अस्तित्व का महासंग्राम
20-Oct-2020 12:00 AM 1342

 

मप्र में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव को भाजपा और कांग्रेस के अस्तित्व का चुनाव कहा जा रहा है। शायद यही वजह है कि इस चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने मर्यादा की सारी हदें पार कर ली हैं। जैसे-जैसे हम विकसित और प्रगतिशील होते जा हैं, वैसे-वैसे ही शब्दों की मर्यादाएं भंग होती जा रही हैं। आए दिन राजनीति में इस तरह की भाषा सुनने को मिलती है जो कहीं ना कहीं यह बताती है कि अब राजनीति में मर्यादा न केवल तार-तार हो रही है बल्कि विपक्षी पर इल्जाम लगाने के लिए असंसदीय भाषा तक का प्रयोग किया जा रहा है।

मप्र की 28 विधानसभा सीटों पर हो रहा उपचुनाव किसी महासंग्राम से कम नहीं है। इस उपचुनाव को महाभारत और रामायण के युद्धों की तरह लड़ा जा रहा है। महाभारत की तरह इस उपचुनाव में साम-दाम-दंड-भेद दिख रहा है, वहीं रामायण की तरह छल-कपट और कूटनीति का सहारा लिया जा रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि यह उपचुनाव पार्टियों के अस्तित्व का चुनाव है। मप्र के इतिहास में इससे पहले इतनी अधिक सीटों पर उपचुनाव नहीं हुए हैं। पहले जब भी उपचुनाव होते थे तो उससे सरकार पर कोई असर नहीं पड़ता था। लेकिन इस उपचुनाव का सरकार पर असर पड़ना है। इसलिए इस चुनाव में मर्यादाएं तार-तार करने में भी नेता हिचक नहीं रहे हैं। एक-दूसरे को घेरने के लिए ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अगर इसे राजनीति के पतन की पराकाष्ठा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

उपचुनाव वाले क्षेत्रों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए हर तरह के नाटक और नौटंकी देखने को मिल रही है। कोई घुटने टेकने में भी नहीं हिचक रहा है तो कोई मजदूरों के सामने साष्टांग हो रहा है। जो नेता कभी सर्वसुविधा कक्ष से बाहर नहीं आते थे, वे भीड़ में जाने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। राजनीतिक अस्तित्व के इस महासंग्राम में मतदाताओं को रिझाने के साथ ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भरपूर कोशिश हो रही है।

वादे खूब, विकास गया डूब

अगर पिछले कुछ सालों का विश्लेषण करें तो यह बात सामने आती है कि हर चुनाव में नेता बड़े-बड़े वादे करके जनता को लुभाते हैं और सत्ता पाते ही विकास को भूल जाते हैं। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा ने संगठित होकर दिग्विजय सिंह और कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उस समय भाजपा ने बीएसपी (बिजली, सड़क, पानी) को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। भाजपा सत्ता में आई तो उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं। जनता को उम्मीद थी कि अब प्रदेश की तस्वीर और तकदीर बदलेगी। लेकिन प्रदेश का विकास करने की बजाय उमा भारती पार्टी की अंदरूनी लड़ाई से निपटने में लगी रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि हुगली में तिरंगे के अपमान के मामले में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी। उसके बाद बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने। वे मुख्यमंत्री के तौर पर भोपाल के बाहर के बारे में सोच भी नहीं पाए थे कि उन्हें भी चलता कर दिया गया। उसके बाद शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। पांव-पांव वाले भैया के रूप में ख्यात शिवराज सिंह जब मुख्यमंत्री बने तो लोगों को उम्मीद जगी कि प्रदेश में विकास की गंगा बहेगी। उन्होंने लोगों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए विकास कार्यों के घोषणाओं का पहाड़ खड़ा कर दिया। वह पहाड़ इतना बड़ा हो गया कि आज तक वह उनके लिए उपहास का कारण बना हुआ है।

