23-Jun-2020 12:00 AM
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केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले कुछ सालों में कई अवसर ऐसे दिए जब विपक्ष उन्हें मुद्दा बनाकर सरकार के सामने मुसीबत खड़ी कर सकता था। लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस न तो उन मुद्दों को सफलता पूर्वक उठा पाई और न ही विपक्ष का नेतृत्व कर पाई। इस कारण मोदी सरकार के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी का माहौल नहीं बन पाया। अब कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण किए गए लॉकडाउन में मजदूरों का पलायन भी बड़ा मुद्दा है, लेकिन उसे भुनाने के लिए कांग्रेस ठीक से मोर्चा नहीं संभाल पाई।
केंद्र में भाजपा को सत्ता संभाले 6 साल हो गए लेकिन आज भी केंद्र सरकार के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी नहीं है। इसकी यह वजह नहीं है कि केंद्र सरकार सबकुछ अच्छा कर रही है। दरअसल, विपक्ष कमजोर और निष्क्रिय है। जरा फरवरी 2020 की स्थिति पर गौर करें। नरेंद्र मोदी सरकार 'क्रमबद्ध’ सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर नरमी दिखाने को तैयार नहीं थी, जिनसे कि लाखों भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छिनने का खतरा था। भाजपा नेता कपिल मिश्रा के भाषणों से, बहुतों के अनुसार, दिल्ली में भड़के दंगों में 50 से अधिक लोग जान गंवा चुके थे। ये नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शनों को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया थी। सरकार प्रदर्शनकारियों से बात करने तक को तैयार नहीं थी। मुख्य विपक्ष कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियां कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी क्योंकि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श हिंदू-मुस्लिम के मुद्दों पर केंद्रित था, जिसे वे अपना सबसे कमजोर पक्ष मानती हैं। अर्थव्यवस्था की हालत खराब होने के बावजूद वे बहस को रोजी-रोटी के मुद्दे की तरफ मोड़ने में नाकाम रहे थे।
जानकारों का कहना है कि इन दिनों कांग्रेस के भीतर ही तीन कांग्रेस हैं। कांग्रेस (एस), कांग्रेस (आर) और कांग्रेस (पी)। और ऐसा लगता है कि इनमें से किसी को मालूम नहीं कि दूसरा क्या कर रहा है। सोनिया गांधी घोषणा करती हैं कि कांग्रेस पार्टी श्रमिकों के ट्रेन टिकट का खर्च उठाएगी और राहुल गांधी इस बारे में ट्वीट तक नहीं करते, जूम कॉन्फ्रेंस की बात ही जानें दें। वास्तव में, उन्हें दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर होना चहिए था, इस मुद्दे पर आगे बढ़कर नेतृत्व देना चाहिए था। राहुल गांधी और उनके लोग पार्टी में इस कदर हाशिए पर पड़े हैं कि शायद निजी तौर पर वे इस बात का विलाप करते हों कि ज्यादातर शीर्ष नेता उन्हें रीट्वीट तक नहीं करते। वहीं प्रियंका गांधी उत्तरप्रदेश में अपने मन का काम करती हैं, क्योंकि उनके ताकतवर सहयोगी संदीप सिंह को ये दिखाना है कि उनके पास डीके शिवकुमार और अहमद पटेल से बेहतर आइडिया है। इसका परिणाम स्वरूप अक्सर ऐसा लगता है मानो अपनी राजनीतिक छाप छोड़ने के लिए तीनों धड़े एक-दूसरे से होड़ में लगे हों। वास्तविक विभाजन के अभाव में, ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी को पता ही नहीं है कि वह क्या कर रही है या किस दिशा में बढ़ रही है।
कांग्रेसी नेताओं को सिर्फ एक ही बात प्रेरित करती है कि पार्टी के अन्य नेताओं को सफल होने नहीं दिया जाए। वैसे ये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी साबित हो सकती है, क्योंकि इसके कारण उन्हें कुछ करने की प्रेरणा तो मिलती है। लेकिन तीनों खेमों में से किसी को भी सफलता मिलती नहीं दिखती है क्योंकि उनमें से किसी को भी 'राजनीतिक अभियान’ की समझ नहीं है या ये तक नहीं पता है कि सार्वजनिक रूप से कोई बात सामने रखने के लिए एक प्रचार अभियान की जरूरत होती है।
