूमिका नहीं है। हालांकि 16 मार्च से मध्यप्रदेश में बजट सत्र शुरू हो रहा है। बजट सत्र इस सरकार का भविष्य तय कर सकता है। इसमें कमलनाथ सरकार के बहुमत का परीक्षण हो सकता है। अगर सरकार बजट पारित कराने में असफल रहती है तो उसका गिरना तय हो जाएगा। राज्यपाल लालजी टंडन का कहना है कि वह इस पूरे मामले में अपनी नजर गड़ाए हुए हैं। यदि मध्यप्रदेश विधानसभा की कुल सदस्य संख्या 230 में से आधे से अधिक सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया तब गेंद राज्यपाल के पाले में जाएगी। यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करेगा कि वह सदन को भंग कर मध्यावधि चुनाव की सिफारिश करें या खाली सीटों पर उपचुनाव की। माना जा रहा है कि भाजपा उपचुनाव पर बल देगी जबकि कांग्रेस का जोर मध्यावधि चुनाव पर रहेगा।

विधायकों को छिपाने का खेल

मप्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद अब भाजपा और कांग्रेस में शह-मात का खेल शुरू हो गया है। कांग्रेसी नेताओं ने दावा किया है कि बागी विधायक सीएम कमलनाथ के संपर्क में हैं और वापस लौटने को तैयार हैं। उधर, भाजपा ने भी बागी विधायकों को अपने साथ बनाए रखने और अपने विधायकों को तोडऩेे से रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी है। इसी को देखते हुए अब विधायकों को छिपाने का खेल शुरू हो गया है। इस बीच भाजपा ने अपने विधायकों को किसी टूट-फूट से बचाने के लिए हरियाणा के मानेसर में शिफ्ट कर दिया था। उधर, कांग्रेस पार्टी ने भी अपने विधायकों को जयपुर भेजा था। भाजपा के खेमे में 105 विधायकों को 8-8 के ग्रुप में बांट दिया। हर ग्रुप पर नजर रखने के लिए एक ग्रुप लीडर बनाया गया है। दिल्ली पहुंचने पर विधायकों को अलग-अलग बसों से दिल्ली, मानेसर या गुरुग्राम में रखा जाएगा। वहीं कांग्रेस के 88 और 4 निर्दलीय विधायकों को विशेष विमान से जयपुर भेजा था, जहां वे एक रिसोर्ट में रखे गए थे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यहां विधायकों को रखने का पूरा इंतजाम किया था। वहीं कांग्रेस के 22 बागी विधायकों को बेंगलुरु में रखा गया है। बजट सत्र में शामिल होने के लिए जयपुर में ठहरे कांग्रेस के विधायक 15 मार्च को भोपाल आ गए। वहीं भाजपा के विधायक आधी रात के करीब भोपाल आए।

कमजोर कड़ी तलाशने में जुटी कमलनाथ सरकार

ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे के बाद उनके समर्थक मंत्री-विधायकों के सरकार के खिलाफ बागी हो जाने से जो संकट के बादल छाए हैं, उससे उबरने के लिए कमलनाथ सरकार भाजपा और बागी विधायकों की कमजोर कड़ी तलाशने में जुटी हुई है। मुख्यमंत्री कमलनाथ अपने कोर ग्रुप के साथ लगातार बैठकें कर रहे हैं। कभी बागी मंत्रियों को विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित कराने की रणनीति बन रही है तो कभी बागी विधायकों को तोडऩे के लिए उनसे कई स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। भाजपा की कुछ कमजोर कडिय़ों को तलाशने की भी कोशिशें हो रही है, जिनमें कुछ विधायकों को चिन्हित भी किया गया है।

कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि 14 महीने की कमलनाथ सरकार पर कांग्रेस के मजबूत स्तंभ ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ छोड़ देने से जो संकट आया है, उससे उबरने के लिए मुख्यमंत्री कमलनाथ अपने कोर ग्रुप के साथ बैठक कर रणनीति तैयार कर रहे हैं। कोर ग्रुप में राज्यसभा सदस्य और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और विवेक तन्खा प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। बेंगलुरु गए सिंधिया समर्थक कांग्रेस विधायकों में से कुछ को आकर्षक वादों के भरोसे वापस बुलाने के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदारी दी गई। इनमें विधायकों के परिजनों या रिश्तेदारों, मित्रों के नजदीकियों का पता लगाने के लिए भी कुछ नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है।