जनता मांग रही हिसाब

उपचुनाव में एक तस्वीर यह भी देखने को मिल रही है कि चुनावी सभा में पहुंचने वाली जनता सवाल उठा रही है कि हम उन्हीं नेताओं को कैसे वोट दें, जिन्होंने 35 करोड़ में हमारे वोट को बेच दिया। दरअसल, जिन 25 कांगे्रसी विधायकों ने अपनी विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थामा है और अब उसी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ रहे हैं, उनके बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने 35 करोड़ रुपए लेकर पार्टी बदली है। उपचुनाव से पहले इस बात को आरोप माना जा रहा था, लेकिन जब शिवपुरी जिले की पोहरी विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ रहे भाजपा प्रत्याशी और प्रदेश सरकार में मंत्री सुरेश धाकड़ ने एक चुनावी सभा में ताल ठोककर कहा कि - लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं कि मैं गद्दार हूं। यह बात सही है कि मैं बिका, लेकिन मैं आपकी खातिर बिका। मैं बिका लेकिन मंै श्रीमान ज्योतिरादित्य सिंधिया जी के साथ गया। मैं मरता था जिन होठों पर, वो बिकने लगे हैं नोटों पर...Ó पता नहीं ये लोकगीत विधानसभा उपचुनाव में भाजपा के उस आयातित प्रत्याशी ने सुना था या नहीं, लेकिन भरी सभा में खुद के 'बिकनेÓ की स्वीकारोक्ति और उसका औचित्य जिस अंदाज में उसने साबित किया, उसे इक्कीसवीं सदी के 'राजÓ और 'नीतिÓ शास्त्र का सूत्र वाक्य समझना चाहिए। जाने-अनजाने ही सही, उस प्रत्याशी ने देश की वर्तमान पतनशील राजनीति में नैतिकता की तलहटी पर ईमानदार पोंछा लगाने की कोशिश की। उसने एक गंभीर नैतिक अपराध को 'साध्यÓ की दृष्टि से जायज ठहराने का ऐसा सार्वजनिक कबूलनामा पेश किया, जो इन उपचुनावों के बाद भी नजीर की तरह बरसों याद रखा जाएगा।

ध्यान रहे कि इन दिनों मप्र की 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। ये थोक उपचुनाव इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस के 25 विधायकों ने 8 माह पूर्व भाजपा का दामन थामकर पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार को गिरा दिया था। ये सभी प्रत्याशी अब भगवा दुपट्टे ओढ़कर कमल खिलाने में लगे हैं। चुनावी सभाओं में जनता यह भी सवाल उठा रही है कि ऐसे नेताओं पर कैसे भरोसा किया जाए, जो पैसे के लिए अपना ईमान बेच देते हैं। अभी इस मुद्दे पर बहस हो ही रही है कि ग्वालियर जिले की डबरा सीट से उपचुनाव लड़ रहीं प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि जो विधायक मंत्री नहीं बन पाए थे, उन्हें कमलनाथ हर महीने 5 लाख रुपए देते थे। दोनों नेताओं की इस स्वीकारोक्ति से एक बात तो साफ हो गई है कि सत्ता में कोई भी रहे जनता की मेहनत की कमाई को नेता जमकर लुटाते हैं। एक तरफ जनता दाने-दाने को मोहताज हो रही है, वहीं दूसरी तरफ नेताओं की बीसों उंगलियां घी में डूबी हुई हैं। चुनाव दर चुनाव जनता को विकास के झूठे सपने दिखाकर ठगने का यह सिलसिला कब तक चलेगा? 

