18-Feb-2020 12:00 AM
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दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत कोई साधारण जीत नहीं है। क्योंकि भय और जहर से भरपूर उच्चस्तरीय और फिजूल खर्ची के अभियान के बावजूद विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा, उसकी विचारधारा और नीतियों पर हुए जनमत संग्रह में बुरी तरह से हार गई है। दिल्ली की जनता ने यह दिखा दिया कि वह भावनाओं में बहने वाली नहीं है। उसने विकास पर मुहर लगाई है।
महाभारत काल में इन्द्रप्रस्थ के नाम से ख्यात दिल्ली में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में इस बार कुरुक्षेत्र जैसा नजारा देखने को मिला। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार को हराने के लिए भगवान श्रीराम के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद सबका प्रयोग किया, लेकिन अरविंद केजरीवाल की हनुमान भक्ति के सामने उनकी एक नहीं चली। और दिल्ली में 'अबकी बार जय हनुमान’ का नारा बुलंद हो गया।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने 70 सदस्यीय विधानसभा में 62 सीटें हासिल की हैं, जिससे भाजपा के खाते में 8 सीटें आई हैं। पिछली विधानसभा (2015) में भाजपा के पास तीन जबकि 'आप’ के पास 67 सीटे थी। 'आप’ को कुल मिलाकर 53.6 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो पिछली बार के 54.3 प्रतिशत के बराबर ही हैं। भाजपा अपने दो सहयोगियों के साथ मिलकर लड़ी और लगभग 40 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं, जो पिछली बार के मिले 32.7 प्रतिशत मत के मुकाबले उल्लेखनीय वृद्धि है। तीसरी बड़ी पार्टी, कांग्रेस का तो सफाया ही हो गया है क्योंकि उसका वोट शेयर 2015 के 9.3 प्रतिशत से घटकर केवल 4.4 प्रतिशत रह गया है। यह एक ऐसी पार्टी थी जो एक दशक पहले राजधानी शहर में 40 प्रतिशत से अधिक वोट पाती थी।
सबसे भड़काऊ अभियान
दिल्ली ने अब तक के हुए चुनाव अभियानों में से इस अभियान को सबसे भड़काऊ अभियान माना है। जिसे नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल और भाजपा के 240 संसद सदस्यों ने चलाया। जिसका संचालन व्यक्तिगत रूप से गृहमंत्री अमित शाह ने किया था। इस अभियान से जो नतीजे निकले उसका संदेश काफी स्पष्ट और चौंकाने वाला है। वह यह कि दिल्लीवालों ने नफरत की राजनीति को स्वीकार नहीं किया। इस बार भाजपा ने बड़े ही उग्र तरीके से चुनाव लड़ा। इसने तीन प्रमुख मुद्दों को उठाया, जो सभी हिंदुत्व के एजेंडे का प्रतिनिधित्व करते थे जिनमें मुख्य है- अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राम मंदिर मुद्दे का समाधान। लेकिन यह अभियान का सिर्फ एक ढांचा था। जमीनी अभियान में इसने मुसलमानों के खिलाफ नफरत का खुला और चौंकाने वाला विस्फोट किया था, जिसमें उन्होंने आरएसएस के झूठ और विकृतियों का इस्तेमाल किया था। यह कोई गुप्त तरीके से चलने वाला कानाफूसी का अभियान नहीं था, इसके लिए दहाडऩे और गर्जन करने वाले नेता चुने गए, भीड़ को उकसाया गया, नारे लगाए गए और खुली धमकी दी गई।
नफरत बनाम विकास
दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह के नजारे देखने को मिले उससे इस चुनाव को भाजपा की नफरत बनाम अरविंद केजरीवाल के विकास का चुनाव माना गया। भाजपा ने जिस तरह आक्रामक तरीके से चुनावी ताल ठोकी और अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी तक करार दिया उसके इस तरह के अभियान से दिल्ली के मतदाता चिंतित और परेशान हो गए थे। इस तरह के घृणित विचारों और भावनाओं की चकाचौंध में शहर आहत हुआ और आगबबूला भी हो गया था। भाजपा की बुरे ख्वाबों की दृष्टि भयावह थी और उसने कई लोगों को भ्रमित कर दिया था।
दूसरी ओर, 'आप’ पार्टी पिछले पांच वर्षों में किए गए कामों के बारे में बात करने के अपने निर्धारित ट्रैक पर अटकी रही। जिसमें उन्होंने सस्ती और अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा, बिजली और पीने के पानी की दरों में कमी, आदि में सरकार की भूमिका और उपलब्धियों का उचित दावा पेश किया। इस कल्याणकारी दृष्टिकोण ने 'आप’ को बहुत लोकप्रिय बना दिया था, क्योंकि इसने दिल्ली के संघर्षरत आम आदमी को आवश्यक राहत प्रदान की थी; जो बढ़ती बेरोजगारी, स्थिर आय और बुनियादी भोजन और अन्य आवश्यकता की सामग्री की आसमान छूती महंगाई का सामना कर रहे थे। दरअसल, यह दो तरह की राजनीति की लड़ाई थी। एक, सांप्रदायिक की चोट करना, हिंसा का डर फैलाना, सबसे अपमानजनक झूठ, गाली और जहरीला प्रचार करना। दूसरा एक खास किस्म का विकासात्मक प्रकार का एजेंडा था, जिसमें विभिन्न वर्गों को अपील गई थी, जो कि दृष्टिकोण और स्वच्छता और ईमानदारी के साथ धर्मनिरपेक्षता का वादा करता था। शाह ने खुद इसे दो विचारधाराओं के बीच की लड़ाई करार दिया, हालांकि उन्होंने 'आप’ की विचारधारा को गद्दारों की विचारधारा कहा। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली के मतदाताओं की पसंद न केवल स्पष्ट और दो टूक है। बल्कि यह आरएसएस की राजनीति की जानबूझकर की गई अस्वीकृति है, जिस राजनीति को भाजपा ने दिल्ली में प्रसारित किया था।
वोट शेयर के समीकरण
अब परिणामों पर कुछ नजऱ डालते हैं। जैसा कि उल्लेख किया गया है, 'आप’ ने अपना वोट शेयर बरकरार रखा है जबकि भाजपा ने अपने शेयर में सात प्रतिशत से अधिक का इजाफा किया है। इस बीच, कांग्रेस को लगभग पांच प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ है, जबकि अन्य सभी - बहुजन समाज पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, आदि के साथ-साथ निर्दलीय उम्मीदवारों को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया गया है। स्पष्ट रूप से यह 'आप’ और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला था, कांग्रेस के पुनरुत्थान का मिथक का बुलबुला भी इसी के साथ फूट गया। क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस के मतदाताओं ने भाजपा को समर्थन कर दिया है, क्योंकि कुछ इस पर विश्वास करेंगे? नहीं, यह एक त्रुटिपूर्ण रूप से गलत धारणा होगी- और आलसी विश्लेषण होगा। पिछली बार (2015 में), कांग्रेस के वोटों का बड़ा हिस्सा मुस्लिम बहुल सीटों और निम्न मध्यम वर्ग या मजदूर वर्ग के इलाकों में था। ऐसा नहीं है कि उन्हें बहुत कुछ मिला, लेकिन जो कुछ भी था, इन वर्गों से मिला था, जिसमें कुछ समर्थन पारंपरिक मध्यम वर्ग से भी हासिल हुआ था। इस बार, मुस्लिम और श्रमिक वर्ग से जुड़े मतदाता 'आप’ की तरफ हो लिए। यह मुख्य रूप से 'आप’ की कल्याणकारी नीतियों का नतीजा था और सीएए का विरोध। इसलिए 'आप’ के उम्मीदवार सबसे आगे थे।
भाजपा का सांप्रदायिक सूद
