आजादी मिलने के बाद एक समय 50 करोड़ लोगों के लिए खाद्यान्न की कमी के घनघोर संकट से जूझ रहा देश आज ऐसी स्थिति में है कि वह 1 अरब 33 करोड़ लोगों का पेट भरने में सक्षम होने के साथ ही कुछ निर्यात भी कर रहा है। देश के किसानों ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से खाद्यान्न उत्पादन को 1960-61 के 83 मिलियन टन से बढ़ाकर 2017-18 में लगभग 275.68 मिलियन टन कर दिया है। लेकिन देश को ऐसे संकट से निकालकर वर्तमान स्थिति में ले आने वाले किसान बदहाल ही रह गए हैं। देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की सफलता के बावजूद वे अपनी उपज के लिए सही कीमत पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। किसानों के लिए सरकारी एजेंसियां जैसे-भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और राज्य सरकार की एजेंसियां धान और गेहूं की बिक्री के लिए उपलब्ध मुख्य प्लेटफार्मों में से एक हैं। हालांकि सरकार 2002-03 से 2017-18 के बीच 1340.02 मिलियन टन गेहूं उत्पादन के मुकाबले केवल 358.82 मिलियन टन (26.77 प्रतिशत) और 1557.75 मिलियन टन चावल के उत्पादन के मुकाबले 487.60 मिलियन टन चावल (31.30 प्रतिशत) की खरीद करने में सक्षम रही है।
अधिकांश राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार के निर्देश पर 1954 से 1956 के बीच कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानून लागू किए थे। इस कानून की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि व्यापारी माल की कीमत का कभी खुलासा नहीं करते थे। इसके लिए एक कूट भाषा का इस्तेमाल करते थे। इन कानूनों में सामानों की खुली बोली लगाने और मूल्य का तत्काल भुगतान किसानों को करने का नियम था। एपीएमसी कानून का उद्देश्य आपूर्ति और मांग के बीच उचित समन्वय बनाना था। जिससे कृषि उपजों का सही मूल्य निर्धारण हो। लेन-देन में पारदर्शिता से भ्रष्टाचार और व्यापारियों और बिचौलियों के एकाधिकार पर प्रतिबंध लगे। इनका उद्देश्य जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर लगाम लगाना था। लेकिन ऐसा अभी तक नहीं हो सका है।
पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री डॉ. सोमपाल शास्त्री ने इस पूरे तंत्र के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डालते हुए बताया कि मंडियों का तंत्र मुगल काल के पहले से चला आ रहा था। ब्रिटिश सरकार ने इस तंत्र को अपने फायदे के लिए कठोर नियमों के दायरे के भीतर ले लिया। शहरों में लोगों को सस्ती कीमत पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए अनाज की अनिवार्य वसूली का नियम लागू किया गया। हर साल ब्रिटिश सरकार फसलों का एक अधिकतम मूल्य घोषित कर देती थी। उसी कीमत के नीचे किसानों को फसल बेचने के लिए बाध्य किया जाता था। जमींदार, पटवारी और व्यापारियों का गिरोह किसानों के घरों से उसी कीमत पर अनाज की जबरिया वसूली करता था। इस काम में कभी-कभी पुलिस की भी मदद ली जाती थी। अनाज छुपाने वाले लोगों के लिए दंड का भी प्रावधान था। यह पूरी व्यवस्था कमोवेश 1965 तक चलती रही।
डॉ. सोमपाल शास्त्री का कहना है कि 1990 के दशक में अंत तक दिल्ली में स्थित आजादपुर मंडी में भी व्यापारी सामानों की खुली बोली नहीं लगाते थे। इसका सबसे बड़ा कारण है कि व्यापारियों को लाइसेंस लेने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इसके बाद वे बेलगाम होकर किसानों को लूटते हैं। देशभर में एपीएमसी बाजार कई कारणों से किसानों के हित में काम नहीं कर रहे हैं। एपीएमसी बाजारों में व्यापारियों की सीमित संख्या के कारण प्रतिस्पर्धा कम है, व्यापारियों का कार्टेलाइजेशन, बाजार शुल्क के नाम पर अनुचित कटौती, कमीशन शुल्क की वसूली आदि कारणों से एपीएमसी अधिनियमों के प्रावधानों को उनके सही अर्थों में लागू नहीं किया गया है। बाजार शुल्क और कमीशन शुल्क कानूनी रूप से व्यापारियों पर लगाया जाता है, जबकि इसे किसानों की रकम में से घटाकर किसानों से वसूल किया जाता है।
देश में कृषि बाजारों की स्थिति खराब
देश के 23 राज्यों और 5 केंद्र शासित प्रदेशों में 6630 एपीएमसी बाजार हैं। जबकि बिहार, केरल, मणिपुर, मिजोरम और सिक्किम राज्यों में कोई एपीएमसी मार्केट नहीं है। इसके अलावा, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, दमन और दीव में कोई एपीएमसी बाजार नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में विनियमित बाजारों के घनत्व में पंजाब में 116 वर्ग किमी से मेघालय में 11215 वर्ग किमी तक की भिन्नता है। देश में विनियमित कृषि बाजार का अखिल भारतीय औसत क्षेत्र 496 वर्ग किमी है। राष्ट्रीय किसान आयोग (2006) की सिफारिश के अनुसार एक विनियमित बाजार 5 किलोमीटर के दायरे में किसानों के लिए उपलब्ध होना चाहिए। राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा सुझाए गए मानदंडों को पूरा करने के लिए देश में 41,000 बाजारों की आवश्यकता होगी। एपीएमसी बाजारों में बुनियादी ढांचे और अन्य नागरिक सुविधाओं की स्थिति पूरे देश में खराब है और केवल 65 प्रतिशत बाजारों में ही शौचालय की सुविधा है। केवल 38 प्रतिशत बाजारों में किसानों के लिए रेस्ट हाउस है। केवल 15 प्रतिशत एपीएमसी मार्केट में कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है, जबकि वजन सुविधा केवल 49 प्रतिशत बाजारों में उपलब्ध है। इन एपीएमसी बाजारों में बैंकिंग, इंटरनेट कनेक्टिविटी की सुविधा भी खराब है।
उपजों की बिक्री के लिए सुविधाजनक मंच की जरूरत
कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक सुविधाजनक मंच बनाने की जरूरत है ताकि अंतिम उपभोक्ताओं तक किसानों की पहुंच बढ़ाई जा सके। इससे कृषि उपज के लिए सही मूल्य निर्धारण सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी और किसानों की आय बढ़ेगी। ऐसे वैकल्पिक बिक्री प्लेटफार्मों के निर्माण की आवश्यकता है, जो देश के अधिकांश किसानों के लिए आसानी से सुलभ हो सके। बड़ी संख्या में नए विनियमित थोक बाजारों का विकास न तो संभव और न ही आर्थिक रूप से व्यावहारिक हो सकता है। इसलिए मौजूदा ग्रामीण हाट-बाजारों को पूरी तरह से विकसित करने की जरूरत है।
- ऋतेन्द्र माथुर