संकट को भांप नहीं पाई कांग्रेस

कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि सिंधिया ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी से मुलाकात कर अपना पक्ष रखने की कोशिश की लेकिन कहा जाता है कि उन्हें समय नहीं दिया गया। यही नहीं सोनिया गांधी मध्यप्रदेश में सिंधिया की ताकत का अंदाजा लगाने में बुरी तरफ विफल रहीं। सीएम कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को यह उम्मीद नहीं थी कि सिंधिया का खेमा इतना मजबूत है कि सरकार पर खतरा बन सकता है। प्रदेश कांग्रेस को विश्वास था कि सिंधिया ग्वालियर और गुना बेल्ट के 5 से अधिक विधायकों का समर्थन हासिल नहीं कर पाएंगे। इसी भरोसे के तहत कमलनाथ और दिग्विजय ने सिंधिया को वह कदम उठाने पर मजबूर किया, जो वह सामान्य परिस्थितियों में नहीं करते। दिग्विजय और कमलनाथ की जोड़ी ने गणित यह लगाया गया था कि यदि सिंधिया पार्टी छोड़ भी देते हैं तो वह सरकार नहीं गिरा पाएंगे। उनके साथ यदि कुछ विधायक जाएंगे भी तो इसकी भरपाई भाजपा के ऐसे कुछ विधायकों को तोडक़र पूरी कर ली जाएगी, जो कमलनाथ के संपर्क में हैं। हालांकि वास्तविकता में हुआ इसका उल्टा। सिंधिया के साथ 22 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है। इससे अब कांग्रेस की राज्य इकाई सदमे में है। कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का भी विश्वास था कि सिंधिया बागी रुख के साथ कुछ समस्याएं पैदा कर सकते हैं, लेकिन पार्टी छोडक़र भाजपा में नहीं जाएंगे। लेकिन सिंधिया ने ऐसा सोचने वालों को गलत साबित किया और पार्टी को होली के दिन असहज स्थिति का सामना करना पड़ा।

सिंधिया को साधने बड़े स्तर पर तैयारी

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ग्वालियर चंबल संभाग में शानदार प्रदर्शन की वजह ज्योतिरादित्य सिंधिया थे। इसी वजह से भाजपा विधानसभा चुनाव में बहुमत से दूर रह गई। तभी से भाजपा आलाकमान, खासकर अमित शाह की सिंधिया पर नजर थी। लोकसभा चुनाव में एक समय तो ‘मणिकर्णिका’ फिल्म की हीरोइन रहीं कंगना रनौत को सिंधिया के सामने उतारने की रणनीति बनाई गई, लेकिन कंगना पीछे हट गईं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि तभी से अमित शाह सिंधिया को लेकर रणनीति बनाने में जुट गए थे। हालांकि शाह ने चुनाव में सिंधिया को उनके ही निजी सचिव रहे केपी यादव से पटकनी दिला दी। लगभग 6 महीने पहले ही अमित शाह को शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि सिंधिया कांग्रेस में अपमानित महसूस कर रहे हैं और बार-बार कह रहे हैं कि कमलनाथ-दिग्विजय की जोड़ी मेरी राजनीति खत्म कर रही है।