गद्दार-वफादार की जंग

राजनीतिक वातावरण में उपचुनाव कमलनाथ बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का फ्लेवर लिए हुए है। लेकिन मुकाबला कमलनाथ और शिवराज के बीच हो गया है। कमलनाथ और कांग्रेस की टीम ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथियों को गद्दार बता रही है। कमलनाथ अपनी जनसभा में अपनी डेढ़ साल की सरकार के कदम बता रहे हैं। वहीं सिंधिया कमलनाथ की डेढ़ साल की सरकार के कदमों की आलोचना कर रहे हैं। अपनी हर चुनावी सभा में कमलनाथ सिंधिया के साथ ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए 25 पूर्व विधायकों को गद्दार बता रहे हैं। वहीं भाजपा इन सभी को प्रदेश की जनता के लिए वफादार बता रही है। नेताओं की यह बयानबाजी जनता को पसंद नहीं आ रही है। सुरखी के प्रेमनाथ को कमलनाथ की डेढ़ साल की सरकार पर हमला जरा कम ठीक लग रहा है। प्रेमनाथ का कहना है कि अभी तो कमलनाथ सरकार का कामकाज देखा जाना था। वह कुछ कर पाते कि इससे पहले सरकार गिर गई। प्रेमनाथ कहते हैं कि सिंधिया ने पीठ में छुरा भोंका। क्योंकि वह मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। प्रेमनाथ कहते हैं कि हिंदुस्तान का इतिहास इस तरह के लोगों को जल्दी माफ नहीं कर पाता। वहीं ग्वालियर के रामानंद तिवारी का कहना है कि यह राजनीति है। ग्वालियर चंबल संभाग में स्व. माधवराव सिंधिया का कद था। ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक कद है। इसका फायदा भाजपा को मिलेगा। कांगे्रस सिंधिया को गद्दार बता रही है, जबकि बरसों तक यही सिंधिया उनके लिए सब कुछ थे।

हैरानी की बात यह है कि इस उपचुनाव में कांग्रेस की तरफ से एकमात्र बड़े चेहरे के रूप में कमलनाथ सक्रिय हैं। पूरा उपचुनाव उनके इर्द-गिर्द घूम रहा है। वहीं कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह चुनावी परिदृश्य से गायब हैं। इस संदर्भ में कांग्रेस के एक पदाधिकारी का कहना है कि ऐसा पार्टी की सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है। दरअसल, 15 महीने में अपने विधायकों की बगावत और धोखे के कारण सत्ता गंवाने वाले कमलनाथ के प्रति जनता की सहानुभूति है। कांग्रेस इस सहानुभूति को उपचुनाव में भुनाना चाहती है। इसलिए  कमलनाथ मोर्चे पर सबसे आगे हैं। उधर, भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह चौहान मोर्चे पर आगे हैं, जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित अन्य नेता कम सक्रिय हैं। भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की जो सूची जारी की है, उसमें भी सिंधिया 10वें नंबर पर हैं। यानी यह इस बात का संकेत है कि उपचुनाव में भाजपा आलाकमान को विश्वास है कि पार्टी शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर ही अधिक से अधिक सीटें जीत सकती है।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि शिवराज को चुनावी कमान इसलिए दी गई है कि ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस ने सिंधिया को गद्दार के रूप में पेश किया है। संघ-भाजपा के पुराने नेता शिवराज के नेतृत्व पर सहमत हैं, लेकिन सिंधिया पर असहमत। भाजपा भी मान रही है कि जनता में शिवराज की स्वीकार्यता है। लिहाजा वह अब कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। कांग्रेस एकमात्र चेहरे कमलनाथ के साथ और नेतृत्व में चुनाव में आगे बढ़ गई है। नाथ ने इस बार नए नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी है। दिग्विजय को पर्दे के पीछे रखा गया है। पार्टी की अंदरूनी रणनीति है कि कमलनाथ चुनाव में शिवराज के साथ सिंधिया को निशाने पर लेंगे, लेकिन दिग्विजय का पूरा फोकस सिंधिया और उनकी टीम पर रहेगा। दिग्विजय ही पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय बनाएंगे। नाराज नेताओं से बात करेंगे। कमलनाथ प्रत्याशियों के समर्थन में जनसभाएं लेंगे। दिग्विजय समूह बैठक के साथ घर-घर जाएंगे। खास सीटों का प्रबंधन कमलनाथ के खास सिपहसालार ही देखेंगे। उन्होंनेे कोर टीम भी बनाई है, जो प्रतिदिन के कैंपेन और फीडबैक के साथ अन्य मुद्दों पर फोकस्ड काम कर रही है। यह इंदौर और ग्वालियर से काम कर रही है। चुनावी सभाओं में लोगों की संख्या को देखते हुए कांग्रेस में यह माना जा रहा है कि कार्यकर्ताओं ने बतौर नेता कमलनाथ को स्वीकार कर लिया है। कांग्रेस में नए नेता के तौर पर सज्जन सिंह वर्मा, एनपी प्रजापति, गोविंद सिंह और जीतू पटवारी को कमलनाथ ने अहम जिम्मेदारी दी है। इनसे दिग्विजय की कमी भरने की कोशिश है। कमलनाथ को भी लग रहा है कि यदि सही दिशा में थोड़ी मेहनत हो गई तो कांग्रेस आश्चर्यजनक परिणाम तक पहुंच जाएगी। इन नेताओं का फोकस प्रमुख सीटों पर है। बाकी पूर्व मंत्रियों की भी टीम बनाकर उन्हें सक्रिय किया गया है।