भाजपा ने अपना वोट कहां से बढ़ाया? यह वह केंद्र बिन्दु है जहां भाजपा के वीभत्स अभियान की खतरनाक विरासत निहित है। यह इस अभियान का ही एक परिणाम था जिसने उन लोगों के एक वर्ग को आकर्षित किया, जिन्होंने पिछली बार 'आप’ को वोट दिया था, लेकिन इस बार सांप्रदायिक बयानबाजी से प्रभावित हुए हैं। बड़ी बात यह है कि यह हिस्सा बहुत बड़ा नहीं है। लेकिन यह संभावित रूप से एक परेशान करने वाला तथ्य है, क्योंकि भाजपा ने सांप्रदायिक घृणा के बीज बोए हैं, वे संकीर्ण चुनावी लाभ के लिए हैं और ये आने वाले समय में जहरीले फलों का उत्पादन करेंगे, यदि उनका मुकाबला समय रहते नहीं किया गया।
भाजपा को यह सोचने की जरूरत है कि वह भारत और उसके लोगों को कैसे देखती है। पिछले एक साल में, मई 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बावजूद पार्टी कई राज्यों में चुनाव हार चुकी है। विनाशकारी आर्थिक नीतियों के कारण इसका समर्थन तेजी से घट रहा है। भगवा पार्टी ने केंद्रीय स्तर पर विश्वसनीयता बनाए रखी है, वह केवल इसलिए कि उसमें लोगों को यह समझाने की क्षमता है कि वह अकेले देश की सबसे समर्पित रक्षक है, और नफरत की अपनी राजनीति के माध्यम से ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाने में कामयाब है। वामपंथ को छोड़कर, सभी राजनीतिक दलों की अक्षमता के कारण उन्हें जमीन पर अपनी कहानी के समर्थन में मदद मिली है। लेकिन, यह समर्थन लंबे समय तक नहीं रहेगा। जैसा कि आर्थिक संकट बढ़ रहा है, और भाजपा-आरएसएस के मध्ययुगीन सपने उजागर हो रहे हैं जो कि अपने आप में काफी डरावने सपने हैं, यह तिलस्म टूटना निश्चित है।
जनकल्याणकारी कार्यों पर मुहर
जरा सोचिए कि क्या तब कोई दल जनकल्याण के मुद्दों को खारिज कर चुनावों में संकुचित एवं गैर जरूरी मसलों के सहारे वोट बटोरने का साहस करेगा जब समाज को जाति, मजहब, क्षेत्र जैसे मसले प्रभावित न करते हों? दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे देश के करीब 90 करोड़ मतदाताओं को यही संदेश दे रहे हैं कि ऐसा हो सकता है। वास्तव में आम आदमी पार्टी की ओर से जनकल्याण के मुद्दों पर कहीं अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण ही दिल्ली के मतदाताओं ने उसे फिर से सत्ता सौंपी है।
दिल्ली में ऐसे वक्त चुनाव हो रहे थे जब नागरिकता संशोधन कानून को लेकर मुस्लिम समाज में नाराजगी व्याप्त थी और वह उसे खुलकर व्यक्त भी कर रहा था। दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में इस कानून के खिलाफ धरना भी जारी था। यह अभी भी जारी है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस धरने को जनता को बांटने वाला आंदोलन करार देते हुए एक संयोग नहीं, प्रयोग बताया। कुल मिलाकर भाजपा की ओर से शाहीन बाग धरने को चुनावी मुद्दा बनाने की हरसंभव कोशिश की गई। इसमें उसके कुछ नेताओं ने आपत्तिजनक बयान भी दिए। केजरीवाल को आतंकवादी कहा गया। इस पर एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि केजरीवाल तो खुद को अराजकतावादी कहते हैं और आतंकवादी एवं अराजकतावादी में ज्यादा अंतर नहीं होता।
जनता आप पर हुई मेहरबान
अगर इस सबके बावजूद आम आदमी पार्टी को जनता ने चुना तो क्या यह शाहीन बाग आंदोलन पर मतदाताओं की मुहर है? नहीं। यह संदेश है कि जो असल में हमारे स्वास्थ्य, शिक्षा और हमारे कल्याण के लिए बिजली और पानी मुफ्त देगा वही हमारी पसंद भी होगा। आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के दौरान उपजे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन की पैदाइश है। आंदोलन के अस्थाई स्वरूप के कारण देश की जनता फिर वापस जाति, संप्रदाय और अन्य संकीर्ण भावनाओं में बहने लगी।