महात्मा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, विभिन्न विचारधाराओं के सफल राजनेताओं ने आम जनता के मन में किसी बात को बिठाने के लिए राजनीतिक अभियान की जरूरत को समझा है। राजनीतिक अभियान नियोजित कार्यक्रमों की एक श्रृंखला है जिसके जरिए एक या कुछेक सुसंगत विचार पेश किए जाते हैं, यह बारंबार दोहराए जाने के कारण विचार विशेष लोगों को समझने में मदद करता है; इसमें पहले से तय नाम, कीवर्ड और हैशटैग होते हैं; और इसे न्यूनतम दो सप्ताहों तक चलाया जाता है।
गांधी निकटतम समुद्र तट तक पहुंचकर नमक बना सकते थे। लेकिन इसकी बजाय उन्होंने दांडी का लंबा रूट चुना और उस मार्च की बारीकी से योजना बनाई ताकि नागरिक अवज्ञा के उनके संदेश को आम जनता पूरी तरह आत्मसात कर सके। इस तरह, नरेंद्र मोदी राजनीतिक को इवेंट मैनेजमेंट का रूप देने वाले कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं। स्मार्ट राजनीति हमेशा से ऐसी ही रही है क्योंकि मूलत: ये जनता से संवाद का उपक्रम है।
लगता नहीं है कि गांधी की विरासत का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी (सच में करती भी है?) इस बात को समझती है। सोनिया गांधी (मतलब अहमद पटेल) घोषणा करते हैं कि कांग्रेस सभी प्रवासी श्रमिकों के टिकट का भुगतान करेगी। शानदार आइडिया। मोदी सरकार घबराकर एक फर्जी दावा करती है कि केंद्र टिकट का 85 प्रतिशत दे रही है, जबकि शेष 15 प्रतिशत राज्यों की जिम्मेवारी है। ये कांग्रेस का एक दिवसीय आयोजन, या कहें कि प्रेस-रिलीज आयोजन साबित हुआ। यदि इसी को अभियान की तरह चलाया जाता तो हर किसी को पता चलता कि कांग्रेस ने कितने टिकट खरीदे; कांग्रेसी सरकारों ने क्या किया, आदि-आदि। इसी तरह राहुल गांधी ने दो अर्थशास्त्रियों 'रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी’ के साथ जूम पर चैट किया और फिर उस बारे में भूल गए। उनसे क्या निकला? परिणाम क्या रहे? आगे क्या कदम उठाए गए? कुछ प्रवासी श्रमिकों से मिलने में उन्हें कई हफ्ते लग गए, और वो भी अपने आप में एक अकेला कार्यक्रम था जिसे 'वृतचित्र’ की तरह पेश किया गया जिसे किसी ने नहीं देखा।
इसी तरह, प्रियंका गांधी ने एकबारगी दावा किया कि कांग्रेस मजदूरों के लिए बसें उपलब्ध करा रही हैं और योगी आदित्यनाथ ने ये कहते हुए उनकी पोल खोल दी कि वो तुरंत बसें भिजवाएं। बारंबार, हम अभियान वाले दृष्टिकोण का अभाव देखते हैं जो कि इस तरह की नाकामियों से बचा सकता था। राहुल गांधी को प्रवासी मजदूरों के साथ दिल्ली से अमेठी तक चलके जाना चाहिए था। जिम में इतना व्यायाम करना भला किस दिन काम आएगा? और मजदूरों के लिए बस चलाने देने से योगी आदित्यनाथ के इनकार के खिलाफ एक भावपूर्ण भाषण देने के लिए प्रियंका गांधी को खुद दिल्ली या राजस्थान से लगने वाली उत्तरप्रदेश की सीमा पर जाना चाहिए था। उन्हें अपनी गिरफ्तारी देनी चाहिए थी। इसकी बजाय पार्टी के उत्तरप्रदेश प्रमुख गिरफ्तार किए जाते हैं और पार्टी नेता, हमेशा की तरह, ट्वीट कर इसकी निंदा करते हैं।
किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए बहुत सामान्य बात है कि शासन के पहले वर्ष में वो लोकप्रिय बनी रहती है। इसलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा करने के समय, नरेंद्र मोदी सरकार की लोकप्रियता पूरी तरह बरकरार है। हालिया सर्वेक्षणों के सबूत भी इस बात की गवाही देते हैं कि पिछले कुछ महीनों में, खासकर भारत में कोरोनावायरस संकट से कुशलता के साथ निपटने से, मोदी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है। विरोधी लहर का मूड आमतौर पर तब बनना शुरू होता है, जब सरकार अपना आधा कार्यकाल पूरा कर लेती है, यानी सत्ता में रहने के ढाई साल बाद। तो, सवाल ये उठना चाहिए कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का आधा समय पूरा होने पर, उसके खिलाफ विरोधी लहर उठेगी, या नहीं? इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं हो सकता। फिलहाल लोगों के मूड, और पूरी तरह अव्यवस्थित पड़े विपक्ष को देखते हुए, मुझे यकीन है कि भारतीय जनता पार्टी आराम से, 2024 में तीसरा राष्ट्रीय चुनाव जीत लेगी।
