अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
03-Nov-2020 12:00 AM 961

 

देश में अधिकांश पार्टियां वह राजनीति करने लगी हैं, जो भाजपा करती है या चाहती है कि बाकी पार्टियां भी ऐसा ही करें। कांग्रेस भी उसी दिशा में बहती चली जा रही है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 की बहाली की मांग करके उसने देशभर में जनता को नाखुश कर दिया है। माना जा रहा है कि इस मांग का समर्थन करके कांग्रेस ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है।

कांग्रेस पार्टी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है, जो वह जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 की बहाली की मांग का समर्थन कर रही है। नेशनल कांफे्रंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी अगर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और अनुच्छेद-35ए की बहाली की मांग कर रहे हैं तो उनकी मांग समझ में आती है। यह उनके लिए जीवन-मरण का सवाल है। उन दोनों पार्टियों की राजनीति जम्मू-कश्मीर की सीमाओं में बंधी हैं। उनको पता है कि राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे की बहाली और राज्य का बंटवारा रद्द करने की मांग उनके पास एकमात्र मुद्दा है। लेकिन अगर कांग्रेस उनकी इस मांग का समर्थन करती है तो यह उसके लिए आत्मघाती साबित होगा।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और अनुच्छेद-35ए की बहाली का मुद्दा अब सिर्फ कश्मीर घाटी भर का मुद्दा रह गया है। घाटी के 67 लाख मुस्लिम आबादी के लिए यह भावनात्मक मुद्दा जरूर है पर जम्मू इलाके में भी इसकी कोई मांग नहीं हो रही है। जम्मू-कश्मीर से अलग किए गए लद्दाख के लोग अपनी स्वायत्त स्थिति से खुश हैं। सो, कश्मीर घाटी के थोड़े से लोगों को और देश की एक बेहद छोटी लेफ्ट, लिबरल जमात को छोड़कर बाकी देश की जनता को इससे मतलब नहीं है। यह एक किस्म का भ्रम है कि देश के मुसलमानों को, देश की 14 फीसदी आबादी को जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति की चिंता है। देश के मुसलमानों को भी इससे कोई खास मतलब नहीं है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्ज बहाल होता है या नहीं। और जहां तक देश के मुसलमानों के सद्भाव का सवाल है तो कांग्रेस ने वह सद्भाव 6 दिसंबर 1992 को गंवा दिया था। उसके बाद से तो कांग्रेस को जो भी मुस्लिम वोट मिलता है वह मजबूरी में मिलता है। मुसलमान को जहां भी कांग्रेस का विकल्प दिखा उसने दोनों बांहें फैलाकर उसका आलिंगन किया। इसलिए कांग्रेस को किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए।

कांग्रेस को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे अखिल भारतीय राजनीति करनी है। वह जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर प्रादेशिक कांग्रेस के नेता पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस की मांग का समर्थन करेंगे और कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व चुप रहेगा तो देश की जनता इसे नहीं समझेगी। वैसे भी पी चिदंबरम ने अनुच्छेद-370 की बहाली की मांग करके सब गुड़ गोबर कर दिया है। भाजपा ने इस मुद्दे को पकड़ लिया है और अब वह कांग्रेस को चुनौती दे रही है कि वह बिहार के चुनाव में अपने घोषणापत्र में यह बात शामिल करे कि वह जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 बहाल कराना चाहती है। कांग्रेस को तत्काल इस पर सफाई देनी चाहिए।

कांग्रेस को यह भी समझना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करना और कृषि कानूनों में बदलाव करके नए कानून बनाने का मसला अलग-अलग हैं। कृषि कानूनों में बदलाव का फैसला सरकार ने संसद में जोर जबरदस्ती कराया है। राज्यसभा में मनमाने तरीके से नियमों को तोड़-मरोड़ कर बिना वोटिंग के उसे पास कराया गया है। पर कश्मीर से अनुच्छेद-370 और 35ए हटाने का फैसला संसद के दोनों सदनों की विधिवत मंजूरी से हुआ है। राज्यसभा में भी बहुमत के साथ इसे पास किया गया। कांग्रेस की तरह उदार, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील राजनीति करने वाली कई पार्टियों ने सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया। कांग्रेस खुद भी चुप रही। दूसरे, कांग्रेस पार्टी दशकों तक भाजपा को चिढ़ाती रही थी कि उसने अनुच्छेद-370 और अयोध्या में राम मंदिर पर क्या किया। जब इन दोनों पर फैसला हो गया तो अब इतिहास का चक्र उलटा घुमाने का कांग्रेस का प्रयास राजनीतिक रूप से आत्मघाती होगा।

