2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और संघ ने मप्र संगठन और सरकार को 51 फीसदी वोट का टारगेट दिया है। इस टारगेट को पूरा करने के लिए पार्टी कई जतन कर रही है। ऐसे में एनडीए द्वारा द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करना मप्र भाजपा के लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का जश्न मनाया, उससे ऐसा लगता है जैसे सत्ता और संगठन को 51 फीसदी वोट का फॉर्मूला मिल गया है।
2018 के चुनाव में 41.5 फीसदी वोट मिलने के बावजूद सत्ता से बाहर हुई भाजपा ने 2023 के चुनाव में 51 फीसदी वोट लाने का लक्ष्य तय किया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए पार्टी सत्ता में आते ही जुट गई है। इसके लिए पार्टी ने सभी वर्गों को साधने के लिए तमाम तरह के जतन किए हैं। पार्टी को उम्मीद है कि 22 फीसदी आदिवासी वोट अगर भाजपा के पक्ष में आ जाए तो यह लक्ष्य आसानी से पाया जा सकता है। ऐसे में आदिवासी समाज की नेत्री द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना मप्र के लिए बड़ी उम्मीद बनकर सामने आया है। बता दे, मप्र में आदिवासियों की आबादी 2 करोड़ से ज्यादा है और देश के सर्वोच्च पद के लिए अपने समाज से उम्मीदवार का घोषित होना एक गर्व की बात है, जिसका जश्न मनाना तो बनता है। दरअसल, द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समाज से ही आती हैं। उन्होंने आदिवासियों के हितों और उत्थान के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी है, जिसके बाद वह आज इस ओहदे पर पहुंच सकी है। वह हमेशा से ही आदिवासियों, बालिकाओं के हितों को लेकर सजग रहीं। आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर वे कई बार सरकार को सीधे निर्देश देते हुए नजर आईं हैं।
मप्र में आदिवासी संख्या 2 करोड़ से अधिक होने के कारण, यह 84 विधानसभा सीटों पर सीधे-सीधे असर डालती हैं। 2018 के चुनाव में प्रदेश की 230 में से 82 सीटें आरक्षित थीं। इसमें से भाजपा 34 सीट ही जीत सकीं थी। 25 सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। अनुसूचित जाति की 47 सीटों में से 30 पर वर्तमान में कांग्रेस काबिज है और 17 पर भाजपा। अब भाजपा कांग्रेस के खाते वाली 30 सीटों पर कब्जा जमाना चाहती है। मप्र की चुनावी रणनीती को भाजपा ने अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। पार्टी के सूत्रों के मुताबिक इस बार मप्र विधानसभा चुनावों में पार्टी की रणनीति अपने वोट शेयर को कम से कम 51 प्रतिशत तक पहुंचाने का है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए भाजपा ने एससी और एसटी समुदायों के बीच अपनी पैठ को और मजबूत करने का फैसला किया है। पार्टी लगातार इस वर्ग से जुड़े मुद्दों को उठा रही है और कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंधमारी के लिए लगातार काम कर रही है। पार्टी ने इसके लिए एक प्लान तैयार किया है। वैसे भारतीय संविधान में सदियों से पीड़ित, शोषित व पिछड़े हुए लोगों, विशेष रूप से आदिवासी जनजातियों के विकास व उत्थान की समुचित व्यवस्था की गई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इस वर्ग को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने व वर्गहीन, शोषण-रहित व भयमुक्त समाज की स्थापना के उद्देश्य से देश में अनेकानेक योजनाएं चलाई गई हैं। मप्र सरकार ने भी इस वर्ग के सर्वांगीण विकास हेतु प्रदेश में शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक कार्यक्रमों को उच्च प्राथमिकता के आधार पर संचालित किया है। वर्तमान में मप्र सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान एवं चहुंमुखी विकास के लिए अन्त्योदय योजना चलाई जा रही है।