अमित शाह ने तुरंत भाजपा के इन दोनों नेताओं को सिंधिया को संदेश भेजने को कहा। तब से सिंधिया को इशारों में संदेश दिया जाने लगा। जब कांग्रेस ने सिंधिया को राज्यसभा सीट भी नहीं देने का मन बनाया तो शाह ने सोचा कि हथौड़ा गरम है, सही चोट किया जाए। चोट किया गया और हथौड़ा सही जगह लग गया। सबसे पहले शिवराज और सिंधिया की मुलाकात हुई। उस मुलाकात में शिवराज ने भरोसा दिलाया कि आपके सम्मान की रक्षा होगी। इसी बैठक में ज्योतिरादित्य सिंधिया की अमित शाह से बात कराई गई। बताया जाता है कि अमित शाह ने भी सिंधिया को भरोसा दिया। सिंधिया को बोला गया कि अपने गुट के भरोसेमंद विधायक अपने साथ जोड़ें। अमित शाह ने इस ऑपरेशन के लिए 4 नेताओं को कमान सौंपी। मध्य प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे, शिवराज सिंह चौहान, धर्मेंद्र प्रधान और नरेंद्र सिंह तोमर। हालांकि नरेंद्र सिंह तोमर की राजनीति सिंधिया परिवार के विरोध की रही है, लेकिन शाह ने उन्हें समझाया कि मध्यप्रदेश के लक्ष्य के लिए सिंधिया को साथ लेना होगा, वरना एक-दो विधायकों के सहारे सरकार बनाना मुश्किल होगा। इसके बाद तोमर भी इस काम मे जुट गए। ज्योतिरादित्य से इन नेताओं की मुलाकात गुपचुप तरीके से होती रही। शिवराज एक सप्ताह से दिल्ली में डेरा डाले थे। गोपनीयता का ध्यान रखते हुए मध्यप्रदेश सरकार के गेस्ट हाउस में रुकने के बजाय वह हरियाणा सरकार के गेस्ट हाउस में रुके। वहीं पर ज्योतिरादित्य और शिवराज की मुलाकात हुई। नेताओं की बैठकें बिना सुरक्षा गार्ड के गोपनीय स्थानों पर होती रहीं। ज्यादातर जगह सिंधिया खुद ड्राइव कर जाते रहे। यह भी तय किया गया कि सारा ऑपरेशन खुद सिंधिया करें। पहला प्रयास गुरुग्राम में किया गया, लेकिन यहां विधायकों को लाने की भनक कांग्रेस नेताओं को लग गई। इसके बाद भाजपा नेताओं ने सबकुछ बारीकी से तय करना शुरू किया। असल में गुरुग्राम होटल मामले को सिर्फ सिंधिया देख रहे थे। उन विधायकों के पहुंचने के अगले दिन शेष विधायक आने थे, लेकिन बात लीक हो गई और सक्रिय दिग्विजय ने खेल खराब कर दिया। इसके चलते एक सप्ताह का और वक्त लगा और गोपनीयता पर फोकस किया गया। एक-एक विधायक को विश्वास में लिया गया।

महाराज को कैसे पचा पाएंगे शिवराज?

माफ करो महाराज...हमारा नेता शिवराज! मध्यप्रदेश में भाजपा ने पिछला विधानसभा चुनाव इसी नारे के साथ लड़ा था। कांग्रेस के पाप गिनाते हुए शिवराज की उपलब्धियों का खूब बखान किया गया था। प्रदेश में भले ही कांग्रेस ने सरकार बना ली पर ज्योतिरादित्य बनाम शिवराज के तौर पर राजनीतिक रस्साकशी जारी रही। हालांकि आज हालात पूरी तरह बदल गए और उन्हीं महाराज ने हाथों में कमल थाम लिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पार्टी में महाराज की एंट्री को शिवराज आसानी से पचा पाएंगे। वैसे सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता है। शायद यही वजह है कि सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे पर जब उन्हें माफिया और गद्दार कहा जाने लगा तो शिवराज सिंह चौहान ने आगे आकर उनका बचाव किया। उन्होंने कहा, जब तक वहां थे तब तक महाराजा थे और आज माफिया हो गए? ये दोहरे मापदंड कांग्रेस को शोभा नहीं देते। सिंधिया को लेकर भाजपा नेता और मप्र के तीन बार के सीएम शिवराज सिंह चौहान की इस प्रतिक्रिया ने काफी कुछ बातें स्पष्ट कर दीं। दरअसल, भाजपा के पास सिंधिया की बगावत को भुनाने का बेहतरीन मौका आया था तो शिवराज ने भी कांग्रेस पर चुटकी लेने में देर नहीं लगाई।