वैचारिक बहस के लिए कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाना राज्य के लोगों के अधिकार छीनने जैसा है। यह भी कहा जा सकता है कि यह कश्मीरियत पर हमला है, जिसकी बात भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी करते थे और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं। लेकिन कांग्रेस कोई बौद्धिक, वैचारिक संगठन नहीं है। वह एक राजनीतिक दल है, जिसे व्यावहारिक व चुनावी राजनीति करनी है। व्यावहारिक व चुनावी राजनीति में जम्मू-कश्मीर में पांच अगस्त 2019 से पहले की स्थिति बहाल करने की मांग करना आत्मघाती है। भाजपा पिछले कई बरसों के प्रचार और सोशल मीडिया की अपनी ताकत के दम पर कांग्रेस को विभाजनकारी साबित करने के प्रयास में लगी है। अगर कांग्रेस लोकप्रिय धारणा को समझे बगैर जम्मू-कश्मीर की प्रांतीय पार्टियों के साथ खड़ी होती है तो जम्मू-कश्मीर में भी उसे नुकसान होगा और देश में भी नुकसान उठाना होगा।

कांग्रेस को इस मुद्दे का जम्मू-कश्मीर में भी फायदा नहीं होगा क्योंकि अगर इस मुद्दे पर राजनीति होती है तो इसका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां नेशनल कांफे्रंस और पीडीपी हैं, जिनके नेता महीनों तक जेल में बंद रहे हैं। राज्य की जनता उनके साथ खड़ी होगी। सो, राज्य में तो फायदा नहीं होगा उलटे देश के बाकी हिस्सों में कांग्रेस के विभाजनकारी होने और मुस्लिमपरस्त होने की धारणा मजबूत होगी। कश्मीर के मसले पर कांग्रेस को लोकप्रिय भावना का ध्यान रखना होगा। इसे समझकर ही कांग्रेस के नेताओं ने 5 अगस्त 2019 के बाद कभी इस पर कोई आंदोलन खड़ा करने या इसका विरोध करने का प्रयास नहीं किया। कांग्रेस के तमाम बड़े नेता या तो इस पर चुप रहे या ज्यादा से ज्यादा इस फैसले के तरीके का विरोध किया। जब पहले दिन इसका विरोध नहीं किया तो अब एक साल बाद अगर वह क्षेत्रीय पार्टियों के एजेंडे में फंसती है तो उसे नुकसान होगा।

कांग्रेस को यथास्थिति की बहाली की बजाय मौजूदा स्थिति में क्या बेहतर हो सकता है, उस पर ध्यान देना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा बहाल हो, राष्ट्रपति शासन खत्म हो, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार आए, कश्मीरियत की रक्षा हो, आतंकवाद खत्म हो, कश्मीर देश की मुख्यधारा से जुड़े और वहां विकास शुरू हो, इसका प्रयास कांग्रेस को करना चाहिए। कश्मीर के लोग खुद भी आतंकवाद से उबे हुए हैं और उनको समझ में आ गया है कि पाकिस्तान का दखल उनके जीवन का भला नहीं कर रहा है। बाकी देश में तो खैर यह माहौल है ही कि कश्मीर में एक ऐतिहासिक गलती को दुरुस्त किया गया है। अनुच्छेद-35ए वैसे भी कई संवैधानिक प्रावधानों के उलट था और महिलाओं, दलितों सहित कई वर्गों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता था। ऊपर से वह प्रावधान सरकार के एक कार्यकारी आदेश के जरिए लागू किया गया था। इसलिए उसके हटने का स्वागत होना चाहिए। रही बात अनुच्छेद-370 की तो उसकी उपयोगिता बौद्धिक बहस का विषय हो सकती है।

कांग्रेस की राजनीति में निरंतरता और लक्षित हमले के खतरे को भाजपा समझ रही है। तभी खुद प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर हमले की जिम्मेदारी संभाली है। वे आमतौर पर चुनावी सभाओं में कांग्रेस पर हमला करते हैं पर पिछले दो हफ्ते में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा वाले भाषण को छोड़कर हर वर्चुअल सम्मेलन में उन्होंने कांग्रेस को निशाना बनाया। कांग्रेस पर इस हमले का एक तात्कालिक कारण कृषि से जुड़े कानूनों को लेकर कांग्रेस की सक्रियता भी है। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी की सरकार को निर्णायक मात एक ही मामले में दी है और वह मामला भी कृषि से जुड़ा था। सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की पहल की थी, जिसके विरोध में कांग्रेस ने ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि सरकार को पीछे हटना पड़ा था। अब एक बार फिर किसान के मामले में कांग्रेस आंदोलन को हवा दे रही है, यह सरकार के लिए चिंता की बात है।