गौण हुए स्थानीय मुद्दे

जिन 28 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हो रहा है, वहां स्थानीय समस्याओं की भरमार है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित सभी नेता स्थानीय मुद्दों की जगह विपक्षी नेताओं पर आरोप लगाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। लगभग सभी चुनावी रैलियों में भी कांग्रेस और भाजपा के नेता अपने भाषणों में एक-दूसरे पर छीटाकशी करते नजर आ रहे हैं जबकि बात स्थानीय मुद्दों की होनी चाहिए। छोटे-मोटे नेता छोड़िए, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, मंत्री नरोत्तम मिश्रा, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और भाजपा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे आला दर्जे के नेताओं का भाषण भी आरोप-प्रत्यारोप के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है। भाजपा नेता जहां चुनावी सभाओं, कार्यकर्ता बैठकों में एक ही बात दोहरा रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, उनके समर्थक मंत्रियों-विधायकों का कांग्रेस सरकार में अपमान हुआ इसलिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ी। वहीं कांग्रेस भाजपा पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगा रही है। कुल मिलाकर दोनों ही दल एक-दूसरे को गद्दार और खुद को वफादार कह रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति के बीच जनता के मूल मुद्दों को भुला दिया गया है। किसी भी दल के स्टार प्रचारक और प्रत्याशी मूल मुद्दों पर बात ही नहीं कर रहा है। ये बयानबाजी राजनीति से जुड़ी हो तो समझ भी आता है लेकिन ये बयानबाजी गद्दार वफादार से भी काफी ऊपर घटिया लेवल तक पहुंच गई है। अब तो चुनावी सभाओं में भी नेता अपनी हदें पार करते दिखाई देते हैं।

हालिया घटना का जिक्र करें तो मुरैना विधानसभा सीट से कांग्रेस नेता दिनेश गुर्जर ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खिलाफ विवादास्पद बयान दिया। मुरैना में एक सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता दिनेश गुर्जर ने कहा, 'शिवराज तो भूखे-नंगे घर से पैदा हुए हैं। हमारे कमलनाथ देश के दूसरे सबसे अमीर उद्योगपति हैं।Ó अब कांग्रेस नेता के इस बयान पर भाजपा नेता चुप बैठ जाएं, ऐसा तो हो नहीं सकता। पलटवार करते हुए प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इस बयान को कांग्रेस की मानसिकता बताते हुए कहा, 'कमलनाथ तो चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। गरीब और गरीबी को वे क्या समझेंगे।Ó अपनी बयानबाजी को जारी रखते हुए मंत्री मिश्रा ने कहा, 'कांग्रेस जिंदगीभर गांधी परिवार के आगे घुटने टेकती आई है। उन्हें गरीबी या गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है। जनता की पीड़ा वही समझ सकता है जो जनता के बीच से गया हो। चांदी की चम्मच लेकर पैदा होने वाले पीड़ा नहीं समझ सकता। कांग्रेस हमेशा विधायक, महिलाओं का अपमान करती आई है। कमलनाथ के बड़े उद्योगपति होने से कुछ लाभ नहीं हुआ। हमारे लिए तो जनता ही भगवान और जनार्दन हैं। अपने आराध्य के सामने घुटने टेकने में क्या गलत है।Ó