आगामी विधानसभा चुनाव में 51 फीसदी वोट के टारगेट को पूरा करने के लिए भाजपा का पूरा फोकस 22 फीसदी आदिवासी वोट बैंक पर है। इस वोट बैंक को पाने के लिए प्रदेश में आदिवासियों पर आधारित कई कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं। दरअसल, विधानसभा चुनाव 2018 के परिणाम के बाद भाजपा को आदिवासी वोट की ताकत का अंदाजा हो गया है। यही वजह है कि मिशन 2023 के लिए भाजपा का फोकस आदिवासियों पर है। इसके लिए सितंबर 2021 में अमित शाह जबलपुर में राजा शंकरशाह-कुंवर रघुनाथ शाह के 164वें बलिदान दिवस कार्यक्रम में शामिल हुए थे। इसके बाद जनजातीय गौरव दिवस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भोपाल आए। उन्होंने हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम गौंड रानी कमलापति के नाम पर किया। फिर भोपाल में अमित शाह तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन में शामिल हुए। 2013 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने इन 47 आदिवासी सीटों में से 37 पर जीत हासिल की थी और लगातार तीसरी बार सत्ता बरकरार रखी थी। हालांकि, 2018 में कांग्रेस ने इस सीटों में से 31 सीटें जीतीं, जिससे भाजपा को यहां सिर्फ 16 सीटें मिली थीं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.02 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 40.89 फीसदी वोट मिले थे। सीटों के मामले में भाजपा को 109 और कांग्रेस को 114 सीटें मिली थीं।
2011 की जनगणना के मुताबिक मप्र में 43 आदिवासी समूह हैं। प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 2 करोड़ से ज्यादा है, जो 230 में से 84 विधानसभा सीटों पर असर डालती हैं। इनमें सबसे ज्यादा आबादी भील-भिलाला करीब 60 लाख, तो गोंड जनजाति की आबादी करीब 50 लाख है। कोल 11 लाख, तो कोरकू और सहरिया करीब 6-6 लाख हैं। करीब 10 साल बाद ये आंकड़े काफी हद तक बदल चुके हैं। प्रदेश में वर्ष 2023 के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए भाजपा का फोकस आदिवासी वर्ग के कल्याण की योजनाएं बनाने पर दिखाई पड़ रहा है। दरअसल, मप्र में 22 प्रतिशत आदिवासी हैं, जो विधानसभा की करीब 82 सीटों पर प्रभाव रखते हैं। प्रदेश में भाजपा की सत्ता बरकरार रखनी है, तो इन्हें साथ लेना जरूरी है। विकास के मुद्दे पर भाजपा कमजोर न पड़े, इसके लिए गरीब कल्याण की योजनाओं को आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस करते हुए गढ़ा जा रहा है। जैसे, राशन आपके द्वार योजना, जिसमें आदिवासी गांवों तक राशन पहुंचाया जा रहा है। इसके लिए वाहन भी युवाओं को दिए हैं। इसी तरह प्रधानमंत्री आवास, मुफ्त राशन, रोजगार दिवस, घरों तक नल से पानी पहुंचाने सहित कई योजनाओं का रुख आदिवासी क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया गया है।
भाजपा के पास आदिवासी चेहरों की कमी की चुनौती बनी हुई है। इसके बावजूद भाजपा प्रदेश में अपना वोट शेयर 50 प्रतिशत के पार ले जाने के लिए प्रयासरत है, जो आदिवासी समुदायों को जोड़े बिना संभव नहीं है। प्रदेश में आदिवासी लगभग 21 प्रतिशत हैं। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 42.5 प्रतिशत, वर्ष 2008 में 37.6 प्रतिशत, वर्ष 2013 में 45.7 प्रतिशत एवं वर्ष 2018 में घटकर 41.5 प्रतिशत हो गया। भाजपा का लक्ष्य आदिवासी वोट को भी 10 प्रतिशत बढ़ाने का है। यही वजह है कि भाजपा लगातार केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में बड़े आयोजन कर आदिवासियों को संदेश देना चाहती है कि वह उनकी सबसे बड़ी हितैषी पार्टी है। शिक्षा और सस्ते राशन के बाद भी मप्र में सबसे ज्यादा भुखमरी और कुपोषण के शिकार आदिवासी ही हैं। मप्र में आदिवासियों की आबादी करीब 2 करोड़ है। इनमें भी एक तिहाई भील और इससे कुछ कम आबादी गोंड आदिवासियों की है। वैसे राज्य में 43 से ज्यादा आदिवासी जनजातियां हैं, लेकिन इनमें भी 6 जनजातियां कुल आदिवासी आबादी का 92 फीसदी हैं। जिन बिरसा मुंडा की स्मृति में यह महाआयोजन हो रहा है, उस मुंडा समुदाय की मप्र में जनसंख्या केवल 5 हजार है।