कांग्रेस की राज्य सरकारों को अस्थिर करने या पार्टी के अंदर बगावत के प्रयास भी कारगर साबित नहीं हुए हैं। हमलों की निरंतरता और लोगों से जुड़े विषयों को उठाने से कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को गंभीरता से लिया जाने लगा है। यह इस बात से भी जाहिर होता है कि पिछले डेढ़-दो साल से राहुल गांधी को पप्पू साबित करने वाला कोई नया वीडियो नहीं आया है। पुराने वीडियो ही सरकुलेट हो रहे हैं और उनका बहुत असर नहीं हो रहा है। इसका मतलब है कि उनके उठाए मुद्दों के तार आम लोगों से जुड़ गए हैं। उनको नासमझ और अगंभीर नेता साबित करने वाली जितनी बातें सोशल मीडिया में डाली गई हैं उससे ज्यादा बातें उनको गंभीर नेता साबित करने वाली आ गई हैं। कोरोना और अर्थव्यवस्था को लेकर की गई उनकी सटीक भविष्यवाणियों ने उनकी छवि सुधारने में बड़ी भूमिका निभाई है। तभी वे और उनकी पार्टी एक गंभीर राजनीतिक चुनौती के तौर पर उभरे हैं और यही बात सरकार व भाजपा दोनों को परेशान कर रही है।

वंशवाद कमजोरी नहीं ताकत है

कांग्रेस पार्टी किसी भी और बात के मुकाबले इस बात को लेकर ज्यादा बैकफुट पर है कि उसके नेतृत्व पर वंशवादी होने का आरोप है। यह भाजपा, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के बनाए एजेंडे की 100 फीसदी सफलता का संकेत है, जो कांग्रेस नेता ऐसा सोच रहे हैं। असलियत यह है कि आम लोगों के लिए राजनीति में या किसी भी कामकाज में वंशवाद कोई मुद्दा नहीं है। उलटे भारत में दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले वंशवादी राजनीति को ज्यादा पसंद किया जाता है। परंतु कांग्रेस पता नहीं क्यों इस बात को नहीं समझ रही है। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि वंशवाद की राजनीति उसकी कोई कमजोरी नहीं है और न कोई अपराध है, बल्कि यह एक ताकत है और इसी ताकत से भाजपा को घबराहट है। कांग्रेस के एजेंडे की कोई चिंता भाजपा को नहीं है क्योंकि भाजपा नेताओं के पास अपना ऐसा एजेंडा है, जिसकी काट उनको लगता है कि कांग्रेस के पास नहीं है। भाजपा यह मानती है कि कांग्रेस किसी भी स्थिति में उसके हिंदुत्व के एजेंडे का जवाब देने के लिए मैचिंग एजेंडा नहीं उठा सकती है।

कांग्रेस को रहना होगा सतर्क

जिस राजनीति में भाजपा माहिर है उस राजनीति में कांग्रेस उसे किसी कीमत पर नहीं हरा सकती है। जैसे जिस राजनीति में इस देश की क्षेत्रीय पार्टियां माहिर हैं उस राजनीति में उनको न कांग्रेस हरा सकती है और न भाजपा। सो, कांग्रेस को दो बातें गांठ बांधनी होंगी। पहली बात तो यह कि वह धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति में भाजपा को नहीं हरा सकती है। इस राजनीति में भाजपा पहले भी माहिर थी और अब तो उसके पास इस राजनीति के चैंपियन खिलाड़ी हैं। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस को अपनी ताकत पहचाननी होगी। उसकी ताकत जाति और धर्म की राजनीति में नहीं है। उसने जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों का साथ देकर ही तो अपना वोट आधार गंवाया है और अब धर्म की राजनीति में कूद पर बचा-खुचा आधार भी खोने का खतरा मोल ले रही है। उसे आजादी की लड़ाई के मूल्यों पर आधारित नए सिद्धांत गढ़ने चाहिए। उसे समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतांत्रिक मूल्यों की ही राजनीति करनी चाहिए। इन तीन मूल्यों पर वह मौजूदा समय की समस्याओं को पहचान कर उनका समाधान पेश कर सकती है।

- दिल्ली से रेणु आगाल 

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