28 विधानसभा सीटों का उपचुनाव अब सीधे तौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीच केंद्रित हो गया है। दोनों ने एक-दूसरे पर तीखे हमले तेज कर दिए हैं। हालांकि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी आरोपों के घेरे में ले रही है, क्योंकि ग्वालियर-चंबल की 16 सीटों पर ज्योतिरादित्य का प्रभाव है। दूसरी ओर, वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्विजय सिंह चुनावी सभाओं से दूर हैं और पर्दे के पीछे से संगठनात्मक रणनीति में लगे हैं, इसलिए भाजपा ने सामने मौजूद एकमात्र विपक्षी कमलनाथ को निशाने पर लिया है।

खर्च का जिम्मेदार कौन?

एक तरफ देश और प्रदेश कोरोना संक्रमण के इस दौर में आर्थिक मंदी से गुजर रहे हैं। ऐसे में मप्र में 2018 में हुए विधानसभा चुनाव के दो साल बाद ही 28 विधानसभा सीटों पर हो रहा उपचुनाव सबसे महंगा चुनाव साबित होने वाला है। उपचुनाव को लेकर तैयारियों पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे। कोविड-19 संकटकाल के कारण हर एक विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव 2018 के उपचुनाव की तुलना में 5 गुना तक महंगा साबित होगा। 28 सीटों के उपचुनाव को लेकर मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने राज्य सरकार से 40 करोड़ रुपए की मांग की है। यह राशि सरकार द्वारा चुनाव के लिए बजट में 40 करोड़ की राशि का प्रावधान करने के अतिरिक्त है। दरअसल, उपचुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग ने सरकार से जो अतिरिक्त राशि की मांग की है, उससे कोरोना के बचाव और जरूरी मटेरियल की खरीदी की जानी है। जानकारी के मुताबिक इस बार के उपचुनाव पर हर एक विधानसभा सीट पर करीब पौने 3 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। निर्वाचन आयोग ने उपचुनाव के लिए दिए गए बजट के अतिरिक्त राशि मांगने के पीछे कारण और काम भी गिनाए हैं। आयोग के मुताबिक मतदान केंद्रों तक कर्मचारियों को फिजिकल डिस्टेंस के साथ भेजने और इस पर परिवहन का खर्च, 1 दिन पहले पोलिंग स्टेशन को सैनेटाइज करने, हर बूथ के गेट पर थर्मल स्क्रीनिंग की व्यवस्था, महिला और पुरुष मतदाता के लिए अलग-अलग प्रतीक्षा रूम बनाने, पोलिंग स्टेशन पर मतदाताओं के लिए मास्क और दस्ताने की व्यवस्था करने जैसे काम पर बड़ी राशि खर्च होगी। वहीं, पोलिंग बूथों पर पैरामेडिकल स्टाफ की नियुक्ति और पीपीई किट खरीदने और जो कर्मचारी ड्यूटी पर होंगे उनकी कोरोना जांच के लिए धनराशि की जरूरत होगी। सवाल उठता है कि इस खर्च के लिए जिम्मेदार कौन है? चाल, चरित्र, चेहरा और नैतिकता की बात करने वाली पार्टियां और नेता जनता की गाढ़ी कमाई पर इस तरह का राजनीतिक खेल कब तक खेलते रहेंगे? अगर ऐसी परिस्थितियों में चुनावी खर्च राजनीतिक पार्टियों पर थोपा जाता तो निश्चित रूप से देश में दलबदल की नौबत शायद ही कभी आती।