शिक्षा पर दिखाया बड़ा दिल
चूंकि दिल्ली में सरकार के पास बहुत ही सीमित शक्तियां हैं, लिहाजा 2015 में 70 में से 67 सीटों के साथ सत्ता में आने के बावजूद आप सरकार को पग-पग पर बाधाएं मिलीं, लेकिन उसने अपने पहले बजट में एक तिहाई राशि शिक्षा के लिए और एक बड़ा अंश स्वास्थ्य के लिए आवंटित किया। करीब 2.10 करोड़ की दिल्ली की कुल आबादी के लिए 2019 में आप सरकार का बजट 60 हजार करोड़ रुपए का हो गया। इसमें से 25 प्रतिशत यानी लगभग 15,000 करोड़ रुपए शिक्षा के लिए आवंटित किए और लगभग साढ़े सात हजार करोड़ रुपए यानी 12.5 प्रतिशत स्वास्थ्य के लिए। दिल्ली सरकार हर परिवार पर रोजाना 50 रुपए खर्च करती है, जबकि केंद्र साढ़े छह रुपए खर्च करती है। अगर उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य को देखें तो 2019-20 में योगी सरकार ने 23,488 करोड़ रुपए यानी प्रति परिवार 12 रुपए का आवंटन किया। केंद्र का अंशदान मिला दें तो यह राशि लगभग 18.50 रुपए पहुंचती है। फिर इसमें 75 प्रतिशत हिस्सा प्रशासनिक खर्च में चला जाता है और शेष भाग का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
'मुफ्त बिजली’ का मास्टर स्ट्रोक
'मुफ्त बिजली’ मुख्यमंत्री का मास्टर स्ट्रोक रहा। दिल्ली के निम्न एवं मध्यम वर्ग जिसकी औसत आय 18,000 रुपए से कम है, उसके लिए अच्छी शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, मुफ्त बिजली-पानी अकल्पनीय राहत थी। मोहल्ला क्लीनिक से लेकर गरीब बच्चों के लिए सस्ती और सुलभ शिक्षा उपलब्ध होना दिल्ली की गरीब जनता के लिए दिवास्वप्न के साकार होने जैसा था। दिल्ली में अमीर-गरीब की खाई काफी चौड़ी है। यहां साक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत है और प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का तीन गुना और बिहार के मुकाबले सात गुना है। इस चुनाव परिणाम का संदेश यह भी है कि जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति आय और साक्षरता दर बढ़ेगी, वैसे-वैसे जातिवाद और सांप्रदायवाद का बोलबाला भी कम होगा और जनता राजनीतिक दलों को जनकल्याण पर अधिक ध्यान देने के लिए मजबूर करेगी।
जातिवादी राजनीति बेअसर
2014 तक सपा और बसपा सरीखे दलों ने दिल्ली में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की, लेकिन उनकी दाल नहीं गली। इस चुनाव में वे कहीं भी नहीं हैं तो इसी कारण कि दिल्ली में जातिवादी राजनीति नाम मात्र की है। दिल्ली में जातिवादी राजनीति के बेअसर रहने का कारण यही है कि यहां की बड़ी आबादी बाहरी लोगों की है और वह इसकी परवाह कम ही करती है कि कौन किस जाति का है? दिल्ली के नतीजे राजनीतिक दलों के लिए एक सीख है। यह उल्लेखनीय है कि केजरीवाल सरकार ने मुफ्त सुविधाएं देने के बावजूद अपने राजस्व को बढ़ाया। यह इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि दिल्ली सरकार ने टैक्स का जो भी जरिया उपलब्ध था उसमें भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई। इसी कारण उसका राजस्व बढ़ा। क्या अन्य राज्य सरकारें इसे अपनाकर अपने