इससे पहले 21 जनवरी 2019 की रात की वो घटना याद कीजिए जब एक मुलाकात ने मप्र की सियासत में हडक़ंप मचा दिया था। यह मुलाकात ज्योतिरादित्य सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान के बीच हुई थी। बंद कमरे के अंदर दोनों नेताओं के बीच 40 मिनट तक चर्चा हुई। यही नहीं, दोनों साथ-साथ बाहर निकले और कहा कि बातचीत अच्छी रही। शिवराज और ज्योतिरादित्य ने इसे शिष्टाचार भेंट बताया। हालांकि दो दिग्गज राजनेता जब बंद कमरे के अंदर बात करें तो शायद ही कोई माने कि सियासी चर्चा नहीं हुई होगी। इस मुलाकात को 13 महीने बीत चुके हैं। शिवराज और ज्योतिरादित्य मप्र की सियासत के दो बड़े चेहरे हैं। अब सिंधिया की भाजपा में एंट्री को क्या शिवराज पचा पाएंगे, सियासी हलकों में यह सवाल भी उठ रहा है। अतीत पर निगाह दौड़ाएं तो मार्च 2017 में एक चुनावी रैली के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सिंधिया राजघराने पर हमला बोला था। भिंड के अटेर में चुनावी सभा करते हुए उन्होंने अंग्रेजों से मिले होने और लोगों पर जुल्म ढाने की बात कही। शिवराज ने कहा था, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में असफल होने के बाद अंग्रेजों और अंग्रेजों के साथ-साथ सिंधिया ने बड़े जुल्म ढाए थे। लेकिन अब वक्त बदल गया है। प्रदेश के वर्तमान सियासी हालात में अब दोनों नेता एक-दूसरे के लिए जरूरी भी हैं और सियासी मजबूरी भी। इस बात को यूं समझ सकते हैं कि भाजपा से राज्यसभा टिकट मिलने के साथ ज्योतिरादित्य की केंद्रीय राजनीति में भूमिका का रास्ता साफ हो गया है। दूसरी ओर उनके समर्थक विधायक चौथी बार शिवराज की ताजपोशी में मदद कर सकते हैं। शिवराज को भाजपा के अंदर कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल और नरेंद्र तोमर जैसे नेताओं से चुनौती मिलती रही है। ऐसे में सिंधिया के साथ जुगलबंदी करके वह अपनी स्थिति और मजबूत कर सकते हैं।

भाजपा के कई नेताओं का घटेगा कद

पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे के बाद अब कांग्रेस और भाजपा के सारे समीकरण उलट-पुलट हो गए हैं। सिंधिया के भाजपा में जाने से सबसे ज्यादा असर भाजपा के ग्वालियर-चंबल के नेताओं पर पड़ेगा। उसके अलावा सिंधिया के साथ आने वाले हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को हुजूम भी भाजपा-कांग्रेस की जड़ें हिला देगा। यही नहीं सिंधिया के भाजपा में आने से पार्टी के कद्दावर नेताओं के कद पर भी असर पड़ेगा। जिन नेताओं के कद पर असर पडऩे की संभावना है उनमें शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा, यशोधरा राजे सिंधिया और जयभान सिंह पवैया प्रमुख हैं।

प्रतिष्ठा के दांव से बना राजनीतिक त्रिकोण

मप्र के मौजूदा राजनीति घटनाक्रम पर पूरे देश की नजर है। यहां भाजपा-कांग्रेस पार्टियों की छवि से ज्यादा कमलनाथ का चार दशक का अनुभव और युवा नेता सिंधिया का ग्लो दांव पर है। मुख्यमंत्री कमलनाथ की छवि इस बात से बनी रह सकती है कि वे सरकार गिरने से बचा लेंगे। वहीं, भाजपा में गया कांग्रेस का ग्लो शाइन फेस ज्योतिरादित्य की प्रतिष्ठा, भाजपा से ज्यादा गंभीर हो गई है। कमलनाथ का राजनीतिक इतिहास दांव पर हैं तो सिंधिया का भविष्य। कमलनाथ, सरकार बचाने में असमर्थ रहते हैं तो यह उनके इतिहास और बेटे नकुलनाथ के भविष्य पर सबसे बड़ा दाग होगा। सिंधिया अपने हजारों समर्थकों को लेकर जिस भव्यता के साथ भाजपा में गए हैं और सरकार को अंतिम सांसे लेने पर मजबूर कर दिया है, यदि इससे कमलनाथ सरकार नहीं गिरी और सिंधिया ‘जीत‘ नहीं पाए तो यह सिंधिया के भविष्य पर एक दाग होगा। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी नेताओं को यदि सिंधिया से मात मिल गई तो ग्वालियर-चंबल संभाग की 34 विधानसभा सीटों पर भाजपा में ही एक राजनीतिक प्रतिशोध शुरू होगा। यह भी संभव है कि सिंधिया के कारण कमलनाथ सरकार गिरती है तो ग्वालियर-चंबल क्षेत्र से एक राजनीतिक पीढ़ी का खात्मा होने का डर पनप जाएगा। इससे भाजपा में ही द्वंद्व और अंतरविरोध होना शुरू हो जाएगा। देखा जाए तो, मप्र की राजनीति बिना किसी तीन दलों के त्रिकोणीय हो गई है। एक कोण में कमलनाथ-दिग्विजय हैं, दूसरे में ज्योतिरादित्य और तीसरे में भाजपा। कमलनाथ अपने कोण से ही कांग्रेस की छवि को अब तक बचाए हुए हैं। यही वजह है कि सिंधिया अपने सभी विधायकों और हजारों समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल होने के बाद भी नाथ व कांग्रेस सरकार की लाज बची है। ध्यान देने की बात यह है कि यहां सिंधिया और भाजपा के कोण समानांतर हैं। ये दोनों मिलकर भी यदि सरकार गिराने और सरकार बनाने का 360 डिग्री का कोण नहीं बना पाए तो भाजपा से ज्यादा सिंधिया की किरकिरी होगी। सिंधिया को सबसे अधिक नुकसान भी होगा। इधर, कमलनाथ दोगुनी ताकत से उभरकर सिंधिया के क्षेत्र में कई ऐसे कोण बना सकते हैं, जिसकी प्रमेय भाजपा और सिंधिया के लिए घातक हो सकती है।