गरीबी में आटा गीला

मप्र वर्तमान समय में 2 लाख करोड़ से अधिक के कर्ज में डूबा हुआ है। आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण सरकार हर माह औसतन 1200 करोड़ रुपए कर्ज ले रही है। ऐसे में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बड़ी राशि खर्च होनी है। अगर राजनीतिक पार्टियों को सत्ता की लालसा नहीं रहती तो गरीबी में आटा गीला नहीं होता। बड़े बुजुर्ग हमेशा से कहते आए हैं कि कर्ज लेकर घी पीने की आदत ठीक नहीं। जितनी चादर हो उतने पैर पसारने चाहिए, वक्त-बेवक्त के लिए हमेशा थोड़ी पूंजी बचाकर रखो। अनुभवों के आधार पर बड़ों की इन नसीहतों से जो भी सबक नहीं लेता, उसे नुकसान निश्चित है। चाहे वो घर का मुखिया हो या देश, राज्यों में सत्ता संचालित करने वाले प्रधानमंत्री, मुख्यमत्री। उनके किए का खामियाजा उनसे जुड़े हर शख्स, हर सूबे और तमाम पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। कर्ज लेकर तरक्की और भविष्य की बुनियाद मजबूत करना का कदम बुरा नहीं है, लेकिन जब उसका इस्तेमाल सार्थक, सुनियोजित न होकर व्यक्तिगत या जन, समाज, राष्ट्रहित के नाम पर सियासी हित साधने के लिए होने लगे, तो बदहाली के चक्रव्यूह में घिरना हमारी नियति बन जाएगी। इन सारी नसीहतों और नतीजों का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि हम मप्र के कदम आत्मनिर्भरता की बजाय कर्ज पर निर्भरता की ओर लगातार बढ़ते देख रहे हैं।

दो साल पहले तक जिस राज्य सरकार के खजाने में 7-8 हजार करोड़ रुपए हमेशा पड़े रहते थे, वह इस समय पैसे-पैसे को मोहताज है। मार्च 2020 में तत्कालीन कमलनाथ सरकार के अपदस्थ होने के बाद राज्य में बनी शिवराज सरकार अपने कार्यकाल के 7 महीनों में राज्य को चलाने के लिए 12 हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है। सरकार नवंबर-दिसंबर में 6 हजार करोड़ का और कर्ज लेने के लिए तैयार है। इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक राज्य पर कुल कर्ज 2 लाख 10 हजार 538 करोड़ रुपए हो चुका था, जो नए साल में वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक 2 लाख 40 हजार करोड़ तक पहुंच सकता है। हर साल 30 से 40 हजार करोड़ का कर्ज सरकार पर बढ़ता जा रहा है। इसी अनुपात में ब्याज की रकम भी सालाना करीब 3 से 4 हजार करोड़ रुपए बढ़ रही है। इसकी भरपाई जनता से लिए जा रहे टैक्स से हो रही है। जनता पर नए-नए टैक्स थोपे जा रहे हैं और उससे होने वाली आय माननीयों पर खर्च हो रही है। ऐसे में प्रदेश की साढ़े सात करोड़ आबादी का भला कैसे होगा? प्रदेश की जनता तो भगवान भरोसे ही है।