सीमित साधनों से राजस्व बढ़ाने और साथ ही जनता को मुफ्त बिजली-पानी देने का संकल्प ले सकती हैं? जनता अगर चाहे तो मुद्दा आरक्षण पर सस्ती सियासत न होकर सड़क, शिक्षा, अस्पताल और अन्य जन सुविधाएं हो सकती हैं। यह तभी होगा जब जनता संकीर्ण भावनाओं से परे उठकर अपनी सोच को जनकल्याण के मुद्दों की ओर ले जाएगी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सत्ता में वापसी के मूल कारणों पर इसलिए गौर किया जाना चाहिए, क्योंकि वे राजनीतिक दलों के साथ ही देश की जनता को भी संदेश दे रहे हैं।
गुटबाजी के कारण हारी भाजपा
दिल्ली में भाजपा का वनवास और बढ़ गया है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के चुनाव प्रबंधन को संभालने और शाहीन बाग को चुनावी मुद्दा बनाने से भाजपा के वोट तो बढ़े, लेकिन सीटों में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हुई। भाजपा मात्र आठ सीटों पर ठिठक गई। पार्टी की इस दुर्गति का सबसे बड़ा कारण दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मुकाबले मजबूत स्थानीय चेहरे का न होना माना जा रहा है। दिल्ली भाजपा स्थानीय नेतृत्व को मजबूत करने के बजाय पूरी तरह से केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर रही, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। दिल्ली में भाजपा पहली बार मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बिना चुनाव मैदान में उतरी थी और यह प्रयोग सफल नहीं रहा। चेहरा घोषित नहीं करने के पीछे दिल्ली में भाजपा नेताओं की गुटबाजी बताई जा रही है। पार्टी के पास कोई ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं था, जो सभी को साथ लेकर चल सके। प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के साथ ही केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन, राज्यसभा सदस्य विजय गोयल, सांसद प्रवेश वर्मा सहित कई नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे, जिससे पार्टी में गुटबाजी बढ़ती चली गई।
मुफ्त योजना के खिलाफ नहीं हुआ काम
भाजपा नेतृत्व को उम्मीद थी कि आप की मुफ्त बिजली-पानी व महिलाओं की मुफ्त बस यात्रा योजना के जवाब में उनका राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक दांव कारगर साबित होगा, लेकिन दिल्ली के नेता इसे भुनाने में असफल रहे। इस स्थिति को देखते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने पूरे चुनाव अभियान को अपने हाथ में ले लिया। अमित शाह ने खुद धुआंधार चुनाव प्रचार किया। इसके साथ ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में पहुंचे। बूथ प्रबंधन के लिए भी पार्टी ने दूसरे राज्यों के नेताओं को दिल्ली बुलाया और देशभर से लगभग तीन सौ सांसदों को मैदान में उतार दिया।
यह अमित शाह की हार
दिल्ली चुनाव में जीते तो केजरीवाल हैं, लेकिन हारा कौन? निश्चित तौर पर भाजपा। लेकिन भाजपा में भी कौन? वही जिसके नाम पर पूरा चुनाव लड़ा गया और वह एक नाम है अमित शाह। जी हां, आप इस गलतफहमी में मत रहना कि इस चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी या नए नवेले राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की हार हुई है। या फिर किसी और उम्मीदवार की हार हुई है। जिस तरह अब गोदी मीडिया साबित करना चाहता है। जिसने अपने बीजी-स्टिंग