सीएम की कुर्सी पर रस्साकशी!

मप्र में शह और मात के खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी, यह अभी साफ नहीं है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने हाथ का साथ छोडक़र कमल का फूल खिलाने का जिम्मा अपने हाथों में लिया है। अब सवाल उठ रहे हैं कि मप्र में अगर भाजपा सरकार बनती है तो मुख्यमंत्री की कुर्सी किसे मिलेगी? सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम सबसे आगे है। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता नरोत्तम मिश्रा से उन्हें चुनौती मिल रही है। हालांकि मप्र की राजनीति के जानकारों का कहना है कि सिंधिया कैंप के विधायकों की बगावत के बाद अगर कमलनाथ सरकार गिरती है तो चौथी बार शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन सकते हैं। वजह भी साफ है। मप्र में शिवराज के कद का नेता भाजपा में दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। उनके पास सरकार चलाने का लंबा अनुभव है। लगातार तीन कार्यकाल उन्होंने सफलतापूर्वक पूरे किए हैं। उन्होंने ऐसे वक्त में मप्र की कमान संभाली थी जब उमा भारती जैसी कद्दावर नेता की बगावत के बाद भाजपा संकट से जूझ रही थी। ऐसे में उनकी राह में मोटे तौर पर कोई बड़ी बाधा नहीं दिखती है।

सरकार गिराने-बचाने के लिए वोटिंग का खेल

मध्यप्रदेश में सियासी घमासान चरम पर है। अब सबकी निगाहें आगामी विधानसभा सत्र के फ्लोर टेस्ट पर हैं। उधर, सिंधिया खेमे के जो 22 विधायक बेंगलुरु में हैं, यदि वे अधिक समय तक विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफे नहीं सौंपते या सत्र में शामिल नहीं होते, तो भाजपा के लिए मुश्किल होगा और इसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता है। कमलनाथ सरकार को बचाने या फिर गिराने में फ्लोर टेस्ट में व्हिप का अहम रोल रहेगा। सिंधिया खेमे के 6 मंत्रियों सहित जिन 22 विधायकों ने इस्तीफे दिए हैं, उन्हें लेकर कांग्रेस पार्टी फ्लोर टेस्ट के पहले व्हिप जारी कर सकती है। राजनीतिक पार्टियां सदन में अक्सर किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को बहस के बाद पास करवाने या उसे मंजूर करवाने के लिए अपने सदस्यों को व्हिप जारी करते हैं। व्हिप का उल्लंघन करने पर उन सदस्यों पर कार्रवाई होगी। दल-बदल विरोधी कानून लागू करने इन्हें अपात्र किया जा सकता है। ऐसे में सरकार रहे या जाए लेकिन इन 22 विधायकों को नुकसान हो सकता है। हालांकि गत दिनों 22 बागी विधायकों में से एक भी विधायक स्पीकर के सामने नहीं आए।

तीन तरह की स्थिति बन सकती है...