कोई घुटने पर, तो कोई साष्टांग

आम दिनों में जनता को दुत्कारने वाले माननीयों की चाल के साथ ही चरित्र भी बदला हुआ नजर आ रहा है। कोई चुनावी मंच पर घुटने टेककर जनता का अभिवादन कर रहा है तो कोई मैले-कुचले कपड़े पहने मजदूरों के सामने साष्टांग होने में तनिक भी हिचक नहीं रहा है। आलम यह है कि मंत्रियों और विधायकों की हालत ऐसी हो गई है कि वे जनता के सामने गिड़गिड़ाते फिर रहे हैं। अभी तक जनता ने गिरगिट को ही रंग बदलते देखा था, लेकिन इस उपचुनाव में यह देखने को मिल रहा है कि नेता गिरगिट से भी अधिक रंग कैसे बदल लेते हैं। दरअसल, 28 विधानसभा सीटों का उपचुनाव दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के लिए एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई बनता रहा है। जाहिर है कि अल्पमत में बैठी सरकार और अपदस्थ हुई कमलनाथ सरकार का भविष्य यही चुनाव तय करेंगे। ये चुनाव ज्योतिरादित्य सिंधिया की नई राजनीतिक पारी का रुख भी तय करेंगे। क्या जनता के बीच अभी भी शिवराज सिंह चौहान की ग्राहता बची है...? क्या कमलनाथ के साथ षड्यंत्र हुआ है और जनता की सहानुभूति उनके साथ है? ये सब निर्णय जनता 10 नवंबर को कर देगी। सभी बड़े नेता शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, नरेंद्र सिंह तोमर जानते हैं कि ये चुनाव कितना महत्वपूर्ण है। इस बार शायद यही वजह है कि आरोपों में भाषाई मर्यादा बहुत बुरी तरह से ध्वस्त हो रही है। जिस नेता के मुंह में जो आ रहा है वो बोल रहा है। हैरत इस बात की है कि छोटे या मंझोले कहे जाने वाले नेताओं के मुंह से आग नहीं निकल नहीं रही बल्कि उन नेताओं के मुंह से भी निकल रही है जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बहुत सोच समझकर बोलते हैं। इसलिए मप्र का यह उपचुनाव देशभर के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। रोजाना कोई न कोई ऐसा वाकया हो जाता है, जो देशभर में सुर्खी बन जाता है।

 

भूखा-नंगा से हो आई चायवाले की याद

मप्र विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस नेता के भूखा-नंगा वाले बयान से 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के नेता मणिशंकर अय्यर के बयान की याद ताजा हो आई है। अय्यर ने उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाय वाला बताया था, जिसे भाजपा ने चुनाव में बड़ा मुद्दा बना दिया। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने सत्ता हासिल भी कर ली। मप्र में भी कुछ इसी तर्ज पर कांग्रेस की तरफ से शिवराज सिंह चौहान के लिए ऐसा बयान दिया गया है, जिसे भाजपा एक बार फिर कैश कराने में जुट गई है। भाजपा हर मंच पर भूखा-नंगा का जिक्र कर रही है। यही नहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो जनता के बीच घुटने टेकने लगे हैं। यह सब देखकर ऐसा लगने लगा है, जैसे चुनावी मंच अब नाटक-नौटंकी के मंच बन गए हैं। कभी चुनावी मंच से जनता के विकास के लिए घोषणाएं होती थीं, अब तो विपक्षी पार्टी के नेताओं की कमियां गिनाई जाती हैं, गड़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं। नेता इस बात का सबसे अधिक ध्यान रखते हैं कि उनके भाषणों से लोगों का मनोरंजन हो रहा है कि नहीं। ऐसे में जनसमस्याओं का चुनावी मंचों से जिक्र तक नहीं होता है। एक पार्टी का नेता इस बात के लिए तत्पर रहता है कि कब दूसरी पार्टी का नेता कोई ऐसी बात बोल दे, जिसे मुद्दा बनाकर जनता के बीच परोसा जाए। 28 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में राजनीति का यह खेल जमकर खेला जा रहा है और जनता असहाय होकर देख रही है।