में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे की बजाय मनोज तिवारी और जेपी नड्डा का चेहरा लगाना शुरू कर दिया। जबकि इससे पहले वही मीडिया अमित शाह को चुनाव का चाणक्य और न जाने क्या-क्या नाम से पुकार रहा था। इस चुनाव में वही चाणक्य धड़ाम से गिर गए। दिल्ली का पूरा चुनाव भाजपा ने व्यक्ति के तौर पर अमित शाह के नाम पर लड़ा और राजनीति के तौर पर नफरत की राजनीति के सहारे लड़ा, लेकिन इन दोनों की ही इस चुनाव में हार हुई है। वास्तव में अगर इस चुनाव में भाजपा जीतती तो उसका सारा श्रेय अमित शाह और उनकी रणनीति को ही जाता। यह पहली बार था कि देश के किसी भी राज्य के चुनाव की तरह पोस्टर पर चेहरा तो दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया गया लेकिन चुनाव वास्तव में गृहमंत्री अमित शाह लड़ रहे थे।
भाजपा के 'जय श्रीराम' को आप का जवाब 'जय हनुमान'
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम के साथ ही अरविंद केजरीवाल की हनुमान भक्ति ने भाजपा की परेशानी बढ़ा दी है। दिल्ली चुनाव में भारी जीत का श्रेय भी केजरीवाल ने हनुमानजी को दिया। मप्र के आम आदमी पार्टी के नेताओं का कहना है कि खुद को 'कट्टर हनुमान भक्त’ के तौर पर पेश करने का निर्णय केजरीवाल ने अनायास नहीं लिया है। दशकों से 'जय श्रीराम’ का नारा लगाकर खुद को हिंदुत्व का पैरोकार बताने वाली भाजपा को अब आप 'जय बजरंग बली’ या 'जय हनुमान’ के नारे से जवाब दे सकती है। केजरीवाल के एक सहयोगी ने बताया कि पार्टी हनुमानजी के शुभंकर को उसी तरह अपनाने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है जैसे भाजपा पिछले तीन दशकों से भगवान श्रीराम का इस्तेमाल करती रही है। भाजपा आप को हिंदू विरोधी या राष्ट्र विरोधी नहीं बता सकेगी। हमारे नेता खुद को हनुमानजी के भक्त के रूप में बताते हैं क्योंकि हनुमानजी ही भगवान श्रीराम के परम भक्त हैं जिनके इर्द-गिर्द भाजपा अपनी राजनीति चलाती है।
इसलिए जीती आप
भाजपा के चुनाव प्रचार पर स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्दों का ही जिक्र मिला। जबकि आप केवल दिल्ली की बात करती रही। वहीं इस बार भाजपा केजरीवाल के खिलाफ कोई चेहरा खड़ा नहीं कर पाई। केजरीवाल बार-बार चुनौती देते रहे अगर भाजपा में हिम्मत है, तो सीएम उम्मीदवार घोषित करके दिखाए। इसके जवाब में भाजपा ने कहा- 'दिल्ली की जनता उसका चेहरा है।’ वहां दिल्ली चुनाव में कांग्रेस कहीं दिखाई नहीं दी। उसके उम्मीदवार और स्टार प्रचारकों ने भी प्रचार पर ज्यादा जोर नहीं दिया। अगर कांग्रेस दमखम से लड़ती तो उसे एंटी-भाजपा और एंटी-आप वोट मिलने की संभावना थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका सीधा फायदा आप को हुआ। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी और अमित शाह शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन के लिए आप को जिम्मेदार ठहराते रहे। लेकिन केजरीवाल ने भी यह कह दिया कि अगर दिल्ली पुलिस उनके हाथ में होती, तो दो घंटे में शाहीन बाग का रास्ता खुलवा देता। इस चुनाव में केजरीवाल का सॉफ्ट हिंदुत्व भी देखने को मिला। केजरीवाल ने खुद को हनुमान का भक्त बताया, जिस पर भाजपा ने सवाल किया कि क्या उन्हें हनुमान चालीसा भी आती है। इसके बाद केजरीवाल ने हनुमान चालीसा भी गाकर सुनाई। वोटिंग से एक दिन पहले भी केजरीवाल हनुमान मंदिर