पहला - यदि बागी 22 विधायक विधानसभा अध्यक्ष के सामने नहीं आते हैं और न ही विधानसभा सत्र में आते हैं, तो कांग्रेस व्हिप उल्लंघन के आधार पर कार्रवाई कर सकती है।

दूसरा - यदि 22 बागी विधायक विधानसभा सत्र में आते हैं और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ वोटिंग करते हैं, तब भी कांग्रेस व्हिप उल्लंघन का आधार बनाकर कार्रवाई करवा सकती है।

तीसरा - यदि सरकार बदलती है, तब इन 22 विधायकों के आने या क्रॉस वोटिंग दोनों सूरत में नए अध्यक्ष को फैसला लेना होगा।

ये है विधायक को अयोग्य घोषित किए जाने के आधार

दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है तब, जब निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है। यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। यदि किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है। यदि कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है और छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। तो ऐसी स्थिति में विधायक को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

दिग्गी बनाम सिंधिया टसल, इतिहास से अब तक...

मध्यप्रदेश में जो सियासी घमासान मचा और कमलनाथ सरकार संकट में आ गई उसमें दो किरदारों ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका हैं। अगर इतिहास उठाकर देखा जाए तो ग्वालियर और राघौगढ़ की यह टसल 240 साल पुरानी है। उस दौरान अंग्रेजों ने समझौता भी कराया था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान इस मामले मेें भी असफल साबित हुआ। 1677 में राघौगढ़ को दिग्गी के पुरखे लालसिंह खिंची ने बसाया था और 1705 में राघौगढ़ का किला बना। उधर औरंगजेब की मौत के बाद मुगलों को खदेड़ते हुए मराठा जब आगे बढ़े तो इंदौर में होलकर घराने और ग्वालियर में सिंधिया घराने ने अपनी रियासत कायम करते हुए आसपास के छोटे और बड़े राजाओं को भी उसका हिस्सा बनाया, लेकिन राघौगढ़ से सिंधियाओं की ठनी और महादजी सिंधिया ने 1780 में दिग्विजय सिंह के पूर्वज राजा बलवंतसिंह और उनके बेटे जयसिंह को बंदी बना लिया। नतीजतन 38 सालों तक दोनों राज घरानों में टसल चलती रही और 1818 में ठाकुर शेर सिंह ने राघौगढ़ को बर्बाद किया, ताकि सिंधियाओं के लिए उसकी कोई कीमत न बचे, जब राजा जयसिंह की मौत हुई, तब अंग्रेजों की मध्यस्थता से ग्वालियर और राघौगढ़ के बीच एक समझौता भी हुआ, जिसमें राघौगढ़ वालों को एक किला और आसपास की जमीनें मिलीं और तब 1.4 लाख रुपए सालाना का लगान तय किया गया और राघौगढ़ से कहा गया कि सालाना अगर 55 हजार रुपए से ज्यादा लगान की वसूली होती है तो यह राशि ग्वालियर दरबार में जमा करनी होगी और यदि 55 हजार से कम लगान मिला तो ग्वालियर रियासत राघौगढ़ की मदद करेगा, लेकिन राघौगढ़ वाले कम लगान वसूलते रहे, जिसके चलते ग्वालियर दरबार ने दी जाने वाली मदद रोक दी और सारी संपत्ति भी जब्त कर ली। 1843 में अंग्रेजों ने फिर समझौता करवाया, जिसमें राघौगढ़ को ग्वालियर रियासत के अधीन लगान वसूलने की छूट दी गई। 1780 में शुरू हुई यह जंग आज 2020 तक बदस्तूर जारी है यानी 240 साल का इतिहास गवाह है, जो ग्वालियर और राघौगढ़ की अदावत को जाहिर करता है। यही कारण है कि कभी भी सिंधिया परिवार से दिग्गी परिवार की पटरी नहीं बैठी। मजे की बात यह है कि अंग्रेजों ने तो इन दोनों घरानों में दो बार समझौता करवाया, लेकिन कांग्रेस आलाकमान कभी भी समझौता कराने में सफल नहीं हो पाया।

- राजेन्द्र आगाल

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