लोकतंत्र के दोराहे पर वोटर

महामारी के दौर में होने जा रहे उपचुनाव की ओर स्वाभाविक ही पूरे प्रदेश की निगाह लगी हुई है। इसकी वजह यह है कि इन चुनावों के नतीजों का प्रदेश की राजनीति पर असर पड़ना तय है। प्रदेश गहरे संकट से गुजर रहा है। कोरोना महामारी के इस दौर में मतदाता इन सब राजनीतिक तमाशों के प्रति उदासीन है और अपने चेहरे के साथ आंखों पर भी मास्क लगाए हुए है। उसे समझ नहीं आ रहा कि सत्ता बचाने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को तिलांजलि क्यों दी जा रही है? इसी माहौल में भाजपा के एक चुनाव प्रत्याशी सुरेश धाकड़ ने पोहरी में अपनी चुनावी सभा में कबूलनामा पेश किया कि 'हां, मैं बिका, लेकिन आपकी खातिर बिका।' इसका एक अर्थ यह है कि जनता खुद किसी बिकाऊ बंदे की तलाश में थी, जो उसे अब मिल गया है और पब्लिक चाहे भी तो इस सौदे को रद्द नहीं कर सकती। जाहिर है यह कोई आध्यात्मिक सौदा नहीं था, जो आत्मा से परमात्मा के बीच होता है। जिसका साध्य केवल ऐहिक बंधनों से मुक्ति होता है। यह तो सियासत के प्रांगण में सत्ता का सौदा था, एक सत्ता को ठुकराकर सत्ता के नए शीशमहल में निवास के लिए 'बिकÓ जाना था। क्योंकि सत्ता है तो रौब है, दाब है। धंधा है, दुकान है। जनता की सेवा है, मुकद्दर का मेवा है। मुख्य धारा में तैरते रहने का असीम सुख है। सत्ता की डुप्लीकेट चाबी से विचारधारा के उन गोदामों के ताले खोलने की कोशिश है, जिस तरफ फिरकना भी कभी गुनाह था। लेकिन वही अब पवित्र प्र (दक्षिणा) में तब्दील हो गया है। इसलिए भाइयों, हमें वोट जरूर देना। क्योंकि सौदे को स्वीकारने का नैतिक साहस हममे है। राजनीतिक अनैतिकता के स्मार्ट युग में इतनी स्वीकारोक्ति क्या कम नहीं है?

इनके बीच है मुकाबला

विधानसभा क्षेत्र      कांग्रेस प्रत्याशी      भाजपा प्रत्याशी

जौरा        पंकज उपाध्याय       सूबेदार सिंह रजोधा

सुमावली अजय सिंह कुशवाह                एदल सिंह कंषाना

मुरैना       राकेश मावई           रघुराज सिंह कंषाना

दिमनी     रविंद्र सिंह तोमर     गिर्राज डंडौतिया

अंबाह (अजा)           सत्यप्रकाश सखवार              कमलेश जाटव

मेहगांव    हेमंत कटारे             ओपीएस भदौरिया

गोहद (अजा)           मेवाराम जाटव        रणवीर सिंह जाटव

ग्वालियर सुनील शर्मा            प्रद्युम्न सिंह तोमर

ग्वालियर पूर्व           सतीश सिकरवार    मुन्नालाल गोयल

डबरा (अजा)            सुरेश राजे                इमरती देवी

भांडेर (अजा)            फूलसिंह बरैया         रक्षा संतराम सरौनिया

करैरा (अजा)           प्रागीलाल जाटव     जसमंत जाटव

पोहरी       हरिवल्लभ शुक्ला   सुरेश धाकड़

बमोरी      कन्हैयालाल अग्रवाल             महेंद्र सिंह सिसोदिया

अशोकनगर (अजा) आशा दोहरे              जजपाल सिंह जज्जी

मुंगावली कन्हैयाराम लोधी   बृजेंद्र सिंह यादव

सुरखी     पारुल साहू              गोविंद सिंह राजपूत

मलहरा    रामसिया भारती      प्रद्युम्न सिंह लोधी

अनूपपुर (अजजा)     विश्वनाथ सिंह कुंजाम            बिसाहूलाल सिंह

सांची (अजा)            मदनलाल चौधरी    डॉ. प्रभुराम चौधरी

ब्यावरा    रामचंद्र दांगी           नारायण सिंह पवार

आगर (अजा)           विपिन वानखेड़े      मनोज ऊंटवाल

हाटपीपल्या              राजवीर सिंह बघेल  मनोज चौधरी

मांधाता    उत्तम राजनारायण सिंह           नारायण पटेल

नेपानगर (अजजा)   रामकिशन पटेल     सुमित्रा देवी

बदनावर  कमल पटेल             राजवर्धन सिंह दत्तीगांव

सांवेर (अजा)           प्रेमचंद गड्डू           तुलसीराम सिलावट

सुवासरा  राकेश पाटीदार       हरदीप सिंह डंग

 

- राजेंद्र आगाल

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