मोदी की अगुवाई में भाजपा ने पिछले 6 सालों में, बहुत से चुनावी पैटर्न तोड़े हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले, शायद ही किसी ने सोचा होगा कि भाजपा 2014 से भी बेहतर प्रदर्शन करेगी, और उत्तर भारत के बहुत राज्यों में पार्टी का सीट शेयर अपने शिखर पर पहुंच जाएगा। ऐसा माना जाता था कि उप्र, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, मप्र, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भाजपा के लिए 2014 के अपने चुनावी प्रदर्शन को दोहराना नामुमकिन साबित हो सकता है। लेकिन पिछले तमाम चुनावी पैटर्न्स को तोड़ते हुए, पार्टी ने इनमें से बहुत से राज्यों में, न केवल अपनी चुनावी सफलता को दोहराया, बल्कि कुछ में पहले से भी बेहतर प्रदर्शन किया, और उनमें से बहुत से सूबों में अपना वोट शेयर 50 प्रतिशत के पार ले गई। 2019 में भाजपा से पहले कांग्रेस के अलावा कोई दूसरी सियासी पार्टी लगातार दो चुनाव नहीं जीत पाई है। अपने चुनावी प्रदर्शन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता दोनों से पार्टी को दूसरे कार्यकाल के मध्य में उठने वाली किसी भी विरोधी लहर से निपटने में सहायता मिलेगी।
मोदी आज उतने ही लोकप्रिय हैं (मगर अधिक नहीं), जितने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी अपने समय में थे। कोरोनावायरस वैश्विक महामारी से ग्रस्त कई देशों में हुए सर्वेक्षणों में, मोदी को कोविड-19 से निपटने में, अपने वैश्विक समकक्षों से ऊंचा आंका गया है। जो चीज मोदी सरकार को लोकप्रिय बनाती है, वो है बहुत समय से लंबित पड़े विवादास्पद कानूनों को पास करने की इसकी क्षमता। धारा 370 को कमजोर करने, जम्मू-कश्मीर राज्य के विभाजन, तीन तलाक कानून और नागरिकता संशोधन कानून ने, अधिकतर हिंदुओं में खुशी की लहर भर दी है, और भाजपा में उनकी आस्था को बरकरार रखा है।
कोरोना संकट एक और अवसर
आज लाखों की संख्या में गरीब प्रवासी मजदूर, अचानक घोषित हुए लॉकडाउन की वजह से मुसीबत झेल रहे हैं, और भारत अपने सबसे खराब आर्थिक संकट से दो-चार हैं। लेकिन मोदी सरकार लोगों को ये संदेश देने में कामयाब रही है कि लॉकडाउन न केवल सफल रहा है, बल्कि इससे हजारों लोगों का जीवन भी बचाया जा सका है। भारत में कोरोनावायरस से हो रही मौतों की, दूसरे विकसित देशों के साथ लगातार तुलना करने से, इस सरकार को एक पॉजिटिव कहानी बनाने में मदद मिली है, जिसे बड़ी संख्या में लोगों ने स्वीकार कर लिया है। मौजूदा सियासी माहौल और लोगों के मूड को देखते हुए, इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा 2024 में तीसरा चुनाव जीत लेगी। ऐसा संभव नहीं लगता कि फिलहाल जो बढ़त उसे हासिल है, पार्टी उसे आसानी से गंवा देगी। इस बात की भी संभावना नहीं है कि लोग अचानक से विपक्षी दलों और नेताओं में भरोसा दिखाने लगेंगे। 2024 में चुनावी मुकाबला तभी मुमकिन है, जब चीजें बिल्कुल उलट जाएं। अवसर बहुत कम हैं लेकिन एक संभावना अभी भी बाकी है। हमने देखा है कि एक बेहद लोकप्रिय कांग्रेस, जिसकी अगुवाई एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री (राजीव गांधी) कर रहे थे, सिर्फ कुछ महीनों में बिखर गई और अगला चुनाव हार गई।
वातानुकूलित हवाई किला
महामारी व लॉकडाउन के दौरान राजनीतिक गतिविधियों पर रोक कांग्रेस पार्टी के आलसी लुटियंस नेताओं के लिए वरदान साबित हुई है। उन्हें अब बाहर निकलने की भी जरूरत नहीं है, सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक भी नहीं। क्योंकि राजनीतिक धरना-प्रदर्शन की इजाजत नहीं है। घरों से दूर फंसे मजदूर जब जिंदा रहने की जद्दोजहद में लगे हों, राहुल गांधी इंस्टाग्राम पर अपनी एक तस्वीर लगाते हैं, जिसका शीर्षक है- 'कार्यालय में एक शांत शाम’। इतनी बेवकूफी के लिए निश्चय ही बहुत प्रयास की जरूरत होती होगी, प्रवासी श्रमिकों से मिलने में राहुल गांधी को 50 दिनों से अधिक का समय लगता है। प्रियंका गांधी ने अपना काम अपने 'निजी सचिव’ को सौंप रखा है जो कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि से आते हैं। क्या किसी को पता है कि नरेंद्र मोदी का निजी सचिव कौन है? या अमित शाह का? नहीं, क्योंकि ये नेता राजनीति की मूल बातें जानते हैं, जैसे ये बात कि नेता का काम है नेतृत्व करना।
- दिल्ली से रेणु आगाल