गए थे। आप की जीत की सबसे बड़ी वजह रही सरकार की विकासात्मक नीतियां। आप की सरकार आते ही एक तरफ सरकार ने प्राइवेट स्कूलों को मनमानी फीस बढ़ाने से रोका तो दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों पर भी फोकस किया। लोगों को सस्ता और अच्छा इलाज मुहैया करने के मकसद से केजरीवाल सरकार ने 400 से ज्यादा मोहल्ला क्लीनिक खोलीं। केजरीवाल सरकार ने 6 महीने पहले ही 200 यूनिट तक की बिजली फ्री देने की घोषणा की थी। जबकि 201 से 400 यूनिट तक की बिजली इस्तेमाल करने वालों को 50 प्रतिशत सब्सिडी देने का ऐलान किया। सरकार ने हर महीने लोगों को 20 हजार लीटर पानी फ्री देने का ऐलान किया। सरकार के मुताबिक, इससे 14 लाख लोगों को लाभ हुआ। चुनाव से तीन महीने पहले आप सरकार ने डीटीसी बसों और मेट्रो में महिलाओं के सफर को फ्री किया। आप के रिपोर्ट कार्ड के मुताबिक, सरकार महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 1.4 लाख सीसीटीवी कैमरे लगा चुकी है, जबकि 2 लाख स्ट्रीट लाइट लगाए गए हैं। महिला सुरक्षा के अलावा केजरीवाल सरकार ने कच्ची कॉलोनियों के निर्माण पर भी ध्यान दिया। रिपोर्ट कार्ड में दावा किया कि सरकार ने 5 साल में 1,797 में से 1,281 कॉलोनियों में सड़कें बनाईं, जबकि 1130 कॉलोनियों में सीवर लाइनें बिछाईं।
चुनाव दर चुनाव सिकुड़ती भाजपा
2014 से 2020 इन 6 सालों में अगर भाजपा का सफर देखें तो चुनाव दर चुनाव, राज्य दर राज्य भाजपा सिकुड़ती जा रही है। सिमटती जा रही है। 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ गंवाने के बाद 2019 में भाजपा ने महाराष्ट्र भी गंवा दिया और हरियाणा बामुश्किल बचाया अब 2020 की शुरुआत में भी झारखंड गंवाने के बाद दिल्ली भी हासिल नहीं हो सका। भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए पिछले दो साल में सात राज्यों में सत्ता गंवा चुका है। दूसरी बार मोदी सरकार बनने के बाद 4 राज्यों में चुनाव हुए, जिसमें से तीन चुनाव भाजपा हार गई। पिछली बार दिल्ली में महज 3 सीटें जीतने वाली भाजपा को इस बार बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। दिल्ली के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने 48 सीटों पर जीत के अनुमान के साथ सत्ता में आने की उम्मीद जताई थी। हालांकि, ये अनुमान गलत साबित हुए। इसी के साथ भाजपा के लिए देश का सियासी नक्शा भी नहीं बदला। दिल्ली समेत 12 राज्यों में अभी भी भाजपा विरोधी दलों की सरकारें हैं। एनडीए के पास 16 राज्यों में ही सरकार है। इन राज्यों में 42 प्रतिशत आबादी रहती है। कांग्रेस खुद के बूते या गठबंधन के जरिए महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, पुडुचेरी में सत्ता में है। दिसंबर में हुए चुनाव में झारखंड में सरकार बनने के बाद कांग्रेस की 7 राज्यों में सरकार है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी लगातार तीसरी बार जीती है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, केरल में माकपा के नेतृत्व वाला गठबंधन, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, ओडिशा में बीजद और तेलंगाना में टीआरएस सत्ता में है। एक और राज्य तमिलनाडु है, जहां भाजपा ने अन्नाद्रमुक के साथ लोकसभा चुनाव तो लड़ा था, लेकिन राज्य में उसका एक भी विधायक नहीं है। इसलिए वह सत्ता में भागीदार नहीं है। दिसंबर 2017 में एनडीए बेहतर स्थिति में था। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 19 राज्य थे। एक साल बाद भाजपा ने तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सत्ता गंवा दी। यहां अब कांग्रेस की सरकारें हैं। चौथा राज्य आंध्र प्रदेश है, जहां भाजपा-तेदेपा गठबंधन की सरकार थी। मार्च 2018 में तेदेपा ने भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में यहां वाईएसआर कांग्रेस ने सरकार बनाई। पांचवां राज्य महाराष्ट्र है, जहां चुनाव के बाद शिवसेना ने एनडीए का साथ छोड़ा और हाल ही में कांग्रेस-राकांपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। इसके बाद झारखंड में भी भाजपा सत्ता गंवा चुकी है, वहां अब कांग्रेस-झामुमो गठबंधन की सरकार है।
काम नहीं आया मप्र के नेताओं का प्रयास
दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 सीटों पर जीत के लिए मप्र के नेताओं ने भी चुनाव प्रचार-प्रसार में पूरी ताकत झोंकी थी। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, आधा दर्जन पूर्व मंत्री और सभी 28 सांसदों को दिल्ली में चुनाव प्रबंधन और प्रचार में पार्टी ने लगाया गया था। दिल्ली चुनाव में मप्र के कई नेताओं की ड्यूटी अलग-अलग विधानसभा सीट पर लगाई गई थी। पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा, उमाशंकर गुप्ता, विधायक अरविंद भदौरिया, रामेश्वर शर्मा, मोहन यादव, कृष्णा गौर, पूर्व विधायक ध्रुवनारायण सिंह, सांसद वीडी शर्मा, सांसद सुधीर गुप्ता सहित कई नेताओं को जनवरी के आखिरी सप्ताह में ही दिल्ली भेज दिया गया था। इन नेताओं ने जमकर प्रचार किया। लेकिन इनकी मेहनत काम नहीं आई। वहीं मप्र कांग्रेस के कुछ नेताओं ने भी चुनाव प्रचार किया था। व्यस्त होने के कारण सीएम कमलनाथ नहीं पहुंचे थे। लेकिन पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजस्व मंत्री गोविंद सिंह राजपूत और उच्च शिक्षा एवं खेल मंत्री जीतू पटवारी, विधायक कुणाल चौधरी दिल्ली के रण में स्टार प्रचारक थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा लगभग साफ होने और भाजपा की सीटों का आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं बढऩे से मप्र के नेता भी खुश हैं। कांग्रेस यह कह कर खुश है कि दिल्ली की जनता ने भाजपा को पूरी तरह से नकार दिया है। वहीं, पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि भाजपा का वोट शेयर दिल्ली में बढ़ा है। कांग्रेस का तो दिल्ली में सूपड़ा साफ हो चुका है।
कई 'किंतु-परंतु’ से भाजपा की हार ढंकने की कोशिश
दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार को कई तरह के किंतु-परंतु और लेकिन के माध्यम से ढंकने की कोशिश की जा रही है। भाजपा की हार के मूल मुद्दों और कारणों को सामने आने से बचाने का एक संगठित प्रयास हो रहा है। ऐसा करने के पीछे अपने-अपने निहित स्वार्थ हैं। ये भाजपा के नेतृत्व को किसी और असहज स्थिति में नहीं डालना चाहते हैं और कुछ ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे शीर्ष नेतृत्व की बदनीयती छुपी रहे। आखिर ऐसा क्या कारण है कि लोकसभा चुनाव में 56 प्रतिशत मत हासिल करने वाली और पिछले 15 साल से दिल्ली के सभी नगर-निगमों में बहुमत हासिल कर रही भाजपा को विधानसभा में केवल 8 सीटों से संतोष करना पड़ा है।
- राजेंद्र आगाल