कुल की करीब 22 फीसदी आबादी होने से मप्र में 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। दरअसल सारा खेल इन्हीं सीटों पर काबिज होने का है। 2003 के पहले तक मप्र की अधिकांश आदिवासी सीटों पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा। कुछ अपवाद छोड़ दें तो इसका बड़ा कारण कांग्रेस के अलावा किसी दूसरी पार्टी की आदिवासियों तक ज्यादा पहुंच ही नहीं थी। बीच में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे दलों ने गोंड इलाकों में जरूर कुछ जोर मारा दिखाया। यूं भी राज्य में सभी आदिवासी समुदाय भाषा, रहन-सहन, संस्कृति,परंपरा और भौगोलिक हिसाब से बंटे हुए हैं। केवल आदिवासी होना ही उनके बीच समान सूत्र है। आदिवासियों के बढ़ते धर्मांतरण के बीच बीते तीन दशकों से आरएसएस और भाजपा ने आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाई है। जिसका नतीजा रहा कि 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 47 आदिवासी सीटों में से 31 सीटें जीतने में कामयाब रही। आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की सक्रियता के मद्देनजर संघ ने आदिवासियों को हिंदुत्व से जोड़ने की पुरजोर कोशिश की है। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 25 आदिवासी सीटें गंवा दीं और ये ज्यादातर कांग्रेस ने जीत लीं। संदेश गया कि आदिवासी इलाकों में कांग्रेस की पैठ ज्यादा गहरी है, बजाय भाजपा के।
भाजपा के लिए ट्रंप कार्ड हैं द्रौपदी मुर्मू
द्रौपदी मुर्मू के नाम से भाजपा ने आने वाले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा पासा फेंका है। भाजपा ने न सिर्फ ओडिशा बल्कि देश के सभी आदिवासी प्रदेशों में अपनी मजबूत पकड़ बनाने के लिए संदेश देना शुरू कर दिया है। ओडिशा, मप्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में आदिवासियों की अच्छी खासी तादाद है। भाजपा ने ओडिशा की आदिवासी महिला नेता और झारखंड की पूर्व गवर्नर द्रौपदी मुर्मू पर दांव लगाकर क्या वास्तव में कोई ऐसा ट्रंप कार्ड चला है, जो भाजपा के लिए आने वाले चुनावों में सफलता की नई इबारत लिखने वाला है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने अनुसूचित जनजाति की महिला का नाम आगे करके न सिर्फ राजनीतिक बल्कि सामाजिक निशाने भी साध लिए हैं। जिसका असर पार्टी को आने वाले विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनावों में तो दिखना तय माना ही जा रहा है, साथ ही पार्टी की छवि राजनीतिक ही नहीं बल्कि समाज में एक विशेष जाति समुदाय के लोगों को आगे बढ़ाने की भी बन रही है।
आदिवासी वोट पर नजर
प्रदेश में 2023 के विधानसभा चुनावों के लिए सत्तारूढ़ भाजपा ने आदिवासियों पर अपना फोकस तेज कर दिया है, ताकि 2018 की तरह उसे बहुमत से दूर न रह जाना पड़े। यूं तो भाजपा पूरे देश में जनजाति समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए कई तरह के आयोजन कर रही है, लेकिन मप्र में सबसे अधिक करीब 21.1 फीसदी आबादी के चलते उसकी विशेष अहमियत है, जिनका रुझान ज्यादातर कांग्रेस की ओर रहा है। सो, आदिवासियों पर डोरे डालने की कोशिशें भाजपा के शिखर नेतृत्व की ओर से जारी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में भील जनजाति की प्राचीन पद्धति हलमा की तारीफ भी की थी। गृहमंत्री अमित शाह भी भोपाल में आदिवासियों के विशाल सम्मेलन में शामिल हुए। पिछले वर्ष नवंबर में बिरसा मुंडा की जयंती पर विशाल जनजातीय सम्मेलन हो चुका है, जिसमें खुद प्रधानमंत्री मोदी शामिल हुए थे। केंद्र सरकार ने बिरसा मुंडा के जयंती दिवस (15 नवंबर) को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इन विशाल आयोजनों के अलावा राज्य में जिला स्तर पर लगातार आयोजन का सिलसिला चल रहा है।
-सुनील सिंह