गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला, निदा फाजली की इस गजल को कई गायकों ने गाया है। पर किसी ने भी इसे चढ़े स्वर में नहीं गाया। सबने इसे प्रार्थना की तरह गाया, अजान की तरह तान भरी। दिलचस्प है कि कोस-कोस पर पानी और बोली का फर्क भांपने वाले देश में पानी कभी ऐसा मसला नहीं रहा, जिसकी चर्चा अलग से हो या उसे लेकर खूब सिर धुना जाए। पानी का जिक्र करते हुए हर तरह की तल्खी से बचने वाले भारतीय समाज के लिए जल हमेशा से एक सांस्कृतिक मसला रहा है। आज अगर जल संकट जैसा विषय सरकार और समाज के माथे पर बल ला रहा है तो इसलिए कि हमने अपने सांस्कृतिक अभ्यास और सीख की लंबी परंपरा का साथ बहुत आसानी से छोड़ दिया। इसके बदले हमने तवज्जो दी उस होड़ और समझ को, जिसे विकास और समृद्धि का उत्तर चरण करार दिया गया है। जिस पानी से कभी हमारा रहन-सहन और जीवन सबकुछ पानीदार हुआ करता था, वह पानी आज हमारे रोजमर्रा के अनुभव में सिर्फ प्यास और उसके लिए मचने वाला हिंसक हाहाकार है। शुक्र है कि इन त्रासद स्फीतियों के बीच भी मनुष्य के पानीदार विवेक का लोप इतना ज्यादा भी नहीं हुआ है कि हम आगे के लिए कोई रास्ता ही न निकाल सकें। इसके लिए आगाह करने वाली स्थितियों के साथ उम्मीद जगाते कुछ हालिया तजुर्बों का जिक्र जरूरी है।
नीति आयोग के सर्वे के अनुसार देश में 60 करोड़ आबादी भीषण जल संकट का सामना कर रही है। अपर्याप्त और प्रदूषित पानी के इस्तेमाल से देश में हर साल दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। यूनिसेफ के मुहैया कराए गए विवरण के अनुसार भारत में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर जिस तरह पेयजल संकट का सामना कर रहे हैं, उससे लगता है कि 2030 तक भारत के 21 महानगरों का पानी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा और वहां पानी अन्य शहरों से लाकर उपलब्ध कराना होगा। लातूर और हैदराबाद के लिए ऐसा पहले करना भी पड़ा है। इस कड़ी में नया नाम शिमला का है।
दुनिया में मीठा पानी केवल तीन फीसद है और यह सबको और हर जगह सुलभ नहीं है। दुनिया में 100 करोड़ अधिक लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है जबकि 270 करोड़ लोगों को वर्ष में एक महीने पीने का पानी नहीं मिलता। इसी तरह 2014 में दुनिया के 500 बड़े शहरों में हुई एक जांच में पाया गया है कि हर चार में से एक नगरपालिका पानी की कमी की समस्या का सामना कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 'पानी की कमी’ तब होती है जब पानी की सालाना आपूर्ति प्रति व्यक्ति 1700 क्यूबिक मीटर से कम हो जाती है। ऐसे कई हालिया अध्ययनों के आधार पर दुनिया के जिन 12 शहरों पर पानी की किल्लत की मार सबसे ज्यादा पड़ने वाली है, वे हैं- केपटाउन, साओ पालो, बेंगलुरु, बेजिंग, काहिरा, जकार्ता, मास्को, इस्तांबुल, मेक्सिको सिटी, लंदन, तोक्यो और मियामी।
राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) ने मई 2019 में सरकार को दो टूक कहा था कि जिन इलाकों में पानी ज्यादा खारा नहीं है, वहां आरओ प्यूरीफायर पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। अपने निर्देश में पंचाट ने यह भी कहा था कि केवल 60 फीसदी से ज्यादा पानी देने वाले आरओ के इस्तेमाल को ही मंजूरी दी जाए। राष्ट्रीय हरित पंचाट के निर्देश के बाद केंद्र सरकार ने इस संबंध में मसौदा तैयार कर लिया है। हालांकि यह शिकायत अब भी है कि सरकार ने अपने मसौदे में पंचाट की चिंताओं को उतनी गहराई से नहीं लिया है, जितनी उम्मीद थी। देश के कई हिस्सों में गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है और बड़े जलाशयों में पानी का स्तर घटता जा रहा है। दो साल पहले केंद्रीय जल आयोग ने चेताया था कि देश के बड़े जलाशयों में पानी का स्तर औसतन 15 फीसदी तक कम हो गया है। जल संग्रहण की कमी के कारण आलम यह है कि महाराष्ट्र में ठाणे के शाहपुर ब्लॉक के कई गांवों में पानी भरने के लिए महिलाएं मीलों चलने को मजबूर हैं। यह संकट महाराष्ट्र तक ही नहीं, देश के बड़े हिस्से में है।
पानी को लेकर जिस तरह की पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट के जरिए मिली है, वह भयावह है। यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा करती है। दुनिया के 5,00,000 बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट 'डे जीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानि नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है।
इंच दर इंच चढ़ रहा सागर
वैज्ञानिकों के एक समूह ने अपनी चेतावनी वाली रिपोर्ट में कहा है कि पिछली एक सदी में समुद्री जलस्तर 14 सेंटीमीटर तक बढ़ गया है और यह वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के चलते हुआ है। समुद्र का जलस्तर इतनी तेजी से बढ़ा है, जितना पिछली 27 सदियों में नहीं बढ़ा। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1900 से 2000 तक वैश्विक समुद्री जलस्तर 14 सेमी या 5.5 इंच बढ़ा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग न होती, तो यह वृद्धि 20वीं सदी की वृद्धि की आधी से भी कम होती। इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक और 'रूटजर्स डिपाटर्मेंट ऑफ अर्थ एंड प्लेनेटेरी साइंसेज’ के एसोसिएट प्रोफेसर रॉबर्ट कोप ने कहा, 'पिछली तीन सदियों के संदर्भ में 20वीं सदी की वृद्धि अभूतपूर्व थी। पिछले दो दशकों में वृद्धि बहुत तेज रही है।’ कोप चिंता जताते हुए कहते हैं, 'यह हैरान करने वाला है कि हमने समुद्री जलस्तर के इस बदलाव को वैश्विक तापमान में हल्की गिरावट के साथ जुड़ा हुआ देखा।’ तुलनात्मक तौर पर देखा जाए तो आज वैश्विक औसत तापमान 19वीं सदी के अंत के तापमान से एक डिग्री सेल्सियस ज्यादा है।
- ऋतेन्द्र माथुर